Saturday, October 29, 2016

व्यंग -- UNHRC चुनाव, कुछ चुनिंदा लोगों के मानवाधिकार।


                    अभी अभी खबर आयी है की सयुंक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के लिए हुए चुनाव में रूस को परिषद में दूसरी बार स्थान नही मिला, जबकि सऊदी अरब और अमेरिका को चुन लिया गया। इस पर कुछ मानवाधिकार संगठनों ने सन्तोष व्यक्त किया और इस बात पर अफ़सोस भी प्रकट किया की क्यूबा को फिर चुन लिया गया। मैं भी इस ख़ुशी और अफ़सोस में शामिल होने ही वाला था की मैंने सोचा की पहले ये तो पता कर लूँ की मैं ह्यूमन ( मानव ) की श्रेणी में आता भी हूँ या नही। ऐसा न हो मेरा अफ़सोस किसी काम का ही ना हो।
                    सो मैंने अपने सभी पहचान पत्र निकाले। इनमे ड्राइविंग लाइसेंस, आधार कार्ड, पैन कार्ड और कुछ दूसरी संस्थाओं के पहचान पत्र भी शामिल थे। मैंने एक एक कर सबको ध्यान से और दो दो - तीन तीन बार पढ़ा, लेकिन किसी पर भी ये नही लिखा था की मैं ह्यूमन यानि मनुष्य हूँ। उन पर ये जरूर लिखा था की मैं male हूँ। लेकिन male होने से क्या होता है ? Male तो सभी प्राणियों में होते हैं। मेरा पता, उम्र, और फोटो भी थी लेकिन ह्यूमन लिखा हुआ नही था। मैं अंदर ही अंदर काँप उठा, फिर मैंने अलमारी के सभी कागज बाहर निकाल लिए, लेकिन किसी पर भी ह्यूमन लिखा हुआ नही मिला। तभी मुझे याद आया की पिछले दिनों मैंने एक टी शर्ट दुगने दाम पर खरीदी है और उसपे ये लिखा हुआ है। मैंने जल्दी जल्दी उसे निकाला। लेकिन उसपर भी Human Being लिखा होने की बजाय , Being Human लिखा हुआ था। यानि ये लोग भी मुझे Human Being नही मानते। मैं निराशा के अंतिम छोर पर था की मेरे पड़ोसी आ गए।
                       उन्होंने चारों तरफ देखा, और प्रश्नसूचक मुद्रा में हाथ हिलाया। मैंने कहा की मुझे अपने Human होने का कोई सबूत नही मिल रहा। उन्होंने हंसते हुए कहा की होंगे तो मिलेगा न।
                     " क्या मतलब ? " मैंने कहा।
                  " भई देखो, किसी के Human होने के कुछ खास लक्षण होते हैं। जैसे हमारे देश में ये लक्षण हैं, उच्च जाती का हिन्दू होना और वो भी सत्ताधारी पार्टी के किसी संगठन का सक्रिय सदस्य होना। बोलो तुम हो ? " उन्होंने मुझसे पूछा।
                     " नही। " मैंने कहा।
                    " लो, फिर क्यों अलमारी बरबाद कर रहे हो। तुम तो पहली शर्त ही पूरी नही करते। उसके बाद वाली शर्तें, जैसे पैसे वाला होना, पुलिस से रसूख रखना, किसी अपराध में वांटेड होना इत्यादि तो तुम क्या खाकर पूरी करोगे।  खैर ये बताओ की आज अचानक Human होने की क्या जरूरत आ पड़ी ?" वो सोफे पर बैठ गए।
                " कुछ नही, बस आज सयुंक्त राष्ट्र महासभा में UNHRC के लिए वोटिंग हुई थी। सुना है उसमे रूस दूसरी बार उसका सदस्य चुने जाने में असफल रहा। कहा गया है की उसके सीरिया में हस्तक्षेप करने और बमबारी करने के कारण उसने जो मानवाधिकारों का उलँघन किया है उसके लिए ऐसा हुआ। सो मैं ये देख रहा था की सयुंक्त राष्ट्र में Human किस किस को माना जाता है। " मैंने जवाब दिया।
                 " बस इतनी सी बात के लिए परेशान हो। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों की व्याख्या एकदम स्पष्ट है। या तो आप अमेरिकी हों, वरना अमेरिकी खेमे में हों या कम से कम नाटो के सदस्य तो जरूर हों तो आपको Human मान लिया जायेगा। " पड़ोसी ने मुझे व्याख्या समझाई।
                  " लेकिन सीरिया में बमबारी तो तुर्की, सऊदी अरब, अमेरिका, फ़्रांस इत्यादि बहुत से देश कर रहे हैं। फिर उन पर सवाल क्यों नही उठाये जाते ?" मैंने कहा।
                   " अभी तुम्हे बताया गया था की अगर तुम अमेरिकी खेमे में हो तो तुम्हे मानवाधिकारों का रक्षक मान कर चला जायेगा। अब अगर रूस सीरिया में हस्तक्षेप नही करता तो अमेरिका अब तक सीरिया के लोगों के मानवाधिकारों की रक्षा करने में कामयाब हो चूका होता। जैसे उसने लीबिया और इराक के लोगों के अधिकारों और लोकतंत्र की रक्षा की थी। अब रूस की वजह से सीरिया के लोगों के अधिकारों की रक्षा नही हो पा रही। इसलिए रूस मानवाधिकारों का दुश्मन हुआ या नही ? "
                   " मानवाधिकारों की रक्षा का दावा करने वाली एक संस्था UN Watch ने कहा है की रूस को दुनिया ने बता दिया है की वो मानवाधिकारों का हनन बर्दाश्त नही करेगी। UNHRC के चुनाव में हुई वोटिंग, रूस के मुंह पर करारा तमाचा है। 193 देशों की संस्था में रूस के समर्थन में केवल 112 वोट गिरे। और जीतने वाले क्रोएशिया को पुरे 114 वोट मिले। अब इससे ज्यादा फजीहत रूस की और क्या होगी। उसने ये भी कहा है की अफ़सोस है की क्यूबा जैसे मानवाधिकारों के घोर विरोधी अभी भी इस संस्था में बैठे हैं। वो तो शुक्र है की सऊदी अरब और अमेरिका इसके सदस्य हैं वरना दुनिया में मानवाधिकारों की रक्षा कैसे होती । "
                  " हाँ, जहां तक क्यूबा का सवाल है वहां कई तरह के मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। जैसे, वहां मुफ्त चिकित्सा व्यवस्था है जो दवा कम्पनियों के मालिकों के अधिकारों का उलंघन है, इसी तरह मुफ्त शिक्षा व्यवस्था , शिक्षा की दुकान खोल कर रोटी रोजी कमाने वालों के अधिकारों का उलंघन है। और तो और, वहां पर भिखारियों तक के अधिकारों का उलंघन होता है। और वो बेचारे इतने परेशान हैं की आपको पुरे क्यूबा में एक भी भिखारी दिखाई नही देगा। अब ऐसा देश इस संस्था की परिषद में बैठा है तो ये शर्म की ही बात है। "
                   तभी टीवी पर खबर आयी की विकीलीक्स ने हिलेरी क्लिंटन की वो ईमेल छाप दी हैं जिसमे उसने कहा है की हमे इजराइल के लिए सीरिया को खत्म करना ही होगा। उसके बाद मानवाधिकारों के सवाल पर अमेरिका की प्रतिबद्धता एक बार फिर स्थापित हो गयी।

Friday, October 28, 2016

एक सैनिक भाई को एक बहन की तरफ से दीपावली की शुभ कामना का पत्र !

                    मेरे प्यारे भाई, मैं ये पत्र दीपावली की शुभ कामनाये देने के लिए लिख रही हूँ। मेरी, बापू की और पुरे गांव की तरफ से तुम्हे और तुम्हारे सभी साथियों को दीपावली की बहुत बहुत शुभकामनायें। मुझे ये पत्र इसलिए लिखना पड़ा क्योंकि प्रधानमंत्रीजी ने सारे देश के लोगों को सैनिकों को दीपावली की शुभकामनायें देने के लिए कहा है। वरना हमारी तो ऐसी कौनसी साँस होगी जिसमे तुम्हारे लिए शुभकामनायें नही होती हों। आशा करती हूँ की ये पत्र तुम्हे मिल जाये और दीपावली से पहले मिल जाये।
                      बापू दस दिन से शहर में बैठे हैं। वरना वो भी अपनी तरफ से पत्र में कुछ जरूर लिखवाते। इस बार धान की फसल खराब हो गयी थी ,लेकिन जो भी और जैसी भी थी उसे बेचने के लिए बापू दस दिन पहले शहर गए थे और अब तक नही आये। काका बता रहे थे की सरकार कोई न कोई बहाना बना कर खरीदने से इंकार कर रही है। पता नही कब बिकेगी और कितने में बिकेगी। माँ की बीमारी में जो कर्जा लिया था उसको वापिस करने का बहुत दबाव है।
                        उम्मीद है तुम तो बिलकुल ठीक ठाक होंगे। और ये भी उम्मीद है की तुम्हारी ड्यूटी देश की रक्षा में ही लगी होगी और किसी सेठ साहूकार के दरवाजे पर नही होगी। किसी अफसर के घर के बर्तन मांजने में भी नही होगी। दो साल पहले जब तुम्हारी ड्यूटी किसी अफसर के घर में बर्तन मांजने की लगी थी और उस अफसर की घरवाली ने तुम्हे थप्पड़ मारा था तो ये बात काका के लड़के ने जब वो छुट्टी आया था तो बापू को बता दी थी। बापू उस दिन बहुत रोया था। वो तो उसी दिन तुम्हारी नोकरी छुड़वाने के लिए जा रहा था लेकिन माँ की बीमारी में पैसो की जरूरत के कारण नही जा पाया।
                     अभी कुछ दिन पहले जब टीवी में ये खबर आयी थी की छत्तीसगढ़ में सैनिको ने ही गांव वालों के घर जला दिए थे और बलात्कार और कत्ल तक किये थे। तब बापू का मुंह खुला का खुला रह गया था। उनको कुछ समझ नही आ रहा था। बहुत देर बाद उनके मुंह से केवल ये निकला की इससे तो बर्तन मांजना ही अच्छा। कई दिन तक बापू ने कम रोटी खाई।
                       अब तो तुम्हारी ड्यूटी सीमा पर ही है ना। मैं तुमसे एक बात कहना चाहती हूँ। टीवी पर बहुत खराब खराब खबरें आ रही हैं। अगर लड़ाई छिड़ जाये तो तुम किसी गांव में आग मत लगाना। तुम तो जानते ही हो अपना दो कमरे का मकान बनाने में बापू की पूरी जिंदगी लग गयी। इसी तरह उन लोगों की लगी होगी। तुम किसी बच्चे पर गोली मत चलाना। बच्चे थोड़ा ना लड़ाई के लिए जिम्मेदार हैं। अगर दुश्मन के सैनिक हमारे यहां इस तरह का काम करें तो तुम उन्हें मार डालना। और अगर दुश्मन के किसी गांव के लोग घर छोड़ कर भाग गए हों तो वहां तुम्हे कुछ बूढ़े और बीमार लोग मिलेंगे, जो घरवालों के साथ भाग नही सके होंगे। तुम उन्हें कुछ खाने के लिए देना और उनसे कहना की उनके रिश्तेदार जल्द वापिस आएंगे। मैं जानती हूँ की तुम कोई गलत काम नही करोगे , लेकिन जब सिर काटने की मांगे हो रही हों तो कुछ भी हो सकता है।
                        हम यहां बैठ कर ये दुआ करेंगे की लड़ाई ना हो। ताकि तुम और तुम्हारे साथी भी दीपावली मना सकें।
                                                                                                              तुम्हारी छोटी बहन
                                                                                                                      गुड्डी 

Thursday, October 27, 2016

व्यंग -- " हमारी बहनो " की रक्षा में


              जब से प्रधानमंत्री मोदी जी ने " हमारी बहनो " की तीन तलाक जैसे अन्यायी और अत्याचारी नियम से रक्षा करने की बात कही है , हमारे मुहल्ले के वो सभी लोग एक बार फिर से सक्रिय हो गए हैं जो पिछले दंगो के समय सक्रिय थे। लेकिन अबकी बार उनकी सक्रीयता जरा दूसरी तरह की है। पिछली बार वो भारतीय सँस्कृति और हिन्दू राष्ट्र की रक्षा कर रहे थे और इस बार वो मुस्लिम महिलाओं की रक्षा कर रहे हैं। अलबत्ता दुश्मन पहले भी मुस्लिम पुरुष थे और इस बार भी मुश्लिम पुरुष हैं। पिछली बार दुश्मनो की लिस्ट में पुरुषों के साथ महिलाएं और बच्चे ( जो अभी पैदा नही हुए थे वो भी ) भी शामिल थे , इस बार पुरुष हैं। इसके लिए एक मीटिंग का आयोजन किया गया था। मेरे  पड़ोसी भी उस मीटिंग में जाने वाले थे क्योंकि वो भी इस राष्ट्र बचाओ समूह के सक्रिय सदश्य थे। मेरे बारे में वो जानते थे इसलिए इस बार वो मुझे साथ चलने के लिए मजबूर कर रहे थे क्योंकि उनके हिसाब से वो बहुत ही प्रगतिशील काम कर रहे थे, और मुझे दिखाना चाहते थे। मैं चूँकि हरबार उनके कार्यक्रमो की आलोचना ही करता था। सो वो मुझे भी घसीट ले गए।
                  हाल पूरा भरा हुआ था। मुख्य वक्ता बोलने के लिए खड़े हुए। उन्होंने महिलाओं की समानता की जरूरत, संविधान में इसका जिक्र और मुस्लिम महिलाओं की खराब स्थिति पर पूरा प्रकाश डाला। जब भी उनके भाषण में कोई तेजस्वी बात आती तो मेरे पड़ोसी जोर जोर से ताली पीटते और गर्व से मेरी तरफ देखते। मैं भी स्वीकार में सिर हिलाता और उनके अभिमान की छड़ी एक इंच लम्बी हो जाती। करीब दो घण्टे बाद कार्यक्रम समाप्त हुआ। बाहर निकलते ही उन्होंने मुझसे पूछा, कैसा लगा ? ठीक था, मैंने कहा।
                 पैदल चलकर हम करीब आधे घण्टे में वापिस घर पहुंचे। देखा तो उनकी छोटी बहन आयी हुई थी और घर में माहौल थोड़ा खिंचा खिंचा सा था। मैं भी उसके साथ ही चला गया।
                  क्या बात है ? और तुम कब आयी सविता ? सब ठीक ठाक तो है न ? उसने चिंता से तुरन्त कई सवाल किये।
                   " ठीक क्या है ? इसके ससुराल वालों ने बहुत ही गिरी हुई हरकत की है। " जवाब पड़ोसी  की पत्नी ने दिया।
                  " हुआ क्या ? " पड़ोसी ने पूछा।
      उन्होंने जो बताया वो इस प्रकार था।
                मेरे पड़ोसी की बहन सविता की शादी करीब चार साल पहले हुई थी। शादी के एक साल बाद उसको एक लड़की पैदा हुई। उसके बाद तीन साल के बाद सविता फिर से माँ बनने वाली है। तो उसकी सास और पति उसको डॉक्टर से चैक करवाने के बहाने हॉस्पिटल लेकर गए। वहां उन्होंने पहले से सैटिंग की हुई थी। डॉक्टर ने उसकी सोनोग्राफी करके घरवालों को बताया की अब भी लड़की ही है। बस  उसके पति और सास ने तुरन्त गर्भ गिराने के लिए डॉक्टर को कह दिया। जब सविता को इस बात का पता चला तो उसने विरोध किया। वो किसी भी हालत में गर्भ गिराने को तैयार नही थी। झगड़ा हुआ। सब लोग वापिस आ गए। उसके बाद घर में भारी झगड़ा हुआ।  ससुराल वालों ने साफ कह दिया की यहां रहना है तो गर्भ तो गिराना हो पड़ेगा। पहले एक लड़की है और वो दूसरी लड़की पैदा करना नही चाहते। उसके बाद उन्हें लड़के के लिए तीसरी सन्तान का इंतजार करना पड़ेगा जो इस महंगाई के जमाने में कोई समझदारी भरा फैसला नही है। सविता ने भी कह दिया की कुछ भी हो जाये वो गर्भ तो नही गिराएगी। और वो मायके चली आयी।
                 मेरे पड़ोसी का चेहरा बिगड़ गया। उसने सविता को डांटते हुए कहा की इसमें घर छोड़ कर आने की क्या बात थी। और बच्चा उनका है, वो चाहे रखें या गिराएं। तुम्हे इसमें अपनी मर्जी घुसेड़ने की क्या जरूरत थी। और तुम्हारी ससुराल वाले कोई लड़कियों के दुश्मन नही हैं। पहले भी तो तुम्हारे लड़की ही हुई थी, तो क्या किसी ने कुछ कहा ? अब जमाने को देखकर थोड़ा बहुत तो उसके साथ चलना ही पड़ता है। इस बात पर हंगामा करना मुझे तो बिलकुल समझ में नही आया।
                    लेकिन मैं अपनी बच्ची की हत्या नही कर सकती। सविता रोने को हो गयी।
                     अपनी बच्ची का क्या मतलब है। जो अब तक पैदा भी नही हुई उसके लिए तू अपने परिवार से झगड़ा कर रही है। तेरी अक्ल घास चरने गयी है। अब फालतू की बातें बन्द कर और चल मेरे साथ। मैं तुझे छोड़कर आता हूँ।
                   मैंने "बीच में बोलने की कोशिश की। " अभी तुम मुस्लिम महिलाओं के लिए ----------- "
                  उसने मेरी बात बीच में ही काटते हुए कहा ," हाँ, तुम्हे मालूम है की दूसरी महिलाएं कैसी कैसी तकलीफ में रहती हैं। अभी हम लोग आये हैं। मुस्लिम महिलाएं बेचारी , उन्हें तो टेलीफोन पर तीन बार तलाक कह दिया जाता है और वो बेचारी अदालत तक नही जा सकती। तुम्हे तो स्वर्ग जैसी ससुराल मिली है और तुम वहां झगड़ा करती हो। थोड़ा समझो, अब तुम बच्ची नही हो। "

Tuesday, October 25, 2016

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव व दूसरी खबरें


खबरी -- अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव पर क्या कहना है ?

गप्पी -- जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा था की किसी भी देश की जनता को उससे अच्छा शासक नही मिल सकता, जिसे वो डिज़र्व करती है। अब भारत के बाद इस श्राप को भुगतने की बारी अमेरिकी जनता की है।

खबरी -- आरएसएस के अखण्ड भारत के नारे पर क्या कहना है ?

गप्पी -- अखण्ड भारत का नारा दो और हर शहर, हर कस्बे और हर मुहल्ले में दीवारें खींच दो। अगर आरएसएस की विचारधारा के अनुसार अखण्ड भारत बनाया जायेगा तो उसका क्षेत्रफल दिल्ली से भी कम होगा।

खबरी -- बीजेपी नेताओं के बहुत आपत्तिजनक फोटो अख़बारों में छप रहे हैं ?

गप्पी -- चाल, चेहरा और चरित्र देर सबेर सामने आ ही जाते हैं।

मुल्ला नसीरूदीन और भारतीय राजनीति

           
                मुल्ला नसीरूदीन की एक पुरानी कहानी है जो आज के राजनैतिक हालात पर एकदम फिट बैठती है। बात इस तरह है की मुल्ला नसीरूदीन अपने पडौस के राज्य में व्यापार करने जाते थे। एक बार उस राज्य के राजा ने दूसरे राज्यों से आने वाले कुछ सामान पर प्रतिबन्ध लगा दिया। और उस प्रतिबन्ध को लागु करने के लिए बड़ी मात्रा में सैनिको को राज्य के दरवाजे पर तैनात कर दिया। सैनिक पूरी ईमानदारी और मेहनत से बाहर से आने वाले व्यापारियों की तलाशी लेते की कहीं कोई प्रतिबन्धित वस्तु तो लेकर नही जा रहा। उन्हें मुल्ला नसीरूदीन पर पूरा शक था इसलिए उसके साथ वो अतिरिक्त सतर्कता से पेश आते। मुल्ला नसीरूदीन हररोज अपने गधों पर घास के बड़े बड़े गटठर लाद कर आते। सैनिक उनके गटठर खोल कर पूरी सतर्कता से तलाशी लेते लेकिन उन्हें कुछ नही मिलता। इस तरह काफी समय बीत गया। इस दौरान व्यापार से मुल्ला नसीरूदीन ने काफी पैसा कमाया। सैनिक हैरान थे। वो अच्छी तरह तलाशी लेते थे लेकिन उसकी घास में उन्हें कभी कुछ नही मिला। वो सोच रहे थे की आखिर मुल्ला नसीरूदीन इतना पैसा कैसे बना रहे हैं।
                   एक दिन वहां के दरोगा ने मुल्ला नसीरूदीन को कोई भी कार्यवाही ना करने और उन्हें आने जाने की पूरी छूट देने का भरोसा दिलाते हुए उससे पूछा की वो घास के गटठर में क्या छुपा कर ले जाते हैं ?
                   मुल्ला ने हंसते हुए बताया की वो घास का नही बल्कि गधों का व्यापार करते हैं। सैनिक घास की तलाशी में लगे रहते हैं और वो हररोज अपने साथ लाये गए गधे बेच कर वापिस आ जाता है।
                      यही हाल हमारी राजनीति का हो गया है। पूंजीपति वर्ग अपने गधे बेच रहा है और हम घास की तलाशी में लगे हुए हैं। सरकार ने सरकारी कम्पनियां बेच दी, किसानों और आदिवासियों की जमीने पूजीपतियों को थमा दी, रक्षा सौदों में दलाली को क़ानूनी कर दिया, बैंको का पैसा धन्ना सेठों को देकर माफ़ कर दिया और हम बीफ पर, तीन तलाक पर, सर्जिकल स्ट्राइक पर, समान सिविल कोड पर और राम मन्दिर पर बहस कर रहे हैं। हमे ये दिखाई ही नही देता की इन सब की आड़ में पूंजीपति वर्ग अपने गधे बेच रहा है और आराम से है।

Monday, October 24, 2016

विदेशी कानूनों पर सलेक्टिव रवैया और राजनितिक दावपेंच


                   जिस तरह बाजार विज्ञापनों के जरिये पहले बिना जरूरत की वस्तुओं की मांग खड़ी करता है और फिर उन वस्तुओं को बेच कर मुनाफा कमाता है। ठीक उसी तरह राजनीती पहले समस्याएं पैदा करती है, उन्हें प्रचारित करती है और फिर उन्हें हल करने के वायदे के साथ वोट मांगती है। 
                   जिन देशों को दुश्मन घोषित करना होता है उनके बारे में रवैया और तर्क दूसरी तरह के होते हैं और जिनके साथ भागीदारी करनी होती  है उनके बारे में तर्क दूसरी तरह के होते हैं। 
                   बीजेपी सरकार के सत्ता में आने के बाद हुई कुछ घटनाओं का जिक्र करना जरूरी है। क्रिकेट की सट्टेबाजी से जुड़े मामलों में आरोप झेल रहे ललित मोदी भारत छोड़ कर चले गए। जब वो देश छोड़कर गए थे तब कांग्रेस का शासन था। उसके बाद ये सामने आया की विदेश मंत्री शुष्मा स्वराज ने उन्हें वीजा दिलाने में मदद की। इस पर संसद में बहुत हंगामा हुआ। ललित मोदी को वापिस लाने के लिए दबाव बढ़ा तो भारत सरकार को उसके लिए कुछ प्रयास करने पड़े। आखिर में मामला ये कह कर ठंडे बस्ते में चला गया की ब्रिटेन के कानून ललित मोदी को तुरन्त वापिस भेजने की इजाजत नही देते। इसके बारे में खुद अरुण जेटली ने संसद में बयान देकर ये बात बताई। बात खत्म।
                     उसके बाद विजय माल्या बैंको का 9000 करोड़ रुपया लेकर ब्रिटेन भाग गए। इस पर भी संसद में खूब हो हल्ला हुआ। उसके बाद फिर ये कहा गया की ब्रिटेन कानून इस तरह विजय माल्या को वापिस भारत भेजने की इजाजत नही देते। बात खत्म।
                      हररोज ये खबर आती है की डॉन दाऊद इब्राहिम दुबई में रहता है और वहीं से अपने कारोबार का संचालन करता है। उसके खिलाफ इंटरपोल का रेड कॉर्नर नोटिस भी है। लेकिन भारत सरकार कभी भी दुबई सरकार पर इसका दबाव नही डाल पाई की वो दाऊद को हमारे हवाले करे। दबाव डालना तो दूर, कभी बयान तक नही आया। दाऊद वहां बैठा है, बात खत्म।
                      अभी एक हफ्ते पहले ये खबर आयी भारत की अदालतों में वांटेड मोईन कुरैशी हवाई अड्डे पर अधिकारियों को चकमा देकर दुबई फरार हो गया। ( हम इस बहस में नही पड़ना चाहते की वो चकमा देकर फरार हुआ या उसे निकाला गया ) क्या आप में से किसी ने सरकार का कोई बयान सुना की दुबई की सरकार उसे गिरफ्तार करके भारत के हवाले करे। नही। बात खत्म।
                      लेकिन वही भारत सरकार पाकिस्तान की सरकार को हररोज कोसती है की वो हाफिज सईद और मसूद अजहर को भारत के हवाले नही कर रही। पाकिस्तान के ये कहने पर की उसकी अदालतें बिना किसी ठोस सबूत के उसके किसी नागरिक को दूसरे देश को सौंपने की इजाजत नही देंती , हम इसे उसकी ड्रामेबाजी कहते हैं। और उसे हररोज मुद्दा बनाते हैं। हमारी सरकार का ये भी कहना है की पाकिस्तान की सरकार जानबूझकर वहां की अदालत में पुख्ता सबूत नही रखती ताकि उन्हें बचाया जा सके। इस बात में दम हो सकता है। लेकिन हम ये क्यों भूल जाते हैं की हम खुद कश्मीर में मसर्रत आलम को जेल में नही रख पाए और जम्मू कष्मीर हाई कोर्ट में उसे जेल में रखने की जरूरत पर पुख्ता सबूत नही पेश कर पाए।
                      इसके पीछे बीजेपी की पाकिस्तान विरोधी हवा को मजबूती देने की राजनीती भी है और हमारे देश के लोगों का करोड़ों, अरबों रुपया चाउ कर जाने वाले आर्थिक अपराधियों को बचाने और उनके साथ मिलीभगत भी एक कारण है। हमारी सुप्रीम कोर्ट जब रिलायन्स को दोषी ठहराते हुए उस पर करोड़ों का जुरमाना करती है तब उसे वसूल करने और कानून का उलँघन करने के लिए उसे लताड़ने की बजाय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीजी खुद जिओ के विज्ञापन में नजर आते हैं।
                     ये सलेक्टिव नजरिया है जो अपनी राजनितिक जरूरतों और अपने लोगों की तरफदारी से संचालित होता है। पता नही लोग इसे कब समझेंगे।
                 

राजनितिक मिलीभगत और सत्ता के दुरूपयोग के प्रतीक - अनुराग ठाकुर

photo of anurag thakur and rajiv shukla sitting and talking

                जब से क्रिकेट में सट्टे बाजी को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने लोढ़ा कमेटी का गठन किया है, तब से पुरे देश की आँखें फ़टी रह गयी हैं। रोज रोज जो नए नए रहस्योद्घाटन हो रहे हैं उनसे BCCI के रुतबे, उसके पदाधिकारियों की राजनीती से ऊपर उठ कर मिलीभगत और सत्ता के दुरूपयोग के जो किस्से बाहर आ रहे हैं वो किसी परीलोक से कम नही हैं। हजारों करोड़ की सट्टेबाजी, खिलाडियों की खरीद फरोख्त, खेल के नाम पर किये जाने वाले कुकर्म, और करोड़ों के वारे न्यारे करने की तरकीबें देख कर लोग अचंभित हैं। जो राजनैतिक दल किसी भी मामले पर एकमत नही होते, जो एक दूसरे के खिलाफ खोद खोद कर व्यक्तिक आरोप ढूढंते हैं, वो लोग कैसे BCCI में जाते ही पक्के रिस्तेदार हो जाते हैं।
                   खैर, हम ठाकुर की बात कर रहे थे। अनुराग ठाकुर हिमाचल प्रदेश के बीजेपी के नेता हैं। हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री श्री प्रेम कुमार धूमल के सुपुत्र हैं और बीजेपी की युवा शाखा के राष्ट्रिय अध्यक्ष रह चुके हैं। वर्तमान में हिमाचल से ही बीजेपी के लोकसभा के सांसद हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जब राजनीतिकों और सरकारी अफसरों पर BCCI का पदाधिकारी बनने पर रोक लगाई तो अनुराग ठाकुर पर भी तलवार लटकने लगी। उसके बाद कहा गया की अनुराग ठाकुर खिलाडी कोटे से आये हैं। जब इसकी पूरी तफ्सील में जाया गया तो ये बात सामने आयी। -
                  जब श्रीमान धूमल जी हिमाचल के मुख्यमंत्री थे तो अनुराग ठाकुर को क्रिकेट की संस्थान में शामिल करने के लिए बहुत ही भारी तिकड़म की गयी।  चूँकि क्रिकेट की सलेक्शन कमेटी में शामिल होने के लिए किसी भी राष्ट्रिय स्तर की प्रतियोगिता में खेला हुआ खिलाडी होने की शर्त है, इसलिए एक दिन अचानक अनुराग ठाकुर को रणजी ट्रॉफी की हिमाचल की टीम का कप्तान बना दिया गया। उसका जम्मू-कश्मीर के खिलाफ मैच हुआ तो जनाब ठाकुर जीरो पर आउट हो गए। वो सात मिनट क्रीज पर रहे। और उन्हें राष्ट्रिय स्तर पर क्रिकेट खेलने का सर्टिफिकेट मिल गया। उससे पहले अनुराग ठाकुर किसी जिला स्तर की टीम में भी नही रहे। उसके पहले या बाद में उन्होंने कोई मैच नही खेला। इस तरह उनका हिमाचल क्रिकेट एसोसिएसन की सिलेक्शन कमेटी शामिल होने और उसके बाद BCCI  पदाधिकारी बनने का रास्ता साफ हो गया। इसके लिए कई बार नियमो को बदला गया। बाद में उनको हिमाचल में क्रिकेट अकेडमी बनाने के नाम पर करोड़ों की जमीन फ्री में दे दी गयी।
इसके बारे में पूरी कहानी नेट पर उपलब्ध है। http://www.dnaindia.com/sport/report-the-curious-case-of-anurag-thakur-the-cricketer-2185336  

             उसके बाद से अनुराग ठाकुर बखूबी BCCI को सम्भाल रहे हैं। कांग्रेस और एनसीपी समेत कई पार्टियों के नेता उनके सहयोगी हैं। किसी भी राजनितिक पार्टी ने उनके खिलाफ कोई प्रभावी जाँच की माँग नही की। संसद में अनुराग ठाकुर राबर्ट वाड्रा के खिलाफ जहर उगलते हैं, कांग्रेस और बीजेपी के सांसद दूसरे को कोसते हैं , लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट अनुराग ठाकुर सवाल उठाता है तो वकील के रूप में कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल उनका  बचाव करते हैं। अब कुछ लोग इसे वकील के पेशे से जुडी जिम्मेदारी और दोनों चीजों को अलग करने की बात करेंगे, परन्तु जब नलिनी चिदम्बरम का मामला होता है तो ये बात नही होती और एथिक्स की बात की जाती है। सबको मालूम है की ये तुम भी खाओ, हमे भी खाने दो का मामला है। पहले भी एनसीपी नेता प्रफुल्ल पटेल की बेटी को कान्ट्रेक्ट का मामला सामने आया था। इसलिए BCCI सत्ता के दुरूपयोग और राजनैतिक मिलीभगत का संस्थान बन गया है और अनुराग ठाकुर उसके सही प्रतीक हैं।
                   इसके साथ ये बात भी ध्यान रखने की है की वो बीजेपी के नेता है जो भृष्टाचार के नाम पर दूसरों को पानी पी पी कर कोसती है।  

Saturday, October 22, 2016

चीनी सामान का बहिष्कार छाती कूटने से नही, आत्मनिर्भर विकास से होगा।

                    पिछले कई दिनों से भक्त छाती कूट रहे हैं की चीनी सामान का बहिष्कार करो। कई जगह से इसे समर्थन मिलने की खबरें भी आ रही हैं। लेकिन अंत में ये मामला केवल फिजूल पीठ थपथपाने तक रह जाने वाला है। क्योंकि भक्तों को तो यही नही मालूम है की चीन का क्या क्या सामान हमारे देश में बिकता है।
                     चीन से हमारे देश में जो सामान आयात होता है उसमे, TB और कुष्ठ रोग की दवाइयाँ, टेक्सटाइल की मशीनरी और कच्चा मॉल, टीवी के सेट टॉप बॉक्स, मोबाइल फोन, रिमोट, बिजली का सामान, सजावट का सामान, फर्नीचर, पटाखे, दिवाली की सजावट का सामान, हार्डवेयर का सामान इत्यादि बहुत सी चीजें शामिल हैं। जिसमे भक्तों की निगाह केवल पटाखों और लड़ियों पर है जो चीनी आयात का बहुत छोटा सा हिस्सा है।
                    अगर चीन से सारे सामान का आयात बन्द कर दिया जाये तो उसका एक सबसे बुरा पहलू ये होगा की टेक्सटाइल जैसी कई चीजें इतनी महंगी हो जाएँगी की हम उसे अंतरराष्ट्रीय बाजार में  नही बेच पाएंगे। जो लोग केवल चीन से हमारे आयात और निर्यात की तुलना करते हैं वो ये भूल जाते हैं की जो सामान हम चीन से आयात करते हैं, उसे कच्चे मॉल के रूप में इस्तेमाल करके दूसरे देशों में बेचते हैं। चीन का सारा सामान हमारे देश में ही प्रयोग नही होता।
                    अपने देश के उद्योगों का विकास किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए सबसे जरूरी चीज है। लेकिन हमारे यहां तो राजनीती करने और पीठ थपथपाने से ही किसी को फुर्सत नही है। अब एक ही उदाहरण लो। नरेंद्र मोदी ने सरदार पटेल की मूर्ति बनाने की घोषणा की। उसे सबसे ऊँची मूर्ति का ख़िताब मिले फिर भले ही राज्य लुट जाये। उसके लिए 2000 करोड़ का ठेका चीन की कम्पनी को दे दिया। जब आपके पास ऐसी मूर्ति बनाने की सुविधा ही नही है तो आपको उससे बचना चाहिए था। आप सरदार पटेल के नाम पर किसानों के लिए 3000 करोड़ का खर्च करके एग्रीकल्चर विश्वविद्यालय बना सकते थे जो भारत का सबसे बड़ा कृषि विश्वविद्यालय होता। इससे शिक्षा और रिसर्च के क्षेत्र में हमारी हिस्सेदारी बढ़ती और देश को उसका लाभ मिलता। इससे सरदार पटेल को क्या एतराज था। लेकिन छाती कूटने की स्पर्धा में आपने इतना बड़ा खर्च करके  ना केवल विदेशी कम्पनी को ठेका दे दिया, बल्कि एक अनुत्पादक चीज भी बना ली। जो देश विकास के लिए हररोज दूसरों से निवेश की अपीलें करता हो उसके लिए इस तरह का खर्च करना समझदारी तो नही माना जा सकता।
                आज भी हमारी सरकार इस हालत में नही है की वो चीनी सामान पर रोक लगा सके। फिर भक्तों का छाती कूटना कोरी और गन्दी राजनीती ही माना जायेगा।

Friday, October 21, 2016

GST की टैक्स की स्लैब आम आदमी के विरुद्ध नही होनी चाहिए !


                       पहले दिन से ही, जब से GST लाने की बात हो रही थी, हम उसके जन विरोधी ढांचे पर सवाल उठाते रहे हैं। अब जबकि ये कानून संसद से पास हो चूका है, इसकी बहुत सी चीजें सामने आ चुकी हैं। उन चीजों से हमारी उन आशंकाओं की पुष्टि होती है जो हमने इसके सन्दर्भ में उठाई थी। जैसे --
                        इस कानून के आने के बाद राज्य सरकारों को टैक्स लगाने या हटाने के सारे अधिकार खो देने पड़े हैं। अब चाहकर भी कोई राज्य सरकार किसी भी चीज पर कोई टैक्स छूट नही दे सकती है और ना ही हानिकारक चीजों पर अतिरिक्त टैक्स लगा सकती है। खैर ये तो वो चीज है जिसका सबको पता था। लेकिन बहुत सी चीजें ऐसी भी हैं जिनसे उस समय सरकार इंकार कर रही थी और अब वो सामने आ रही हैं।
                       GST लागु होने के बाद भी टैक्स की कोई एक दर नही होगी। अभी जो प्रस्ताव GST काउन्सिल के पास है उसमे चार दरों का प्रावधान है। ये भी लगभग तय हो चूका है की टैक्स की स्लैब चार स्तरीय ही होगी। अब केवल उन दरों पर फैसला होना बाकी है।
                        लघु उद्योगों को जो अब तक 1 . 5 करोड़ की छूट हासिल थी, वो अब समाप्त हो जाएगी और 20 लाख से ऊपर टर्नओवर वाले सभी संस्थान GST के दायरे में होंगे। यानि लघु उद्योगों को अब तक हासिल सुरक्षा, जो उन्हें बड़ी कम्पनियों के कम्पीटिशन से बचाती थी, अब खत्म हो जाने वाली है। हम इसका जिक्र पहले भी करते रहे हैं। लेकिन तब सरकार इससे इंकार कर रही थी।
                          इसके अलावा जो सरकार अब तक कहती रही थी की इसके लागु होने के बाद राज्यों के टैक्स उगाही में कोई कमी नही आएगी। इसके लिए केंद्र सरकार का रुख ये था की सर्विस टैक्स को GST में शामिल करने के बाद उसमे से राज्य सरकारों को बड़ी रकम मिलेगी। ये बात अपने आप में सही भी है। लेकिन अब केंद्र सरकार अपनी ही कही बात से पीछे हट रही है। उसने राज्य सरकारों को इस कमी के भुगतान के लिए एक सेस लगाने का प्रस्ताव किया है। जिसका केरल सहित कई राज्यों ने विरोध किया है। अगर टैक्स की उगाही में कोई कमी ही नही आने वाली है तो उससे पहले ही सेस के नाम पर लोगों पर बोझ डालने का क्या मतलब है। केरल इत्यादि कुछ राज्यों का कहना है की अगर केंद्र को लगता है की टैक्स की उगाही कम होगी तो अभी से लक्जरी वस्तुओं पर प्रस्तावित टैक्स की दर जो 26 % है, उसे 30 % कर दिया जाये। सेस के नाम पर केंद्र अतिरिक्त उगाही करे ये ठीक नही है।
                      GST काउन्सिल की मीटिंग में सबसे बड़ा अंतर्विरोध इस बात पर है की टैक्स की दरें क्या हों। केंद्र सरकार ने चार दरों - 6 % - 12 % - 18 % - 26 % का प्रस्ताव दिया है। जिसमे आम आदमी की रोजमर्रा की चीजों पर 6 % की दर और तंम्बाकू, गुटखा, SUV और दूसरी विलासिता की चीजों पर 26 % की दर का प्रस्ताव है। लेकिन केरल के वित्त मंत्री और सीपीएम के नेता थॉमस इजाक ने इसका विरोध करते हुए कहा  है की न्यूनतम 6 % की दर को कम किया जाना चाहिए। क्योंकि सरकार का कहना है की नई दरों से पहले के मुकाबले हर वस्तु पर टैक्स की दर कम हो जाने वाली है। लेकिन आम आदमी के इस्तेमाल की चीजों पर अभी मौजूद दर 5 % है, इसलिए उसको क्यों बढ़ाया जा रहा है? दूसरी तरफ SUV इत्यादि वस्तुओं पर मौजूदा प्रभावी दर 48 % है जिसे कम करके 26 % किया जा रहा है। ये तो गरीबों की कीमत पर अमीरों को फायदा पहुंचाने वाली बात हुई। इसलिए इस मीटिंग में ये गतिरोध दूर नही हो पाया। इसलिए ये आशंका बढ़ गयी है की सरकार एक बार फिर गरीबों पर बोझ डालकर अमीरों को फायदा पहुंचाने की कोशिश कर सकती है।
                         जब से सेस लगाने की बात हुई है तब से उद्योग जगत के लोग भी बहुत निराश हैं। उनका कहना है की अगर फिर वही टैक्स और अलग से सेस का जमाना चालू रहता है तो फिर पिछली प्रणाली और इसमें क्या फर्क रह जायेगा। सरकार ने सरलीकरण का जो वादा किया था उसका क्या हुआ ?
                          इसलिए ये प्रणाली भी अपने सारे वायदों और कस्मों के बावजूद केवल टैक्स बढ़ाने की कवायद ही ना रह जाये।

Tuesday, October 18, 2016

व्यंग -- चीनी सामान का बायकाट और हमारे शहर की मीटिंग।


                    पुरे देश में चीनी सामान और पाकिस्तानी कलाकारों के बायकाट की मुहीम चल रही है। कई दिन से हमारे शहर के निवासियों को भी लगता था की जैसे वो देशभक्त नही हैं। इसलिए कल हमारे शहर के निवासियों ने भी मीटिंग करके चीनी सामान के बॉयकाट की घोषणा कर दी। हम पाकिस्तान के कलाकारों का भी विरोध करना चाहते थे लेकिन उसपर एकराय नही बन पाई सो उसके लिए दुबारा मीटिंग करने का फैसला लिया गया। इस मीटिंग का ब्यौरा इस प्रकार है -
                    सबसे पहले शहर के एक गणमान्य नेता ने, जो सरकारी पार्टी के एक संगठन से जुड़े हैं, एक बहुत ही प्रभावशाली और प्रेरक भाषण दिया। जिसमे इस बॉयकाट की जरूरत पर जोर दिया और उसके कारणों की जानकारी दी। उन्होंने कहा, " भाइयो, हम आज पाकिस्तान के कलाकारों और चीनी सामान के बॉयकाट के लिए ये मीटिंग कर रहे हैं। मुझे इसमें भाग लेने का अवसर मिला है तो उसके लिए मैं इस सरकार का आभारी हूँ।  क्योंकि आजादी की लड़ाई में जब पूरा देश अंग्रेजी सामान की होली जला रहा था तब हम उसके विरोध में थे। इसका कारण ये था की हम अंग्रेजो को अपना माई बाप मानते थे और उनके खिलाफ आंदोलन  को देशद्रोह। आजादी के बाद हमे महसूस हुआ की हमे भी किसी ना किसी चीज का विरोध और बॉयकाट करना चाहिए। लेकिन हमे मौका ही नही मिला।
                           जब पाकिस्तान के खिलाफ लड़ाइयां हुई तो अमेरिका उसके साथ खड़ा था। उस समय भी लोगों ने अमेरिका के सामान का बॉयकाट करने के लिए कहा था, लेकिन आजादी के बाद हम ने बाप बदलकर इंग्लॅण्ड की जगह अमेरिका कर लिया था सो हम उसका बॉयकाट नही कर सकते थे। इसलिए वो मौका हमारे हाथ से निकल गया।
                            उसके बाद जब भोपाल गैस दुर्घटना हुई तो बहुत से लोगों ने यूनियन कार्बाइड के सामानों के बॉयकाट की बात की। लेकिन वो कम्पनी भी अमेरिका की ही थी सो हम मन मार कर रह गए और उस बॉयकाट में शामिल नही हो सके। इसलिए मेरा आपसे निवेदन है की इस बॉयकाट को कामयाब किया जाये ताकि हमारा नाम भी बॉयकाट करने वालों की लिस्ट में शामिल हो जाये। जय भारत। "
                        उसके बाद एक आदमी ने प्रश्न किया की क्या पाकिस्तानी कलाकारों के गाये हुए पुराने गानो को भी डिलीट किया जाये जैसे गुलाम अली वगैरा। या फिर नए गाने डाऊनलोड करने पर ही पाबन्दी है ?
                          इस  पर किसी ने कहा की केवल नए गानो पर ही प्रतिबन्ध है। तो उसने पूछा फिर उन फिल्मो का बॉयकाट क्यों कर रहे हो जो बन चुकी हैं ?
                          इस पर एक दूसरे आदमी ने कहा की पाकिस्तानी मतलब पाकिस्तानी। नया हो या पुराना, सब पर पाबन्दी है। हम कोई पुराना गाना भी नही सुनेगे।
                           एक बुजुर्ग ने पूछा की इक़बाल के लिखे उस गीत का क्या करें, " सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा। " क्योंकि बाद में इक़बाल भी पाकिस्तानी हो गए थे। और क्या फैज अहमद फैज जैसे लेखकों को पाकिस्तानी माना जाये या नही। और आजादी से पहले बनी फिल्मो के गीतों का क्या करें जिनके गायक बंटवारे में पाकिस्तान चले गए थे ?
                         इस पर काफी हो हल्ला हुआ। बाद में ये तय हुआ की इस मामले पर दुबारा से मीटिंग बुलाई जाएगी। इसलिए आज केवल चीनी सामान पर ध्यान दिया जाये।
                         चीनी सामान पर जब विचार हुआ तो ये बात आयी की जो सामान अब तक खरीदा जा चूका है उसका इस्तेमाल किया जाये या नही। मीटिंग में ऐसे बहुत लोग थे जिनके कारखानों में चीनी मशीने लगी हुई थी। और बहुत से लोगों के पास चीनी मोबाइल फोन थे और उनके घरों में चीनी सामान बड़ी तादाद  में था। सो इस सवाल पर मीटिंग में दो राय हो गयी। मामला बिदकने लगा तो अध्यक्ष ने कहा की पहले खरीदी हुई चीजों को बायकाट से  बाहर रखा जाये।
                          अगला सवाल ये आया की सरकार जो सामान चीन से खरीद रही है उसका क्या किया जाये ? जैसे सरदार पटेल की जो मूर्ति चीन से बनकर आएगी, उसे लगाने दिया जाये या नही ? जो मेट्रो रेल के समझौते चीन के साथ हुए हैं उनमे बैठा जाये या नही ? इस तरह के बहुत से सवाल खड़े हो गए।
                        बाद  में ये फैसला हुआ की बॉयकाट हो या न हो लेकिन बयान दे दिया जाये की हमारा शहर भी चीनी सामान का बॉयकाट करेगा। जिन लोगों के लड़के खाली हैं वो जलूस निकाल कर थोड़ा बहुत चीनी सामान को जला दें और किसी छोटे दुकानदार या रेहड़ी पटरी वाले के पास चीनी सामान दिखाई दे तो उसे तोड़ दिया जाये ताकि अख़बार में फोटो भी आ सके और सम्मानित नागरिकों का नुकशान भी ना हो।
                          इस तरह चीनी सामान के बॉयकाट की ये सफल मीटिंग समाप्त हुई।

Monday, October 17, 2016

भारत, आतंकवाद और ब्रिक्स सम्मेलन


           
  सार्क सम्मेलन को रदद् करवा देने में कामयाब होने के बाद प्रधानमंत्री मोदी इस बात के लिए पूरे जोर से कोशिश कर रहे थे की ब्रिक्स भी पाकिस्तान की आतंकवाद के मामले पर निंदा करे। प्रधानमंत्री मोदी की ये भी कोशिश थी की सम्मेलन के बाद जारी घोषणा में पाकिस्तान का स्पष्ट रूप से जिक्र हो और ब्रिक्स मोदीजी की लाइन को समर्थन दे।
                   लेकिन ऐसा नही हुआ। ब्रिक्स में शामिल देशों ने पाकिस्तान का सीधा तो क्या परोक्ष रूप से भी जिक्र करने से इंकार कर दिया। भारत के महत्त्वपूर्ण सहयोगी और ब्रिक्स सम्मेलन के समानांतर हथियारों की खरीद के बड़े समझौते के बावजूद रुसी राष्ट्रपति पुतिन ने अपने समापन सम्बोधन में आतंकवाद का जिक्र तक नही किया। जहां तक चीन का सवाल है तो उसने आतंकवाद के मामले पर वही लाइन ली जो पाकिस्तान लेता रहा है। चीन के राष्ट्रपति ने भारत के लिए परोक्ष रूप से कश्मीर के सवाल पर कहा की सदस्य देशों को आतंकवाद के लक्षणों और परिणामो के साथ साथ उसके बुनियादी कारणों पर भी ध्यान देना होगा। ये वही बात है जो पाकिस्तान कहता रहा है की कश्मीर में आतंकवाद का बुनियादी कारण जो उसके हिसाब से कश्मीरी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार से जुड़ा है, को एड्रेस किये बिना आतंकवाद को खत्म करना मुश्किल है।
                    यहां तक की अंतिम घोषणा में "सीमापार आतंकवाद" शब्द तक का इस्तेमाल नही है। इसकी जगह केवल इतना शामिल किया गया है की किसी भी देश को आतंकवाद के लिए अपनी जमीन के इस्तेमाल की इजाजत नही देनी चाहिए। भारत में सीमापार आतंकवाद के लिए जिम्मेदार दो जाने माने संगठन लश्करे-तैयबा और जैसे-मोहम्मद के नाम को भी इसमें शामिल नही किया गया। जिन सगठनो के नाम का जिक्र इस घोषणा में किया गया है वो हैं ISIS और अल-नुसरा। इस दौरान के घटनाक्रम के बाद मोदीजी को विदेश नीति में किये गए नए और आक्रामक बदलावों की सीमा समझ में आ जानी चाहिए।
                       इसके अलावा भी मोदीजी प्रधानमंत्री बनने के तुरन्त बाद से सयुंक्त राष्ट्र संघ की मीटिंगों में भी ये मुद्दा उठा चुके हैं की आतंकवाद को परिभाषित किया जाये। वो बार बार सयुंक्त राष्ट्र संघ से इसका आग्रह करते रहे हैं और इसके ना किये जाने पर सयुंक्त राष्ट्र संघ की आलोचना भी कर चुके हैं। आज के हालात में दुनिया के लगभग सभी देश कम या ज्यादा आतंकवाद से पीड़ित हैं। फिर भी ये विश्व संस्था इसकी परिभाषा तय क्यों नही कर रही है तो इसका केवल एक ही कारण है की इसकी परिभाषा सम्भव नही है। आतंकवाद ऐसा विषय है जिस पर हर देश और धार्मिक और जातीय समूहों के अलग अलग विचार और समझ हैं, जिन्हें एक परिभाषा में नही बाँधा जा सकता।
                       जैसे अगर हम केवल भारत के अंदर का उदाहरण ही लें तो इस पर गहरे मतभेद हैं। अगर आतंक फैला कर अपनी बात मनवाने की कोशिश को आतंकवाद माना जाये तो बहुत लोगों के मत अनुसार संघ परिवार भी आतंकवाद की श्रेणी में आ जायेगा। संघ से जुड़े कई संगठनों पर दूसरे धर्म और दलित जातियों पर हमले और आतंक का आरोप लगता रहा है। अगर बम विस्फोटों और हत्याओं के जिम्मेदार लोगों और संगठनों को आतंकी संगठन माना जाये तो कर्नल पुरोहित और प्रज्ञा ठाकुर को भी स्पष्ट रूप से आतंकी घोषित करना पड़ेगा और मोदीजी को ये बताना पड़ेगा की भारतीय कानून के द्वारा ही इन लोगों पर मुकदमा चलने के बावजूद और प्रथम द्रष्टया सबूत होने के बावजूद संघ और सरकार के मंत्री इनकी तरफदारी क्यों करते हैं। हम पाकिस्तान को हररोज इस बात के लिए कोसते हैं आतंकवाद अच्छा या बुरा नही होता और केवल आतंकवाद होता है, लेकिन खुद एक समुदाय से जुड़े लोगों को आतंकी नही मानते, माने वो अच्छा आतंकवाद है।
                      इसके अलावा दूसरे कई संगठन हैं जिन पर आतंकी संगठन होने के बारे में मतभेद हैं। एक पक्ष नक्सलवादियों को आतंकवादी नही मानता, बल्कि उन्हें सत्ता द्वारा मजबूर किये गए लोगों का संगठन मानता है। इसी तरह उत्तर-पूर्व के कुछ संगठनों को जिनमे उल्फा और नागा पीपुल्स फ्रंट जैसे संगठन हैं, उन्हें वहां के बहुत से लोग आतंकवादी नही मानते।
                     अगर दुनिया के पैमाने पर स्थिति को देखा जाये तो स्थिति और भी खराब है। लीबिया और इराक में सरकार के खिलाफ लड़ने वाले लोगों को अमेरिका और उसके दोस्त आतंकवादी नही मानते थे और यमन की सरकार के खिलाफ लड़ने वाले विद्रोहियों को अमेरिका आतंकवादी मानता है। सीरिया में सरकार के खिलाफ लड़ने वाले अमेरिका और सऊदी अरब  समर्थक दस्तों को सीरिया और रूस आतंकवादी मानते हैं और अमेरिका नही मानता। यहां तक की खबरें हैं की अमेरिका ने उन देशों के खिलाफ, जहां अमेरिकी समर्थक सरकारें नही हैं,और उनका तख्त पलटने के लिए अल-कायदा और ISIS जैसे संगठनों को भी हथियार और सहायता उपलब्ध करवाई है। यही अमेरिका है जिसने पाकिस्तान के साथ मिलकर रूस को अफगानिस्तान से निकालने के लिए तालिबान को खड़ा किया था। आज जब उसका काम पूरा हो गया तो वही उनके खिलाफ लड़ रहा है और पाकिस्तान से चाहता है की वो इसमें उसकी मदद करे। अमेरिका के कहने पर पाकिस्तान ने तालिबान को खड़ा करने के लिए जिन मदरसों की स्थापना की, धर्म के नाम पर उनमे जनून पैदा किया और इस लड़ाई को जिहाद का नाम दिया,वो पाकिस्तान कैसे एक झटके में उसे खत्म कर सकता है।
                           इसके अलावा फिलिस्तीन के मामले पर इसराइल के तोर तरीके किसी आतंकवादी संगठन से कम नही हैं। जिस तरह इसराइल की सेना फिलिस्तीन में छोटे छोटे बच्चों तक का कत्ल कर रही है उसे देखते हुए दुनिया के बहुत से लोग उसे आतंकवादी सरकार मानते हैं। पूरे लेटिन अमेरिका में जिस तरह के संगठनों को वहां की चुनी हुई सरकारों के खिलाफ, अपने हितों को ध्यान में रखते हुए अमेरिकी सरकार समर्थन दे रही है उसके बाद तो ये असम्भव हो जाता है की आतंकवाद की कोई वैश्विक परिभाषा दी जा सकती है।
                     इसलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद की कोई एक परिभाषा कभी तय नही होगी, और हर देश को दूसरों का मुंह ताकना छोड़कर अपनी सुरक्षा और अपने क्षेत्र में शांति स्थापना के प्रयास खुद करने होंगे।

Sunday, October 16, 2016

तोप, अख़बार और अकबर इलाहाबादी

खबरी -- अकबर इलाहाबादी के इस शेर पर आपका क्या कहना है ?
              ना तीर,   ना ख़ंजर,    ना तलवार निकालिये,
              जब तोप हो मुकाबिल तो अख़बार निकालिये।

गप्पी --  जब अकबर इलाहाबादी ने ये शेर लिखा था तब लोगों का ऐसा मानना था की अख़बार हमेशा आम जनता और वंचितों के हक में खड़ा होगा। वो जुल्मी ताकतों का विरोध करेगा, सत्ता से जवाब तलब करेगा और सही सूचनाएं लोगों तक पहुंचाएगा। इसलिए जब जन विरोध की बात होती थी तो सही सुचना को मुख्य हथियार माना जाता था। लेकिन अब स्थिति बदल गयी है।
                  अब तो हालत ये है की अख़बार में भी तोप की ही फोटो मिलती है। अख़बारों का डर दूर करने के लिए  सत्ता ने आसान तरीका निकाला की अख़बार भी अपने ही होने चाहियें। उसने कभी विज्ञापन का लालच दे कर, कभी डरा धमका कर और कभी सीधी मलिकी हथियाकर ये काम किया।
                   अब अगर भारत के टीवी के न्यूज चेंनल देखें तो मालूम पड़ेगा की सभी पर एक ही राग अलापा जा रहा होगा। चैनल सरकार से कोई सार्थक जवाब तलब करते कभी दिखाई नही पड़ेंगे। पिछले दिनों जब सर्जिकल स्ट्राइक का विवाद हुआ तो सभी चेंनल भाँडो की तरह वही गाना गा  रहे थे जो सरकार गा रही थी। और अगर कोई व्यक्ति इस पर कोई साधारण सा सवाल भी पूछ लेता था तो उसे चैनल और सरकार दोनों मिलकर गद्दार घोषित कर रहे थे।
                       पिछले दो तीन सालों से ये खास ट्रेंड उभर कर आया है की जनता से जुड़े हुए मुद्दे मीडिया से गायब हो गए हैं। सरकार के वायदों और लोगों की तकलीफों पर कोई सवाल नही पूछे जाते । बस केवल सरकार की प्रशंसा में गीत गाये जाते  हैं। भारतीय टीवी चैनलों की कोई साख दुनिया में कहीं बची नही है और उन्हें कोई गम्भीरता से नही लेता।
                      सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भारतीय टीवी चैनलों से ज्यादा असरकारक कवरेज तो पाकिस्तानी कैनलों और अख़बारों की रही है। पाकिस्तान सरकार के सर्जिकल स्ट्राइक से इंकार करने पर सवाल उठाये गए हैं और सरकार से सबूत मांगे गए हैं। हाफिज सईद और मसूद अजहर जैसे आतंकवादियों को सरकारी सरंक्षण का औचित्य पूछा गया है। और इस सब की कीमत भी चुकाई है। दूसरी तरफ भारतीय मीडिया केवल सरकारी प्रचार का तन्त्र बन कर रह गया है। इसका एक कारण ये भी बताया जा रहा है की ज्यादातर भारतीय न्यूज चैनल अब सीधे या परोक्ष रूप से मुकेश अम्बानी की मलिकी के हैं। जाहिर है सरकार से फायदा उठाने वाला एक उद्योगपति, जो अपने वित्तीय कारणों से जनविरोधी है, सरकार की आरती उतारने के अलावा दूसरा काम क्यों करेगा।
                      इस दौर में भारतीय टीवी चैनल और कुछ अख़बार भी लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहे जाने के ठीक उल्ट काम कर रहे हैं। मीडिया के प्राथमिक दायित्वों, जिसमे लोगों तक सही सूचनाएं पहुंचाना, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर असल में क्या सोच है उसकी जानकारी देना, सरकारी दावों की स्क्रूटिनी करना और लोगों की तकलीफों को दूर करने में विफल सरकार से जवाबतलब करना, ये सारी चीजें उससे गायब हैं।
                      इसलिए लोगों को उस मीडिया और अख़बार की तलाश करनी पड़ेगी जो अकबर इलाहाबादी के अनुसार तोप के मुकाबिल खड़ा हो सके।

Saturday, October 15, 2016

माँ - बाप, पति पत्नी और तलाक पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला।

                         अभी कुछ ही दिन हुए जब माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने तलाक से सम्बन्धित एक केस की सुनवाई के बाद ये फैसला दिया की, अगर कोई पत्नी अपने पति को उसके माँ बाप से अलग रहने का दबाव डाले तो उसे क्रूरता माना जायेगा और पति को तलाक लेने का हक होगा।
                       इस फैसले पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आयी। जिनमे एक हिस्से ने इसे सही फैसला माना और माँ बाप से अलग रहने के लिए दबाव डालना गलत माना गया। इसके विरोध में भी आवाजें आयी। आज जब पुरे देश में समान नागरिक सहिंता पर जोर शोर से बहस हो रही है तो इस फैसले से प्रभावित सभी पक्षों के हितों पर विचार करने की जरूरत है।
                       पत्नी अगर अपने पति को किसी भी कारण से उससे माँ बाप से अलग रहने को कहती है तो ये क्रूरता है। लेकिन पति तो शादी के पहले ही दिन पत्नी को उसके माँ बाप से अलग रहने को मजबूर  करता है तो उसे परम्परा का नाम दे दिया जाता है। पत्नी अपनी पूरी जिंदगी अपने माँ बाप से दूर दूसरे के घर में गुजारती है, उसके माँ बाप भले ही अकेले हों, अशक्त हों, लाचार हों लेकिन वो अपने पति और ससुराल वालों को इसके लिए मजबूर या तैयार नही कर सकती की उन्हें अपने साथ रख सके। तो उसके अधिकार और बराबरी के क्या मायने हैं। क्या सर्वोच्च न्यायालय उस पत्नी को भी तलाक का अधिकार देगा जिसके माँ बाप को उसके पति अपने साथ रखने को तैयार नही है। अगर नही तो ये फैसला संवैधानिक बराबरी के सिद्धांत का उल्लंघन करता है।
                        अगर ये सवाल उस समय खड़ा होता है जब दोनों के बच्चे भी हों। तलाक के बाद बच्चे किसके पास रहेंगे। जाहिर है की एक के पास ही रहेंगे। तो क्या ये उन बच्चों के अपने माँ बाप दोनों के साथ रहने के अधिकार का उल्लंघन नही होगा। पति पत्नी के सम्बन्धों के बीच में किसी तीसरे पक्ष, भले ही वो माँ बाप ही क्यों ना हों, इतना बड़ा रोल प्ले नही कर सकते और कारण नही बन सकते की दोनों का तलाक हो जाये।
                      माँ बाप को बुढ़ापे में अपने साथ रखना और उनकी देखभाल करना औलाद की जिम्मेदारी होती है। लेकिन ये जिम्मेदारी नैतिक और सामाजिक ज्यादा है क़ानूनी कम। क़ानूनी तोर पर आप किन्ही दो लोगों को इकट्ठा रखने के लिए, दूसरे दो लोगों को अलग नही कर सकते। उनके लिए कानून में दूसरे सरंक्षण रखे गए हैं। अगर नैतिकता को आधार बना कर क़ानूनी फैसले किये गए तो सारे वो कानून जो संपत्ति के विवादों से सम्बन्धित हैं, बदलने पड़ेंगे। माँ बाप को साथ रखना और केवल पति के माँ बाप को साथ रखना, इसे आप क़ानूनी बाध्यता नही बना सकते।
                        क्या ऐसा कोई कानून है जो बेटे को माँ बाप को साथ रखने के लिए मजबूर करता हो। उसके लिए गुजारे का प्रबन्ध करना क़ानूनी जरूर है। जब आप किसी बेटे को अपने माँ बाप को साथ रखने के लिए क़ानूनी तौर पर मजबूर नही कर सकते तो सारा ठीकरा बहू के सिर पर फोड़ने की क्या जरूरत है। बेटा अगर ना चाहे तो अपने माँ बाप को भले ही साथ ना रखे, आप उसे क़ानूनी तोर पर मजबूर नही कर सकते लेकिन बहू अगर ना चाहे तो तलाक हो जायेगा। ये एक पिछड़ी हुई सोच है जो पितृसत्तात्मक दिमाग की उपज है।
                        असल में अपने वृद्ध नागरिकों की देखभाल और गुजारे की जिम्मेदारी सरकार की होती है जो बहुत से देशों में लागु है। न्यायालय को पहले सरकार को इसके लिए मजबूर करना चाहिए। परम्परा और नैतिकता के नाम पर महिलाओं को एकतरफा तौर पर इसके लिए जिम्मेदार ठहराना सही नही है।

Thursday, October 13, 2016

आडम्बर को राष्ट्रिय चरित्र मत बनाइये, सरकार बहादुर !

                    बहुत साल पहले मैं एक किताब पढ़ रहा था। जिसमे अख़बार में छपी एक खबर का जिक्र था। खबर ये थी की पशुओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाली एक संस्था के अध्यक्ष ने अपनी पत्नी की बर्फ तोड़ने का सुआ मार - मारकर हत्या कर दी। तब मुझे आडम्बर की असली परिभाषा पता चली। लेकिन अब तो इस तरह का आडम्बर सामान्य बात हो गयी है। ये एक भयावह स्थिति है। खासकर तब जब राष्ट्र के कर्णधार भी इस बीमारी के शिकार हों।
                    इस तरह का आडम्बर अमेरिका जैसे देश करते रहे हैं। जब वो मानवाधिकारों को अपना पहला मकसद घोषित करते हैं, जब एक पिल्ले को बचाने के लिए दस फुट सड़क खोद देते हैं, एक आदमी को बचाने के लिए कई हैलीकॉप्टर भेजते है, लेकिन इराक पर दवाइयों के प्रतिबन्ध लगाकर दस लाख बच्चों को मरने पर मजबूर कर देते हैं, लीबिया और सीरिया में लाखों बच्चों और नागरिकों को तेल के लिए मौत के घाट उतार देते हैं तो लोग अमेरिकी वक्तव्यों को आडम्बर की श्रेणी में रखते हैं।
                     आपका दशहरे का भाषण सुना। आपने कहा की आतंक को समाप्त किये बिना मानवता की रक्षा नही की जा सकती। एकदम सही बात है और इस पर कोई दूसरी राय नही हो सकती। लेकिन जब गुजरात से लेकर मुजफ्फरनगर और दादरी से लेकर कश्मीर तक आपके लोग यही आतंक फैलाते हैं और उन्हें आपका परोक्ष समर्थन हासिल होता है तो आपका ये वक्तव्य आडम्बर की श्रेणी में आ जाता है। आपके मंत्री जब एक हत्यारे को तिरंगे में लपेट कर उसे शहीद का दर्जा देते हैं तो ये वक्तव्य आडम्बर की श्रेणी में आ जाता है।
                     आप कई बार लोकतंत्र और संघीय ढांचे की बात करते हैं। अपने भाषणों में उनमे आस्था व्यक्त करते हैं। लेकिन जब आपकी सरकार दिल्ली के नागरिकों के अपनी सरकार चुनने तक के अधिकार से इंकार कर देती है तो ये वक्तव्य आडम्बर की श्रेणी में आ जाते हैं। केंद्र की सरकार जो कुछ दिल्ली सरकार के साथ कर रही है, उसके बाद तो आपको संघीय ढांचे की बात करने का कोई हक नही रह जाता। अगर करते हैं तो आडम्बर है।
                     आप कई बार मानवाधिकारों की बात करते हैं लेकिन कश्मीर, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में आपकी सरकार जो तरीके अपना रही है, उसके बाद आपकी ये बात आडम्बर की श्रेणी में आ जाती है।
                      आपने बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ अभियान की शुरुआत की। इसे अपनी सरकार का फ्लैगशिप कार्यक्रम घोषित किया। लेकिन आपने शिक्षा पर किये जाने वाले खर्च में कटौती कर दी। आपने लड़कियों को नोकरी में आरक्षण की मांग को ठंडे बस्ते में डाल दिया और कहीं भी लड़कियों के लिए ना तो मुफ्त शिक्षा का प्रबन्ध किया और ना ही उच्च शिक्षा के लिए दिए जाने वाले कर्ज में उन्हें ब्याज की छूट दी। हालत ये है की पाकिस्तान से आयी हुई एक लड़की को स्कूल में दाखिला दिलवाने के लिए विदेश मंत्री को व्यक्तिगत प्रयास करने पड़े, ऐसी स्थिति में ये अभियान आडम्बर की श्रेणी में आ जाता है।
                       आपने रोजगार के वायदे किये। उसके लिए मेक इन इंडिया जैसी स्कीम चलाने की घोषणा की। लेकिन देश में सबसे ज्यादा लोगों को और जरूरतमंदों को रोजगार देने वाले पहले से चल रहे मनरेगा कार्यक्रम के बजट में कटौती कर दी। हालत ये है की मनरेगा के मजदूरों को अपनी मजदूरी लेने के लिए हफ्तों धरने पर बैठना पड़ता है। ऐसी हालत में रोजगार के सवाल पर आपके सारे भाषण आडम्बर की श्रेणी में आ जाते हैं।
                       आप और आपके लोग लगातार ये रट लगाते रहते हैं की आपकी सरकार आने के बाद देश की इज्जत बहुत बढ़ गयी है और आपके नेतृत्व में देश ने बहुत तेजी से विकास किया है। लेकिन जब भी कोई अंतरराष्ट्रीय संस्था दुनिया के सबसे ज्यादा भूखों, दुनिया में सबसे ज्यादा अनपढो, सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चों, और सबसे ज्यादा कन्या म्रत्यु के आंकड़े प्रकाशित करती है तो आपकी सरकार के नेतृत्व में ये देश सबसे ऊपर आता है। वो देश भी जो सालों से युद्ध जैसी विभीषिका झेल रहे हैं हमारे बाद आते हैं। उसके बाद विकास पर दिए गए सारे भाषण आडम्बर की श्रेणी में आ जाते हैं।
                      इस सवाल का दूसरा सबसे खतरनाक पहलू ये है की आपकी पार्टी ने जिन भक्तों की फ़ौज तैयार की है और वो जब हिस्टिरयाई अंदाज में आपके भाषणों पर नारे लगाते हैं तब लगता है की आडम्बर को आपने राष्ट्रिय चरित्र घोषित कर दिया है।

भारतीय सेना के बहादुरी पूर्ण अभियान, तुम्हे याद हो के ना याद हो।

                       आज जब खुद सरकार की तरफ से ये कहा जा रहा है की इस सर्जिकल स्ट्राइक से पहले भारतीय सेना ने कुछ नही किया, तो मैं उन्हें कुछ ऐसे बहादुरीपूर्ण सैनिक अभियानों की याद दिलाना चाहता हूँ जो इतिहास में अपना अमिट स्थान रखते हैं। इन अभियानों के बारे में बात करते वक्त मैं उन बड़ी लड़ाइयों का जिक्र नही करूँगा जिन्हें दुनिया अब तक नही भूली है जैसे -

१. 1948 का भारत पाक युद्ध ( कश्मीर के लिए )
२. 1962 का भारत चीन युद्ध
३. 1965 का भारत पाक युद्ध
४. 1971 का भारत पाक युद्ध
५. 1999 का कारगिल युद्ध

                     मैं इनके अलावा उन बहादुरी पूर्ण अभियानों की बात करूँगा जो किसी भी देश और सेना के लिए बहुत महत्व रखते हैं।

ऑपरेशन मेघदूत -
                               1984 में सियाचिन ग्लेशियर पर कब्जे के लिए हुए इस अभियान को पूरी दुनिया ने किसी सेना द्वारा की गयी सबसे साहसिक कार्यवाहियों में से एक माना था। दुनिया के सबसे ऊँचे युद्ध स्थल पर हुए भारत और पाकिस्तान संघर्ष में लगभग 2000 लोग वहां युद्ध के साथ साथ खराब मौसम, चिकित्सा सुविधाओं के अभाव और न्यूनतम तापमान के कारण मारे गए थे। लेकिन टाइम पत्रिका के अनुसार इस युद्ध में भारतीय सेना ने सियाचिन की ३००० वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर लिया।

ऑपरेशन राजीव -
                               1987 में सियाचिन में ही हुए भारत और पाकिस्तान के बीच हुए संघर्ष में सियाचिन की सबसे ऊँची चोटी पर कब्जे के लिए हुआ था। इस चोटी पर पाकिस्तानी सेना ने एक चौकी स्थापित कर ली थी जो रणनीतिक महत्त्व से भारत के लिए बहुत नुकशानदायक थी। तब मेजर वरिंदर सिंह के नेतृत्व में भारतीय सेना ने इस पर कब्जे के लिए कई कोशिशें की। आखिर तीसरी कोशिश में भारतीय सेना इस पर कब्जा करने में कामयाब हो गयी। इस चोटी का नाम बहादुर बना सिह के नाम पर (बना टॉप ) रखा गया जिन्हें उनकी बहादुरी के लिए भारतीय सेना के सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र से नवाजा गया। इस अभियान का नाम सेकण्ड लेफ्टिनेंट राजीव पाण्डे के नाम पर रखा गया जो इस अभियान में शहीद हो गए। इसी अभियान में 1200 फुट की खड़ी दिवार जैसी चढ़ाई और सियाचिन ग्लेशियर के मुहाने की 3 किलोमीटर की जगह भी शामिल है जिसके लिए बहादुरी पूर्ण कारनामे के लिए सूबेदार संसार चंद को सम्मान के साथ याद किया जाता है।

ऑपरेशन कैक्टस -
                              1988 में जब मालदीव के प्रधानमंत्री अब्दुल गयूम का तख्ता पलटने की कोशिश की गयी। इस तख्तापलट में कुछ मालदीवी और श्रीलंकाई तमिल संगठन के कुछ लोग शामिल थे। मालदीव सरकार की सहायता की अपील के केवल 9 घण्टे के अंदर भारतीय वायुसेना के पैरा टूपर्स ने आगरा एयर फ़ोर्से स्टेशन से बिना रुके 2000 किलोमीटर की दुरी तय करके इस तख्ता पलट को नाकाम कर दिया था। वायुसेना के इस अभियान के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन और ब्रिटीश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर ने भी भारी प्रशंसा की थी।

                             ये भारतीय सेना द्वारा अंजाम दिए गए कुछ अभियानों का नमूना है और उन लोगों की यादाश्त दुरुस्त करने की कोशिश है जो राजनैतिक कारणों से जानबूझकर इन्हें भूल चुके हैं।


सेना को भी नही बख्सा, सबसे पहले के नारे ने

                     राजनीती में अपने को ज्यादा कुशल और तेजी से काम करने वाला दिखाना आम बात है। जब कोई आदमी या पार्टी खुद को दूसरों से ऊँचा दिखाने की कोशिश करती है तो या तो उसे अपनी उपलब्धियां बतानी पड़ती हैं या फिर अगर उसकी उपलब्धियां बहुत ही ओसत दर्जे की हैं या फिर नही के बराबर हैं, तो उसे दूसरों को छोटा दिखाना पड़ता है।
                      जब दूसरे को छोटा दिखाना होता है तो इस तरह की चीजें ढूंढी जाती हैं जो खुद के अनुकूल हों। इस क्रम में कई बार दूसरों को नीचा भी दिखाना पड़ता है। मौजूद सरकार अपने शुरू के दिनों से ही इस प्रोग्राम पर चल रही हैं। उसे मालूम है की जिस तरह के भारी भरकम वायदे करके वो सत्ता में आयी है उन्हें पूरा करना उसके बस से बाहर की बात है।
                      इसलिए उसने पहले दिन से ही " सबसे पहले " का राग अलापना शुरू कर दिया था। प्रधानमंत्री किसी देश की यात्रा पर जाते हैं तो सबसे पहले जाने वाले प्रधानमंत्री हैं, कोई समझौता करते हैं तो सबसे पहले करने वाले प्रधानमंत्री हैं, सेल्फी लेते हैं तो सबसे पहले लेने वाले प्रधानमंत्री हैं। इस होड़ में पूरा भांड मीडिया जोर जोर से चिल्लाकर सबसे पहले की रट लगाए रहता है।
                     अब इस रट में सेना को भी लपेट लिया गया है। जब सर्जिकल स्ट्राइक की खबर आयी तो ये खबरें भी आने लगी की इस तरह के सर्जिकल स्ट्राइक हमारी सेना पहले भी कई बार कर चुकी है। चूँकि दूसरे देश की सीमा में इस तरह की कार्यवाही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विरोध या आलोचना को आमन्त्रित कर सकती है और उस देश के साथ सम्बन्ध बिगड़ सकते हैं, इसलिए इस तरह की चीजों को सार्वजनिक नही किया जाता। दो देशो के बीच बहुत से ऐसे कूटनीतिक और रणनीतिक फैसले होते हैं जिन्हें आम लोगों के सामने नही लाया जाता। इसलिए पहले कभी इसके बारे में मीडिया को नही बताया गया। इस तरह की खबरें सार्वजनिक होने पर वहां के लोगों में गुस्सा फूट सकता है और सरकार पर बदले की कार्यवाही का दबाव बढ़ सकता है जैसा अब पाकिस्तान के साथ हो रहा है। पाकिस्तान के लाख इंकार करने के बावजूद वहां बदले की भावना बढ़ रही है और जो लोग पहले आतंकवादियों के खिलाफ थे वो भी इस कार्यवाही से  नाराज हैं। इस घटना को मीडिया में  उछालने से सेना को कोई मदद नही मिली केवल बीजेपी के गिरते  हुए  ग्राफ को  सम्भालने में मदद मिली। इसलिए जानकार लोग इसे राजनैतिक फैसला बता रहे हैं। पूर्व सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन ने भी इसे सेना की जरूरत के लिए नही बल्कि बीजेपी की जरूरत के लिए लिया हुआ फैसला बताया है।
                       लेकिन हमारा मुद्दा ये था की खुद को बड़ा दिखाने की होड़ में बीजेपी ने पहले किसी भी सर्जिकल स्ट्राइक से इंकार कर दिया। रक्षा मंत्री ने कहा की सेना ने पहले कभी भी सर्जिकल स्ट्राइक नही किया। अपने बड़बोलेपन में वो ये भी कह गए की मेरे आने के बाद सेना को अपनी ताकत का पता चला। विपक्ष को नीचा दिखने की होड़ में वो सेना को भी नीचा दिखा गए। अब अगर विपक्ष इस स्ट्राइक के नही होने की बात करता है तो उसे गद्दार और पाकिस्तान का समर्थक बताया जाता है और बीजेपी पिछले किसी स्ट्राइक से इंकार करती है तो भी देशभक्त बनी रहती है।
                       इस तरह हर मामले में सबसे पहले का नारा पता नही किस किस को बेइज्जत करेगा। यहां तक की उसने सेना को भी नही बख्सा।

Wednesday, October 12, 2016

राष्ट्रवाद के नारों के बीच डूब रहा है अर्थव्यवस्था का जहाज

           चारों तरफ मारो-काटो और बदला लेने के राष्ट्रवादी नारों का शोर मचा हुआ है। पीठ थपथपाई जा रही हैं, अभिनन्दन समारोह आयोजित किये जा रहे हैं। चारों तरफ एक उन्माद का वातावरण है। और इस वातावरण के बीच एक खतरनाक स्थिति का निर्माण हो रहा है। जिस स्थिति की तरफ सरकार के समर्थक देखना नही चाहते, सरकार जवाब नही देना चाहती और शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर छुपाकर आनन्द मनाया जा रहा है।
              ये स्थिति है हमारी अर्थव्यवस्था के बारे में। पिछले कुछ दिनों से खुद सरकार की तरफ से जो आकंड़े जारी किये गए हैं, वो बहुत ही डरावने हैं। निराशाजनक शब्द  उनके लिए छोटा पड़ने लगा है। सरकार के मंत्री और मीडिया भले ही इसके बारे में भरमपूर्ण जानकारियां दे, लेकिन आंकड़े बिलकुल दूसरी ही तस्वीर पेश कर रहे हैं।
IIP के ताजा आंकड़े --
                                  दो दिन पहले ही औद्योगिक उत्पादन के ताजा आंकड़े जाहिर किये गए हैं। उनके अनुसार औद्योगिक उत्पादन में 0 . 8 % की गिरावट दर्ज की गयी है। ये लगातार दूसरा महीना है जिसमे मैनुफक्चरींग की दर गिर रही है। मौजूद आंकड़े पिछले एक दशक में सबसे खराब स्तर पर हैं। इस पर उद्योग जगत भी चिंता जाहिर कर रहा है। ( IIP आंकड़ों के बारे में अधिक जानकारी के लिए इस लिंक पर क्लिक कर सकते हैं। http://economictimes.indiatimes.com/topic/IIP-data  ) उद्योग जगत के लोग भी अब अर्थव्यवस्था में किसी रिवाईवल को मुश्किल मन रहे हैं। एसोचेम के महासचिव रावत ने भी इस पर निराश प्रकट की है। देखिये http://economictimes.indiatimes.com/news/economy/policy/iip-data-shows-revival-a-major-challenge-india-inc/articleshow/52693325.cms    

विदेशी कर्ज का फन्दा --
                                    किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए सबसे खराब स्थिति वह होती है जब उसे अपने पुराने कर्जों का ब्याज चुकाने के लिए नया कर्ज लेना पड़े। आजकल हम उसी स्थिति में पहुंच गए हैं। हमे अपने कर्जों और ब्याज के भुगतान के लिए नया कर्ज लेना पड़ रहा है। Sunday guardian के लिए लिखते हुए Jehangir Pocha ने इस स्थिति को काफी खतरनाक बताया है। ( देखिये लिंक http://www.sunday-guardian.com/analysis/in-the-end-india-will-still-be-trapped-in-debt )  

वितीय घाटे की स्थिति --
                                   ये सरकार अब तक अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि वितीय घाटे को बजट की सीमा के अंदर रखने को बताती थी। इस बार बजट में सरकार ने वितीय घाटे की सीमा 3 . 5 % निर्धारित की थी जिसे एक सकारात्मक कदम माना गया था। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भी इसके लिए सरकार की पीठ थपथपाई थी। लेकिन अब स्थिति ये है की अप्रैल से जून के प्रथम क्वार्टर में ही कुल टारगेट का 61 % खत्म हो चूका है। अब इसको पूरा करने के लिए सरकार पब्लिक सैक्टर के कारखानों को बेचने जैसे कदम उठाएगी। अपने वितीय घाटे को पूरा करने के लिए राष्ट्र की सम्पत्तियां बेचना वैसा ही है जैसे कोई घर का खर्च चलाने के लिए जेवर बेचे। इसका ब्यौरा आप यहां देख सकते हैं। http://www.thehindu.com/business/Economy/indias-gross-fiscal-deficit-to-exceed-target/article8429683.ece   और   http://www.business-standard.com/article/economy-policy/apr-jun-fiscal-deficit-at-61-of-fy17-target-116072901314_1.html

घटते हुए रोजगार --
                                इस मोर्चे पर सबसे खराब खबर ये है की बेरोजगारी के स्तर में रिकार्ड बढ़ोतरी हुई है। सरकार के श्रम विभाग द्वारा जारी ताजा आंकड़ों के अनुसार इस समय बेरोजगारी अपने उच्चतम स्तर पर है। लेबर ब्यूरो के अनुसार बेरोजगारी पिछले पञ्च साल के सबसे ऊँचे स्तर पर है। इसके बावजूद की सरकार मेक इन इंडिया जैसे कार्यक्रमो की सफलता का दावा कर रही है। इंडियन एक्सप्रेस ने इस पर विस्तार से ब्यौरा दिया है। देखें -http://indianexpress.com/article/india/india-news-india/unemployment-india-paints-grim-picture-highest-in-5-years-in-2015-16-3056290/     

                इस तरह ये आंकड़े बता रहे हैं की अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर सरकार असफल हो रही है। इसका बोझ आने वाले दिनों में आम जनता के कन्धों पर डाला जाना है। लोगों की जरूरी मदों में कटौती के साथ साथ नए नए करों की शुरुआत हो सकती है। और इससे ध्यान हटाने के लिए राष्ट्रवाद की शराब पिलाई जा रही है।
 

Tuesday, October 11, 2016

ये सेना नही, सत्ता है जो हत्याएं करती है

                एक सैनिक हत्यारा नही होता। एक हत्यारे को सेना की सर्विस में नही रखा जाता। लेकिन सत्ता जो हत्याएं करती है, वो उसकी जवाबदेही के समय सैनिक की तरफ ऊँगली करती है।
                 एक सैनिक जब सेना में जाता है तो उसे इस बात का अच्छी तरह पता होता है की उसे सर्वोच्च बलिदान देना है। वो जब अपने देश की रक्षा करता है तब भी वो हत्याएं नही करता, युद्ध में भी नही। वो अपनी मातृभूमि की रक्षा करता है और इसके लिए उसे विरोधी से मुकाबला करना होता है जान की बाजी लगाकर। और इसमें या तो उसकी जान चली जाती है या फिर विरोधी की। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर युद्ध के भी नियम निर्धारित हैं। कोई सैनिक गिरफ्तार हो जाता है तो उसके साथ मानवीय व्यवहार होना चाहिए। दुश्मन देश के सैनिक का मृत्यु के बाद सिर या कोई अंग काटना युद्ध अपराध की श्रेणी में आता है। लेकिन अब तो सरकार की पार्टी के लोग हर रोज सिर लेकर आने की मांग करते हैं। दोनों तरफ से इसके लिए उन्माद पैदा किया जाता है। इस उन्माद में बहकर कोई सैनिक इस तरह की हरकत कर भी देता है और फिर जवाब और प्रति जवाब का सिलसिला शुरू हो जाता है। एक देशभक्त और जान देने को तैयार सैनिक को हत्यारे में बदलने की मुहीम चलती है।
                 जब एक सैनिक राजनैतिक नेतृत्व के फैसले के अनुसार किसी मिशन पर होता है तो उसकी जिम्मेदारी उस नेतृत्व की होती है। सैनिक को तो उस मिशन के सही या गलत होने पर सवाल उठाने का हक भी नही होता। इसलिए सेना द्वारा किये गए हर काम के लिए राजनैतिक नेतृत्व को जिम्मेदार माना जाता है। इसके कई सारे उदाहरण हैं। जब अंग्रेज हिंदुस्तान पर शासन करते थे तब वो ब्रिटेन से सेना लेकर नही आये थे। उनकी सेना में भरतीय सैनिक थे जो अंग्रेजों के कहने पर हिंदुस्तानियों पर गोली चलाते थे। लेकिन आजादी के बाद भी उन्हें कभी दुश्मन या गद्दार नही माना गया। क्योंकि उन फैसलों के लिए वो जिम्मेदार नही थे।
                    लेकिन अब अजीब सवाल खड़ा हो गया है। राजनैतिक नेतृत्व फैसला लेकर किसी इलाके की जनता पर दमन करता है और जब उसकी ज्यादतियों पर सवाल उठता है तो सेना के पीछे छुप जाता है। सैनिकों को जिम्मेदार बताता है। भारत में भी लगभग हर हिस्से में जमीन के लिए संघर्ष चल रहे हैं। चाहे झारखण्ड हो, छत्तीसगढ़ हो या फिर कश्मीर हो, हर जगह सेना सड़क पर है। सरकार को उद्योगपतियों के लिए जमीन चाहिए, जो लोग देने को तैयार नही। उसे खाली कराने की लड़ाई जारी है । सेना जबरदस्ती लोगों से जमीन खाली करवा रही है। लेकिन वो वहां अपने लिए कुछ नही कर रही है। उसी तरह जब वहां के किसान या आदिवासी सेना का विरोध करते हैं तो कई बार उसमे सैनिको की जान भी चली जाती है। तब सरकार चिल्लाती है की देखो ये सेना और सैनिकों के दुश्मन हैं। सरकार जिनके लिए जमीन खाली करवा रही है उन मालिकों का मीडिया भी सरकार के सुर में सुर मिलाता है और लोगों को देशद्रोही करार दे देता है। एक पूरा प्रचार तन्त्र काम करता है। कई बार सैनिक भी वहां के लोगों को सरकार की बजाए अपना विरोधी मान लेते हैं।
                      ये उन्माद सरकारों की मदद करता है। लोगों की समस्याओं को हल करने में विफल सरकारें इस उन्माद की आड़ में सभी सवालों से बच जाती हैं और लोगों से उनका सब कुछ छीन लेती हैं। जो लोग सरकार में होते हैं, जो जिस वर्ग के प्रतिनिधि होते हैं उसके लिए ही काम करते हैं। सेना के प्रतिनिधियों के रूप में टीवी चैनलों पर बैठने वाले कितने ही लोग किसी ऐसे संगठन के सदस्य होते हैं जहां से उन्हें लगातार फायदा मिलता है। उद्योगपति और सरकार मिलकर उनके लिए इसका प्रबन्ध करते हैं। टीवी चैनलों के मालिक यही उद्योगपति होते हैं। वो केवल अपने मुताबिक खबरें देते हैं। कोई ईमानदार पत्रकार अगर इनकी मर्जी से काम नही करता है तो या तो उसे धमका दिया जाता है या बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।
                      सेना के हितैषी होने का दावा करने वाले इन राष्ट्रवादियों और सरकारों की पोल उस समय खुल जाती है जब सैनिको के लिए सुविधाओं का सवाल आता है। उनको जो वेतन दिया जाता है उससे केवल जिन्दा रहा जा सकता है। आज भी हमारे भूतपूर्व सैनिक पेन्सन की मांग को लेकर महीनों से धरने पर बैठे हैं। अब ये खबर आयी है की घायल होने वाले सैनिकों की पेन्सन को घटाकर आधा कर दिया गया है। एक बार आप सैनिक सेवा के लायक नही रहे फिर आपकी कोई जरूरत नही है। भाड़ में जाओ।
                       इसलिए लोगों और सैनिकों, दोनों का फर्ज है की वो राजनैतिक नेतृत्व यानि सरकार को फैसलों की जिम्मेदारी लेने के लिए मजबूर करें। सरकार को सैनिकों के पीछे छिपने नही दें।

Sunday, October 9, 2016

मनोहर पर्रिकर जी , इतनी गलतफहमियां मत पालिये।

                   सेना की सर्जिकल स्ट्राइक के बाद इस सरकार के मंत्रियों और पार्टी के कार्यकर्ताओं ने खुद अपनी पीठ इतनी थपथपाई है की अब उसमे से खून निकलने लगा है। और इन पीठ थपथपाने वालों का नेतृत्व जाहिर है की रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर कर रहे हैं। इस होड़ में उन्होंने दो बातें ऐसी कही हैं जो सेना के लिए अपमान की श्रेणी में आती हैं। सेना की इस कामयाबी को राजनैतिक तौर पर भुनाने और वोटों की फसल काटने के लिए उन्होंने उत्तर प्रदेश में, जहां चुनाव निकट है, जिला स्तर पर अपने सम्मान समारोह रखवा लिए हैं जो आगे जाकर तहसील स्तर तक जा सकते हैं। लेकिन उन्होंने कहा," मेरे रक्षा मंत्री बनने से पहले सेना ने ६५ साल में कुछ नही किया और मैंने सेना को हनुमान की तरह उसका भुला हुआ बल याद दिलाया। " इस बयान को अनदेखा किया जा सकता था अगर इसे देने वाला देश का  रक्षा मंत्री नही होता। इसलिए मैं इस पर कुछ बातें कहना अपना फर्ज समझता हूँ।
                    आदरणीय मंत्रीजी, क्या आपको मालूम है की अब तक सेना को कितने परमवीर चक्र, महावीर चक्र और वीर चक्र दिए गए हैं ? आपको ये तो मालूम होगा  की ये चक्र सैनिकों को युद्ध में उनकी वीरता और अदम्य साहस के लिए दिए जाते हैं और ये कोई पदम् पुरस्कार नही हैं जो अपनी पार्टी के नालायक लोगों को भी बांटे जा सकते हैं बगैर किसी योगदान के। इसके अलावा सीमा पर अदम्य साहस और शौर्य की पता नही कितनी कहानियां दफन हैं क्योंकि उन्हें देख कर सुनाने वाला कोई जिन्दा नही बचा। आपने कितनी सहजता से कह दिया की सेना ने 65 साल में कुछ नही किया।
                     क्या आपको ये भी मालूम नही है की इसी सेना ने पाकिस्तान के उस समय दो टुकड़े कर दिए थे जब आप स्कूल में पढ़ रहे थे। क्या आप बता सकते हैं की अगर आप रक्षा मंत्री नही होते तो सेना से आपका क्या रिश्ता है। आपने तो शायद कभी सैनिक सेवा के लिए आवेदन भी नही किया होगा।
                       मेरी हैसियत नही है की मैं भारतीय सेना के शौर्य का वर्णन कर सकूँ, लेकिन मैं आपको कुछ चीजें जरूर बताना चाहूंगा।
                       क्या आपने ब्रिगेडियर उस्मान का नाम सुना है ? अविभाजित भारत की बलोच रेजिमेंट के ब्रिगेडियर उस्मान, जिन्हें पाकिस्तान ने सेना प्रमुख बनने का ऑफर दिया था। लेकिन उन्होंने बलोच रेजिमेंट छोड़कर भारत में डोगरा रेजिमेंट ज्वाइन कर ली और पाकिस्तान की सेना प्रमुख की ऑफर ठुकरा दी। वो ब्रिगेडियर उस्मान 1948 में ही कश्मीर के मोर्चे पर शहीद हो गए।  बहादुरी के लिए उन्हें नोशेरवां का शेर कहा जाता है। और आज आपकी पार्टी से जुड़े गली मोहल्ले के गुंडे उनके रिश्तेदारों से देशभक्ति का सबूत मांग रहे हैं।
                      चलो कोई बात नही। आप ब्रिगेडियर कुलदीप सिंह चांदपुरी को तो जानते होंगे ? वही जिनके कारनामो पर बार्डर फिल्म बनी है और जिनका रोल सन्नी दियोल अदा कर रहे थे। भगवान का शुक्र है की ब्रिगेडियर कुलदीप सिंह चांदपुरी अभी तक स्वस्थ हैं। आप एकबार उनसे जरूर मिलिए। हाँ, अगर आप देश के  रक्षा मंत्री नही होते या आपकी जगह कोई कोई दूसरा आदमी होता तो  इस तरह के बयान के बाद ब्रिगेडियर कुलदीप सिंह चांदपुरी के सामने जाने से पहले मैं उसे डायपर पहनने की सलाह जरूर देता।
                       आपने हवलदार अब्दुल हमीद का नाम तो जरूर सुना होगा ? 1965 के युद्ध के परमवीर चक्र विजेता। जिनकी बहादुरी ने अमेरिकी पैटन्ट टैंको की इज्जत पर वो बट्टा लगाया था तो कभी धुल नही पाया। लोगों में ये कहावत शुरू हो गयी थी की हवलदार अब्दुल हमीद के सामने आने पर अमेरिकी पैटन्ट टैंक गत्ते के डब्बे में बदल जाता है। ये उस समय की बात है जब आप केवल दस साल के थे। और आज उन्ही अब्दुल हमीद का परिवार भुखमरी की हालत में है।
                     मैंने पहले ही कहा की सेना की बहादुरी की कहानिया लिखना मेरी हैसियत से बाहर हैं। मैं तो केवल आपको कुछ उदाहरण दे रहा था।

Saturday, October 8, 2016

सेना सेना चिल्लाना बन्द करो, सैनिकों की सुध लो !


                  पूरी बीजेपी,आरएसएस और मोदी सरकार, जिस चीज का नाम लेकर सबसे ज्यादा चिल्लाती है तो वो है सेना। ये सेना क्या होती है ? मेरे ख्याल से तो ये सैनिकों और साजोसामान से मिलकर बनती है। लगातार सेना सेना चिल्लाने वाले ये लोग बताएंगे की सैनिक और साजो सामान, दोनों मोर्चों का क्या हाल है ?
                    जहां तक सैनिकों का सवाल है, तो भूतपूर्व सैनिक वन रैंक- वन पेंशन की मांग को लेकर अब भी जंतर मन्तर पर बैठे हुए हैं। उन्हें साल से ज्यादा हो गया है। उद्योगपतियों का पांच लाख करोड़ माफ़ कर देने वाली सरकार सैनिकों की पेंसन के सवाल पर संशाधनो का रोना रोती है। मैं उन तस्वीरों को भूल नही पा रहा हूँ जब पिछले 15 अगस्त को इनसे जगह खाली करवाने के लिए इन पर लाठीचार्ज किया गया था। खून टपकते सिरों के साथ खदेड़े गए इन बुजुर्ग सैनिकों की तस्वीरें अब भी आँखों के सामने आती हैं। टीवी चैनलों पर सर्जिकल स्ट्राइक पर तूफान उठाने वाले कुछ भूतपूर्व जनरल और सत्ताधारी पार्टी के नेता इस सवाल पर मुंह में दही जमा लेते हैं।
                     दूसरा उदाहरण लापता हुए AN -32 विमान का है। 29 सैनिकों के साथ लापता हुए इस विमान को ढूंढने के लिए वायुसेना और नोसेना के कितने जहाज काम पर लगाए गए थे ? ये विमान अब तक नही मिला। सरकार ने प्रक्टिकल काम जो इनके लिए किया वो इनको मृत घोषित कर देने भर का था। अगर इसको ढूढना आपके बस का नही था तो उनसे सहायता मांग लेते जिनको सारे सैनिक अड्डे इस्तेमाल करने की ताजा ताजा इजाजत दी है। मलेशिया जैसे छोटे से देश द्वारा अपने लापता विमान को ढूढने के लिए किये गए प्रयास भी आपको कोई रास्ता नही दिखा सके ?
                     तीसरा उदाहरण बिसाहड़ा का है। जहां एक सैनिक के पिता की हत्या करने वाले हत्यारे का शव आपने तिरंगे में लपेट दिया। आपके संस्कृति मंत्री, जो उरी हमले के एक भी शहीद सैनिक के घर श्रधांजलि देने नही गए, वो इस हत्यारे को श्रधांजली देने उसके घर गए, उसके लिए मुआवजे का इंतजाम करवाया और तिरंगा लपेट कर उसे उसी श्रेणी में खड़ा कर आये जिसमें  दुश्मनो से लड़कर शहीद होने वाला सैनिक होता है। क्या आप ये कहना चाहते हैं की हम सैनिकों का सम्मान करते हैं बशर्ते की वो मुसलमान ना हो।
                    अगला उदाहरण उन सैनिकों का है जो छत्तीसगढ़ और दूसरी जगहों पर न्यूनतम सुविधाओं के अभाव में अकाल मौत मर गए। क्या आप बता सकते हैं की पिछले तीन साल में, इस तरह अकाल मौत मरने वाले सैनिकों की संख्या कितनी है और सीमा पर लड़ कर मरने वाले सैनिकों की संख्या कितनी है ?  और इन सैनिकों के परिवारों को आपने क्या सुविधाएँ दी। इस सवाल का जवाब देने में कई मुखोटे उतर सकते हैं।
                    अब साजोसामान के सवाल पर आते हैं। आप एक तरफ कहते हैं की पिछली सरकारों ने कुछ नही किया और दूसरी तरफ कहते हैं की सेना युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार है। इस तैयारी के लिए जो सामान चाहिए उसकी क्या हालत है। ऐसी खबरें आ रही हैं की सेना के पास ज्यादातर सामान 1971 के युद्ध के दौरान का खरीदा  हुआ है। सेना हररोज सामान और हथियारों की कमी का मुद्दा उठाती रही है। सुना है इस सरकार ने सेना के लिए खरीदे जाने वाले हथियारों की खरीद में दलाली को क़ानूनी बना दिया है। ऐसी क्या हालत थी की बिना दलालों के हथियारों की खरीद नही हो सकती। एक राफेल विमान की जो खरीद आपने की है उसके बारे में मीडिया में इस तरह की खबरें हैं की 700 करोड़ का विमान 1600 करोड़ में खरीद गया है और वो भी तब जब राफेल बनाने वाली कम्पनी ने अम्बानी को अपना हिस्सेदार बना लिया है। इन खबरों में अतिशयोक्ति हो सकती है लेकिन कुछ तो सच्चाई भी होगी।
                    इसलिए युद्ध का उन्माद भड़काने से पहले उन चीजों की सम्भाल कीजिये जिनसे मिलकर सेना बनती है।

व्यंग -- लोग हमे विकास नही करने दे रहे।

                     मेरे मुहल्ले का करियाने का दुकानदार जो खुद को सरकार का प्रवक्ता मानता है, आज काफी निराश दिखाई दे रहा था। मैंने उससे इसका कारण पूछा तो उसने बताया " देखिये हमने विकास का नारा दिया था। और अब हाल ये है की लोग हमे विकास करने ही नही दे रहे हैं। इस तरह तो हमारी बहुत बदनामी हो जाएगी। "
                    मुझे बड़ी हैरानी हुई। मैंने कहा की भाई किसी को विकास ना होने देने से क्या फायदा है। उल्टा लोग तो सरकार पर आरोप लगा रहे हैं की उसने विकास के नाम पर धोखा किया।
                   " यही तो बात है। एक तरफ हमे विकास नही करने दे रहे और दूसरी तरफ आरोप लगा रहे हैं। " उसने तपाक से जवाब दिया।
                    वैसे कौन है जो आपको विकास नही करने दे रहा। मैंने पूछा।
                   " अब देखिये झारखण्ड में क्या हुआ ? सरकार विकास करने के लिए जमीन ले रही थी तो वहां किसान धरने पर बैठ गए। वो तो सरकार विकास पर अडिग थी सो उसने गोलियां चला कर उन्हें उठा दिया 'लेकिन उनकी कोशिश तो जारी ही है। "
                     " लेकिन किसान तो केवल मुआवजा और नोकरी की मांग कर रहे थे। " मैंने उसे बताया।
                   उसने नाराजगी जाहिर की " मुआवजा कहीं भागा थोड़ा ना जा रहा था। और रही नोकरी की बात, तो नोकरी तो कम्पनी के मालिक अपने हिसाब से देंगे। ये कोई जबरदस्ती थोड़ी है की आपको ही दी जाये। "
                   " लेकिन जिन किसानों की जमीन ली जा रही है उनके गुजारे का ध्यान रखना भी तो सरकार की जिम्मेदारी है। जमीन नही रहने पर वो बेचारे क्या करेंगे ?" मैंने उसे स्थिति समझाने की कोशिश की।
                  " कम्पनी के मालिक इधर उधर से सस्ते मजदूर लाएंगे। इसके लिए उन्होंने ठेकेदार भी रख लिए हैं। अब अगर सरकार किसानों को पक्की नोकरिया दिलवा देगी तो उन्हें ज्यादा तनख्वा देनी पड़ेगी। ज्यादा तनख्वा देंगे तो मुनाफा नही होगा, मुनाफा नही होगा तो कम्पनी बन्द हो जाएगी और कम्पनी बन्द हो गयी तो विकास कैसे होगा ?" उसने पूरा हिसाब बता दिया।
                  " और कौन कौन हैं विकास विरोधी। " मैंने पूछा।
                    " अरे, बहुत लोग हैं। अब छत्तीसगढ़ में ही देख लो। आदिवासियों की हत्या को लेकर रोज जलूस निकाले जा रहे हैं। " उसने कहा।
                   " मतलब आदिवासियों की पुलिस द्वारा की जा रही हत्याओं का विरोध भी विकास का विरोध है ?" मैंने हैरानी से पूछा।
                   " और नही तो क्या। अब आदिवासियों को जमीन खाली करने के लिए कह दिया था तो वो कर नही रहे हैं। इसलिए बेचारी पुलिस को जमीन खाली करवाने के लिए गोलियां चलानी पड़ रही हैं। अब इसके खिलाफ जलूस निकालना तो सरकारी काम में टांग अड़ाना ही माना जायेगा। अगर पुलिस गोली नही चलाएगी तो जमीन खाली नही होगी, जमीन खाली नही होगी तो विकास कैसे होगा? " उसने सहज भाव से जवाब दिया।
                     " इसके अलावा और कौन कौन हैं ?" मुझे अब उसका जवाब पसन्द आने लगा था। कुछ भी हो पट्ठा बात तो वही कह रहा था जो सरकार नही कह पा  रही थी।
                     " वो लोग जो सरकार को बैंकों का डूबा हुआ पैसा वसूल करने को कह रहे हैं। " उसने बात आगे बधाई।
                     " इसमें क्या गलत है ?" मैंने पूछा।
                      " भई देखो, अगर कारखाना मालिकों पर ये शर्त लगा दी जाएगी की उनको कर्ज जरूर लौटाना पड़ेगा तो वो कर्ज लेंगे ही नही। अगर वो कर्ज नही लेंगे तो कारखाने कैसे लगेंगे ? और अगर कारखाने नही लगेंगे तो विकास कैसे होगा। " उसने फिर बात साफ कर दी।
                      " इस तरह तो बैंक डूब जायेंगे। " मैंने कहा।
                      " डूब जाएँ, एक डूबेगा तो दो नए आएंगे। इसमें घबराने की क्या बात है ? " उसने कहा।
                     " लेकिन पैसा तो आम जनता का ही डूबेगा। " मैंने कहा।
                     " इतना अर्थशास्त्र भी नही समझते। हजारों लोगों का पैसा डूबेगा तो एक दो हाथों मैं जायेगा। उससे पूंजी का निर्माण होगा। पूंजी का निर्माण होगा तो नए कारखाने लगेंगे। नए कारखाने लगेंगे तो विकास होगा। इसलिए विकास के लिए बैंको का डूबना बहुत जरूरी है। सरकार इसके लिए प्रयास भी कर रही है लेकिन लोगों ने फिर विरोध करना शुरू कर दिया।"  उसने पूरा अर्थशास्त्र समझा दिया।
                     " इस तरह तो सारी जमीन, सारा पैसा और सारे संशाधन कुछ लोगों के पास इकट्ठे हो जायेंगे। " मैंने कहा।
                    " तो अच्छा है न। इससे हिसाब रखना आसान हो जायेगा। फैसले लेने आसान हो जायेंगे। " उसने कहा।
                    " तुम्हारी सरकार हररोज तो नया टैक्स या सेस लगा देती है, कभी स्वच्छ भारत के नाम पर, कभी शिक्षा के नाम पर। " मैंने आगे कहा।
                    " अब लोगों के काम सरकार अपने पैसे से क्यों करेगी ? लोगों की गलियों में झाड़ू लगाना सरकार का काम थोड़ा ना है। अब बच्चे लोग पैदा करते हैं और पढ़ाने की जिम्मेदारी सरकार पर डाल दे रहे हैं। ऐसा कभी होता है। " उसने पुरे आत्मसन्तोष से जवाब दिया।
                      " तो सरकार का क्या काम होता है ?  मैंने पूछा।
                     " सरकार का काम है विकास करना। उसके लिए जमीन खाली करवाना , बैंकों से लोन दिलवाना, विदेशों से समझौते करवाना और टैक्स के रूप में पैसा इकट्ठा करके उद्योगपतियों  को छूट देना ताकि उनके पास ज्यादा से ज्यादा पैसा आये और वो कारखाने लगाएं ताकि विकास हो। " उसने फिर अर्थशास्त्र समझा  दिया।
                     " अगर लोगों के पास सामान खरीदने के पैसे ही नही होंगे तो कारखाने कैसे चलेंगे और विकास कैसे होगा। " मैंने पूरा जोर लगाकर तर्क दिया।
                       " ऐसा आपको लगता है , सरकार को नही लगता। विकास के लिए लोगों के पास नही बल्कि उद्योगपतियों के पास पैसा होना जरूरी होता है। जब वो कारखाना लगाता है तो ईंट, लोहा सीमेंट इत्यादि बिकता है, मशीने बिकती हैं, बिजली का सामान बिकता है, इस तरह कारखाना लगते लगते बहुत सा सामान बिक जाता है। " उसने कहा।
                     " लेकिन उसका बनाया हुआ सामान तो लोगों को ही खरीदना है। वो नही खरीद पाएंगे तो चलेगा कैसे ? " मैंने फिर से वही तर्क दिया।
                      " नही बिकेगा तो बन्द रक्खेंगे। जितना बिक गया उतना विकास तो हुआ। बाद में और पैसा आएगा तो दूसरा लगाएंगे।" उसने कहा।
                     " लेकिन ये तो संविधान के खिलाफ होगा। " मैंने कहा।
                     " तो हमने थोड़ा न संविधान लिखा था। सच कहूँ, तो आधे से ज्यादा समस्याएं तो इस संविधान की पैदा की हुई हैं। सरकार को मौका मिलेगा तो इसे भी बदल दिया जायेगा। वैसे बेअसर तो किया ही जा रहा है। और जब तक ऐसा नही होगा, तब तक विकास तो मुश्किल ही है। " उसने अंतिम टिप्पणी की।

Wednesday, October 5, 2016

राष्ट्रवादियों को केवल मरे हुए सैनिक पसन्द हैं।

     जब से सर्जिकल स्ट्राइक की खबरें आयी हैं, सारे भक्त राष्ट्रवाद की शराब पी कर उन्माद की अवस्था में पहुंच गए हैं। कोई शरीफ आदमी अगर इनको थोड़ा शांत रहने को कह देता है तो इन्हें उसमे नवाज शरीफ नजर आने लगता है। अपने कामकाज को लेकर निचले दर्जे पर पहुंच चुकी विश्वसनीयता को बहाल करने के लिए इस सरकार के पास इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता नही बचा था। सरकार ने सर्जिकल स्ट्राइक के ढोल पीटे और उन राज्यों में प्रधानमंत्री और रक्षामंत्री के सम्मान समारोह रख दिए, जिनमे निकट भविष्य में चुनाव हैं। अगर बीजेपी और सरकार के सारे बयानों और पोस्टरों को देखें तो ऐसा लगता है की सर्जिकल स्ट्राइक को सेना ने नही बल्कि बीजेपी कार्यकर्ताओं ने अंजाम दिया था।
                इस सर्जिकल स्ट्राइक से पाकिस्तान ने इंकार किया तो ये उसकी मजबूरी हो सकती है, लेकिन UNO के इंकार के मायने हैं। इसलिए लोगों ने सबूत पेश करने की मांग की। उन सबको भक्तों ने गद्दार घोषित कर दिया। सोशल मीडिया पर गालियां दी जाने लगी और सेना का मनोबल गिराने के इल्जाम लगाए जाने लगे।
                लेकिन असल में इन भक्तों और राष्ट्रवादियों को सैनिकों से कोई लेना देना नही है। एक तो उनके परिवार से शायद ही कोई सेना में हो, दूसरा उन्हें केवल मरे हुए सैनिक चाहियें ताकि उनके रोते हुए बच्चों और बिलखते माँ बाप की तस्वीरें दिखा कर देश में उन्माद पैदा किया जा सके। उनके टीवी चैंनल लगातार उन्हें दिखा कर खुद को देशभक्त भी साबित कर सकें,TRP भी बढ़ा सकें और उन्माद भी पैदा कर सकें।
                वरना एक साल से ज्यादा समय से जंतर मन्तर पर धरने पर बैठे भूतपूर्व सैनिक इनको दिखाई नही दिए। सारी उम्र देश की सेवा करके रिटायर हुए इन सैनिकों को वन रैंक-वन पेंशन कभी का दे दिया गया होता । इन पर कोई भक्त, कोई राष्ट्रवादी नही बोलता। दो महीने से ज्यादा हो गए जब हमारा एक विमान 29 सैनिकों के साथ लापता हो गया था, उसके लिए सरकार और भक्तों की आँख में एक आँसू नही दिखा। जो लोग आज पाकिस्तानियों को निकालने की धमकी दे रहे हैं ये वही लोग हैं जो कल बिहारियों और उत्तर भारतीयों को निकालने की धमकी देते थे। उससे पहले गुजरातियों और तमिलों को निकालने की धमकी देते थे। इनका राष्ट्रवाद अपने घर से आगे नही जाता। इनके लिए सब मोहरे हैं। एक बयान ने सलमान खान की क्या हालत कर दी। सारी जिन्दगी की मोदी भक्ति एक झटके में गद्दारी में बदल गयी।
               और इस उन्माद की आड़ लेकर सरकार ने क्या क्या नही किया। झारखण्ड से छत्तीसगढ़ तक गरीब आदिवासियों और किसानों को गोलियों से भून दिया ताकि उनकी जमीन पर कब्जा किया जा सके।
                   इस तरह का उन्मादी राष्ट्रवाद जनविरोधी होता है। वह अमरबेल की तरह जनता के लहू पर पनपता है और उसे ही नष्ट करता है। इस राष्ट्रवाद को उन्माद भड़काने वाली तस्वीरें चाहियें और वो तस्वीरें अगर लाशों की हों तो और अच्छा।

Monday, October 3, 2016

ये कैसा हाई अलर्ट है भाई ?


खबरी -- बारामुला में आतंकी हमले पर क्या प्रतिक्रिया है ?

गप्पी -- उरी आतंकी हमले और उसके बाद सर्जिकल स्ट्राइक के बाद सरकार कह रही है की पूरी सीमा पर हाई अलर्ट है। सेना और अर्धसैनिक बलों के जवान पाकिस्तान की किसी भी हरकत का जवाब देने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। उसके बाद पाकिस्तान से आतंकी आते हैं, सेना और BSF के कैम्प पर हमला करते हैं। इसमें हमारा एक जवान शहीद होता है और चार घायल होते हैं। पुलिस प्रवक्ता का कहना है की आतंकी अँधेरे का फायदा उठा कर भाग निकले।
              ये कैसा हाई अलर्ट है भाई ,जहां सीमा पर से आतंकी आते हैं, हमला करते हैं, और वापिस चले जाते हैं। गृह मंत्री कह रहे हैं की हमारी सेना मुंहतोड़ जवाब दे रही है।