दंगों के मामले में कुछ चीजें बहुत साफ हैं और बार बार यही चीजें दंगों का कारण बनती हैं। इसलिए जब तक इन चीजों को नही रोका जायेगा, दंगों को रोकना नामुमकिन है। लोगों की समझ में परिवर्तन लाने में समय लगेगा और फिर भी लोग उन्हें प्रभावित करने के लिए नए तरीके निकालते रहेंगे। इसलिए ये कुछ चीजें हैं जो दंगों पर रोक लगा सकती हैं। और इन्हे किया जाना चाहिए। किसी भी सभ्य समाज का आधार उस समाज में स्थापित कानून के राज का स्तर ही हो सकता है।
१. दंगों के बारे में ये बात बार बार सामने आई है की वो प्रायोजित होते हैं। कोई ना कोई होता है जो दंगे को प्रायोजित करता है। इनमे मुख्य रूप से राजनीतिज्ञ होते हैं या फिर राजनीती से जुड़े दूसरे संगठन होते हैं। कुछ अपने आप को धार्मिक कहने वाले संगठन भी ये काम करते हैं लेकिन इन संगठनो को भी किसी ना किसी राजनितिक संगठन का समर्थन प्राप्त होता है। इसलिए ये जरूरी है की दंगों की जाँच करते समय उन संगठनो को ना केवल बेनकाब किया जाये, बल्कि जिम्मेदार लोगों पर मुकदमे बना कर उन्हें सजा दिलाई जाये। अब तक ये लोग जाँच के दायरे से बाहर रहते हैं और अगले दंगे की तैयारी करते रहते हैं।
२. दंगों में हिस्सा लेने वाले लोगों में एक समझ ये बनी हुई है की भीड़ का कुछ नही बिगड़ता। भीड़ में किस किस पर केस बनेगा और बनेगा तो साबित नही होगा। इस विचार से प्रभावित लोगों को दंगों के लिए आसानी से इस्तेमाल किया जाता है। गुजरात दंगों के बाद कुछ मानवाधिकार संगठनो और कार्यकर्ताओं, वकीलों और उच्चतम न्यायालय के सक्रिय हस्तक्षेप के बाद कई केसों में भाग लेने वाले लोगों को सजा हुई। जिसके बाद बहुत से लोगों के मन से ये बात निकल गयी। जब तक दंगों में भाग लेने वाले ज्यादातर लोगों को अदालत के सामने लाकर सजा नही दिलवाई जाएगी तब तक दंगों को रोकना मुश्किल है। एक बार ये संदेश चला जाये की दंगों में भाग लेने वाले को सजा होगी तो दंगे करने वाले संगठनो को लोग मिलने मुश्किल हो जायेंगे।
३. दंगों में शामिल लोगों को सजा से बचाने में हमारे देश की पुलिस का एक हिस्सा, जिसमे खुद साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह होते हैं वो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उसके साथ ही अगर किसी राज्य में उन्ही लोगों की सरकार है जिन पर दंगों के आरोप हैं तब सरकार में बैठे लोगों का दबाव भी जाँच को किसी निष्कर्ष तक नही पहुचने देता। गुजरात दंगों के मामले में यही चीज थी। सरकार नही चाहती थी की दंगों में भाग लेने वाले लोगों को सजा हो। इसलिए ये भी जरूरी है की उन लोगों को भी सजा दिलवाई जाये जो जाँच को प्रभावित कर रहे थे। उन पुलिस अधिकारीयों को भी सजा दिलवाई जाये जिन्होंने जाँच को जानबूझकर किसी निर्णय तक नही पहुंचने दिया। जब तक इन लोगों को सजा नही मिलेगी दंगों के लिए सामग्री उपलब्ध रहेगी।
४. दंगों का हर मामला विशेष अदालतों में रोजाना सुनवाई के आधार पर चलाया जाये। जितना जल्दी दंगों के मामलों में फैसला होगा उतना ही इसका प्रभाव समाज पर पड़ेगा। जो लोग दंगे करवाकर चुनाव जीत लेते हैं उन्हें इसका फायदा नही उठाने दिया जाये। जिन लोगों पर दंगों के मामले में केस चल रहे हैं वो यदि किसी दूसरी जगह जाकर जहरीला भाषण देते हैं तो उनकी जमानत तुरंत रद्द की जाये और फैसला होने तक उन्हें जेल में रखा जाये। कानून द्वारा दिए गए नागरिक अधिकारों के दुरूपयोग की इजाजत नही दी जानी चाहिए।
एक बार दंगों की जाँच और न्याय को अपने अंतिम अंजाम तक पहुचने दो, उसके बाद दंगों के लिए लोग मिलने मुस्किल हो जायेंगे। लोगों का विश्वास न्यायिक मशीनरी पर बढ़ेगा और दंगों में बड़े पैमाने पर कमी आएगी।
१. दंगों के बारे में ये बात बार बार सामने आई है की वो प्रायोजित होते हैं। कोई ना कोई होता है जो दंगे को प्रायोजित करता है। इनमे मुख्य रूप से राजनीतिज्ञ होते हैं या फिर राजनीती से जुड़े दूसरे संगठन होते हैं। कुछ अपने आप को धार्मिक कहने वाले संगठन भी ये काम करते हैं लेकिन इन संगठनो को भी किसी ना किसी राजनितिक संगठन का समर्थन प्राप्त होता है। इसलिए ये जरूरी है की दंगों की जाँच करते समय उन संगठनो को ना केवल बेनकाब किया जाये, बल्कि जिम्मेदार लोगों पर मुकदमे बना कर उन्हें सजा दिलाई जाये। अब तक ये लोग जाँच के दायरे से बाहर रहते हैं और अगले दंगे की तैयारी करते रहते हैं।
२. दंगों में हिस्सा लेने वाले लोगों में एक समझ ये बनी हुई है की भीड़ का कुछ नही बिगड़ता। भीड़ में किस किस पर केस बनेगा और बनेगा तो साबित नही होगा। इस विचार से प्रभावित लोगों को दंगों के लिए आसानी से इस्तेमाल किया जाता है। गुजरात दंगों के बाद कुछ मानवाधिकार संगठनो और कार्यकर्ताओं, वकीलों और उच्चतम न्यायालय के सक्रिय हस्तक्षेप के बाद कई केसों में भाग लेने वाले लोगों को सजा हुई। जिसके बाद बहुत से लोगों के मन से ये बात निकल गयी। जब तक दंगों में भाग लेने वाले ज्यादातर लोगों को अदालत के सामने लाकर सजा नही दिलवाई जाएगी तब तक दंगों को रोकना मुश्किल है। एक बार ये संदेश चला जाये की दंगों में भाग लेने वाले को सजा होगी तो दंगे करने वाले संगठनो को लोग मिलने मुश्किल हो जायेंगे।
३. दंगों में शामिल लोगों को सजा से बचाने में हमारे देश की पुलिस का एक हिस्सा, जिसमे खुद साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह होते हैं वो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उसके साथ ही अगर किसी राज्य में उन्ही लोगों की सरकार है जिन पर दंगों के आरोप हैं तब सरकार में बैठे लोगों का दबाव भी जाँच को किसी निष्कर्ष तक नही पहुचने देता। गुजरात दंगों के मामले में यही चीज थी। सरकार नही चाहती थी की दंगों में भाग लेने वाले लोगों को सजा हो। इसलिए ये भी जरूरी है की उन लोगों को भी सजा दिलवाई जाये जो जाँच को प्रभावित कर रहे थे। उन पुलिस अधिकारीयों को भी सजा दिलवाई जाये जिन्होंने जाँच को जानबूझकर किसी निर्णय तक नही पहुंचने दिया। जब तक इन लोगों को सजा नही मिलेगी दंगों के लिए सामग्री उपलब्ध रहेगी।
४. दंगों का हर मामला विशेष अदालतों में रोजाना सुनवाई के आधार पर चलाया जाये। जितना जल्दी दंगों के मामलों में फैसला होगा उतना ही इसका प्रभाव समाज पर पड़ेगा। जो लोग दंगे करवाकर चुनाव जीत लेते हैं उन्हें इसका फायदा नही उठाने दिया जाये। जिन लोगों पर दंगों के मामले में केस चल रहे हैं वो यदि किसी दूसरी जगह जाकर जहरीला भाषण देते हैं तो उनकी जमानत तुरंत रद्द की जाये और फैसला होने तक उन्हें जेल में रखा जाये। कानून द्वारा दिए गए नागरिक अधिकारों के दुरूपयोग की इजाजत नही दी जानी चाहिए।
एक बार दंगों की जाँच और न्याय को अपने अंतिम अंजाम तक पहुचने दो, उसके बाद दंगों के लिए लोग मिलने मुस्किल हो जायेंगे। लोगों का विश्वास न्यायिक मशीनरी पर बढ़ेगा और दंगों में बड़े पैमाने पर कमी आएगी।
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