Friday, July 24, 2015

Vyang - शिक्षा भी अब धन्धा है।

गप्पी -- हम पिछले कई दिनों से मुनाफदेय धंधों की बात कर रहे हैं। इनमे एक  धंधा है शिक्षा। वैसे तो आदिकाल से शिक्षा एक धंधा रही है। गुरुकुलों के समय भी गुरु शिक्षा देने की एवज में गुरु दक्षिणा मांगता था। और ये गुरु का विशेषाधिकार था की वो गुरु दक्षिणा में कुछ भी मांग सकता था, एकलव्य का अंगूठा भी और द्रुपद का राज्य भी। गुरुओं की इस दादागिरी से छुटकारा पाने के लिए सरकार ने इस धंधे को अपने हाथ में ले लिया। और गुरुओं से बदला लेने के लिए उनकी हालत ऐसी कर दी की उन्हें न्यूनतम वेतन के लिए धरने देने पड़ते हैं। पहले जमाने में गुरुओं ने राजकुमारों से जो अनाप-शनाप दक्षिणा मांगी थी ये उसका फल है। 

                        उसके बाद धंधादारी और दुकानदार राज के मालिक हो गए तो उन्होंने इस धंधे की संभावनाओं को देखते हुए इसका निजीकरण कर दिया। अब सर्वत्र शिक्षा की दुकाने खुलने लगी। खोलने वाले की हैसियत के हिसाब से बिल्डिंग के चौथे माले पर स्कूल, बंद पड़ी फैक्ट्री में स्कूल, घर के दो कमरों में स्कूल से लेकर राष्ट्रपति भवन से भी बड़े बड़े स्कूल। जो स्कूल नही खोल पाये उन्होंने कोचिंग क्लासें खोल ली। लेकिन मुकाबला सरकारी स्कूलों से था जो कम फ़ीस लेकर अच्छा पढ़ा रहे थे। सरकार में बैठे दुकानदारों ने सरकारी स्कूलों का सत्यानाश करना शुरू कर दिया। जहां बिल्डिंग हैं वहां अध्यापक नही हैं, अध्यापक है वहां ब्लैकबोर्ड नही हैं। अंग्रेजी की एक कहावत है की अगर आप पड़ौसी के कुत्ते को मारना चाहते हो तो पंद्रह दिन पहले से उसे पागल कहना शुरू कर दो। उसके बाद उसे मारोगे तो कोई विरोध नही करेगा। इस कहावत को सरकार में बैठे दुकानदारों ने पूरे पब्लिक सैक्टर पर लागु कर दिया। सरकारी स्कूल कुछ घोषित रूप से और कुछ अघोषित रूप से बंद किये जाने लगे। 

                      अब ये धंधा खूब चमक रहा है। पहले तो दाखिला देने के लिए मोटे मोटे डोनेशन मांगो। फिर ऊँची ऊँची फ़ीस लो। फ़ीस बढ़ाने का सबसे बढ़िया तरीका ये है की उसे सत्र के बीच में बढ़ा दो ताकि छात्रों और अभिभावकों के पास कोई ऑप्सन नही हो। फिर फ़ीस तो एक बहाना है असली पैसा तो दूसरी चीजों से आता है। स्कूल की बस का मनमाना किराया वसूल करो। वर्दी एक खास दुकान से खरीदने के लिए कहो जो बाजार से दुगने दाम पर मिले। किताबें ऐसी लगाओ जो किसी ने कभी देखना तो दूर सुनी भी नही हों और स्कूल से ही खरीदने का नियम बनाओ। सत्र  के बीच में टूर प्रोग्राम तय करो। छुट्टियों में डान्स क्लास चलाओ। स्केटिंग से लेकर तैराकी तक जो जो चीजें आपको याद हों उन्हें एक्स्ट्रा गतिविधियों में शामिल कर लो। आजकल अभिभावकों में भी एक तबका ऐसा हो गया है जो चाहता है की उसका बच्चा सुपरमैन हो, वो आपका समर्थन करेगा। अब देखो एक स्कूल के नाम पर आपकी कितनी दुकाने चल रही हैं। स्टेशनरी की दुकान, कपड़े की दुकान, डांस सीखाने का धंधा और दूसरे दसियों धंधे। 

                स्कूल में पढ़े लिखे अध्यापक रखना बिलकुल जरूरी नही है। बल्कि मैं तो ये कहूँगा की अगर ट्रस्टी बारहवीं पास हैं तो अध्यापक दसवीं से ऊपर नही होने चाहियें वरना अनुशासन भंग होने का खतरा रहता है। अध्यापकों को चार हजार वेतन दीजिये और चौबीस हजार पर दस्तखत करवाइये। अध्यापक पर ये शर्त भी लगाइये की वो हजार रूपये महीने में रोज दो घंटे आपके रिश्तेदार की कोचिंग क्लास में भी पढ़ाए। 

                      धीरे धीरे विकास करिये और दूसरे माले पर दो कमरों में चलने वाले कॉलेज को डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा दिलवाइए और शिक्षा मंत्री के रिश्तेदारों को घर बैठे डिग्री भेज दीजिये । इस तरह की डिग्रियां उन लोगों को भी दी जा सकती हैं जो अच्छा पैसा दे सकते हैं लेकिन पढ़ने जैसे फिजूल कामों के लिए उनके पास समय नही है। सरकार शिक्षा में बराबरी का बहुत ख्याल रखती है। हमारे संविधान में जो समाजवाद का शब्द है उसे सही तरीके से यहां लागु किया गया है। स्कूलों में पढ़ने वालों और यूनिवर्सिटिओ के उपकुलपति, कुलपति, चेयरमैन, डायरेक्टर और यहां तक की शिक्षा मंत्री तक एक ही बौद्धिक स्तर के रक्खे गए हैं। अगर कोई इसका विरोध करता है तो उसे वामपन्थी करार दे दो जैसे वामपंथी होना कोई गाली हो या संविधान के खिलाफ हो। इस तरह धीरे धीरे सारी सरकारी सस्थाओं को या तो पागल कुत्ता बना दीजिये या बेच दीजिये। कुछ लोग ये मांग कर रहे हैं की सारे देश में शिक्षा का स्तर समान होना चाहिए। इसलिए सरकार इस मांग का आदर करते हुए सारी शिक्षा को निजी हाथों में देने की योजना पर काम कर रही है।  शिक्षा के क्षेत्र में जो सरकारी हस्तक्षेप है उसे खत्म करने के प्रयास किये जा रहे हैं। सो निजी स्कूलों को जो थोड़ा बहुत मुकाबला झेलना पड रहा है वो भी जल्दी ही खत्म हो जायेगा। इसलिए मैं तो कहता हूँ की ज्यादा सोचविचार करने की जरूरत नही है और इस धंधे में कूद पड़ो।

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