ये कुछ ऐसे शब्द हैं जो किताबों दिए गए और जिनका उच्चारण कुछ लोग करते रहते हैं लेकिन इनका कोई व्यवहारिक मूल्य है मुझे इसमें शक है। ऐसा नही है की बिना पढ़े लिखे लोगों को ही इनका मतलब नही मालूम, बल्कि मुझे तो लगता है की ज्यादा पढ़े लिखे लोगों को तो इनका मतलब सचमुच नही मालूम।
अभी दादरी की घटना हुई, इससे पहले भी इस तरह की घटनाएँ होती रही हैं। लोग इस पर तरह तरह की चालबाजी पूर्ण बातें करते हैं। परन्तु मुझे शायद ही कोई ऐसा आदमी मिला हो ( पूरी जिंदगी में पांच दस को छोड़कर ) जिनके जीवन में इन शब्दों का व्यवहारिक महत्त्व है। बड़े हिस्से के लोग और देश अपने अपने स्वार्थ से संचालित होते हैं। उन्हें केवल अपने हित दिखाई देते हैं बाकि चीजों से उन्हें कुछ लेना देना नही होता। अगर कानून नाम की संस्था, भले ही वो कितनी ही कमजोर क्यों ना हो, अस्तित्व में नही होती तो आज भी वो सारी चीजें चालू रहती चाहे वो सती प्रथा हो या दास प्रथा। इसे केवल कानून ने रोका।
हमे ये लगता है की लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठेगा और लोग थोड़ा पढ़ लिख लेंगे तो इन चीजों को समझना शुरू करेंगे या उनमे मानवीय मूल्यों के प्रति संवेदना पैदा होगी। लेकिन जब धरातल पर इसका विश्लेषण करते हैं तो बात एकदम उलटी दिखाई देती है। सबसे ज्यादा पढ़े लिखे और सबसे ज्यादा आय वाले लोगों में लिंग अनुपात सबसे कम है। क्यों है, क्योंकि इन्होने तकनीक का इस्तेमाल करके लड़कियों को गर्भ में ही मार दिया। ये मानवीय मूल्यों पर बात करते हैं। नही, इनको केवल अपने वित्तीय स्वार्थ दिखाई देते हैं। लोग भाईचारे की बात करते हैं लेकिन उन्हें अगर ये लगता है की पड़ौस के कुछ लोगों की हत्या करके उनकी जान पहचान सीधे मंत्री से हो सकती है और उनको इसका फायदा मिल सकता है तो वो दंगों में भाग लेने के लिए तैयार हैं। गुजरात के दंगों में सीसी टीवी फुटेज में लोग महंगी गाड़ियां लेकर दुकानो को लूटते पाये गए। जब इनके बच्चे इन हत्याओं और दंगों के अपराध में जेल चले जाते हैं तो इनको भाईचारा याद आता है और ये राग अलापते हैं की पुरानी बातें भूल जाओ। इसका मतलब है की हमारे बच्चों को आजाद करवा दो। ये भाईचारा अपनी जरूरत की उपज है किसी संवेदना की उपज नही है।
सोशल मीडिया पर भी हम ऐसे बहुत से लोगों को देखते हैं जो पढ़े लिखे हैं और राष्ट्र्वाद के नारे लगाते हैं। और उनके काम और बातें देश को सौ टुकड़ों में बाँटने वाली होती हैं। उनका बस चले तो वो दस बीस करोड़ लोगों का कत्ल एक ही दिन में करवा दें। उनके लिए देश का मतलब कभी भी अपने फायदे से आगे नही जाता। वो किसी पार्टी के वेतनभोगी हो सकते हैं, किसी मंत्री या सांसद से जान पहचान के प्यासे हो सकते हैं या व्यापार में उनसे जुड़े हो सकते हैं। बढ़े हिस्से के लोग केवल अपनी जरूरतों के हिसाब से राष्ट्रवादी होते हैं।
विकसित और पश्चिमी देशों में मानवीय मूल्यों और लोकतंत्र की बहुत चर्चा होती है। ये लोग अपने आपको बहुत ऊँचे नैतिक धरातल पर रखते हैं। लेकिन इराक और लीबिया में इन्होने क्या किया। लोगों का एक अनुमान है की इराक में अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते केवल दवाइयों के बगैर मरने वाले बच्चों की तादाद दस लाख थी। अब ये वही सब काम सीरिया और यमन में कर रहे हैं। ये कौनसे मानवीय मूल्य हैं, कौनसा लोकतंत्र है। अगर कोई देश तुम्हारे साथ है, तुम्हारी कम्पनियों को लूटने की इजाजत दे रहा है तो सब ठीक है भले ही उसमे राजतंत्र हो या फौजी तानाशाही। लेकिन अगर कोई तुम्हे ये इजाजत नही देता तो वह सरकार अवैध है।
अगर कोई आदमी किसी मसले पर कोई बात रखता है और वो आपके खिलाफ है, फिर भले ही उसकी कोई बात कितनी ही सही क्यों न हो आप उसे दूसरा रूप देकर मुद्दा बना देते हैं। दादरी की घटना पर ओवैसी ने वहां का दौरा करने पर एक भी बात गलत नही कही ( किसी को एतराज हो तो वो विडिओ देख सकता है ) लेकिन वो गद्दार हो गया और जहर उगलने वाले संगीत सोम, साध्वी प्राची और योगी आदित्यनाथ देश भक्त हो गए। लोगों को क्या हासिल हुआ। गुजरात दंगों के बाद बहुत से हिन्दुओं को सजा हुई और उनके परिवार बर्बाद हो गए। नरेंद्र मोदी 12 साल मुख्यमंत्री रहे और अब प्रधानमंत्री बन गए। परन्तु ये लोग अपना जीवन बर्बाद कर गए। जो लोग दंगों में भाग लेकर सजा से बच भी गए, उनको भी क्या हासिल हुआ। उन्होंने जिन लोगों को मार डाला उनसे उनकी क्या सीधी दुश्मनी थी। लेकिन अपने स्वार्थों के पुरे होने की उम्मीद में ये लोग साम्प्रदायिक ताकतों के हाथों का हथियार बन गए। मुजफ्फर नगर के दंगों के बाद संगीत सोम और संजीव बालियान तो विधायक और मंत्री हो गए, इनके कुछ नजदीकी लोगों को भी राज का फायदा हो गया होगा लेकिन जेलों में बंद सैंकड़ो लोगों को क्या मिला, केवल जेलयात्री का सम्मान। मानो आजादी की लड़ाई में जेल गए थे।
इसलिए इन बातों से कुछ होगा, ये मुझे नही लगता। इन लोगों को केवल कानून को सख्ती से लागु करके रोका जा सकता है। भीड़ का कुछ नही बिगड़ता ये बात इनके दिल से निकल जानी चाहिए। जिन जिन लोगों की सजाएं दंगों में भाग लेने के कारण हुई उनका प्रचार होना चाहिए। बात फिर वहीं आ जाती है। ये काम टीवी मीडिया तो करेगा नही, क्योंकि उसको तो अपने हित देखने हैं फिर चाहे सारा देश जल जाये उसके ऑफिस को छोड़कर। अभी हाल का उदाहरण है। बिहार चुनाव में मीडिया हर नेता से पूछ रहा था की तुम विकास पर क्यों नही लड़ते। ऐसा मुंह बनाते थे एंकर जैसे विकास के बिना बहुत दुखी हों। जैसे ही बीफ का मुद्दा हाथ लगा उनके चेहरे चमक गए। अब दूसरा सवाल ही नही पूछते हैं। एक हफ्ते से बीफ छाया हुआ है और इलेक्सन तक छाया रहेगा। खुद वो और उनको पैसे देने वाली पार्टी दोनों चाहते थे की मुद्दा विकास से हट जाये और हट गया।
इसलिए मेरा ये कहना है की दंगों में भाग लेने वालों को सजा हो ये सुनिश्चित करो। केवल यही काम है जो लोगों को इससे दूर रख सकता है। बाकि की तो सारी बातें बस बातें ही हैं।
अभी दादरी की घटना हुई, इससे पहले भी इस तरह की घटनाएँ होती रही हैं। लोग इस पर तरह तरह की चालबाजी पूर्ण बातें करते हैं। परन्तु मुझे शायद ही कोई ऐसा आदमी मिला हो ( पूरी जिंदगी में पांच दस को छोड़कर ) जिनके जीवन में इन शब्दों का व्यवहारिक महत्त्व है। बड़े हिस्से के लोग और देश अपने अपने स्वार्थ से संचालित होते हैं। उन्हें केवल अपने हित दिखाई देते हैं बाकि चीजों से उन्हें कुछ लेना देना नही होता। अगर कानून नाम की संस्था, भले ही वो कितनी ही कमजोर क्यों ना हो, अस्तित्व में नही होती तो आज भी वो सारी चीजें चालू रहती चाहे वो सती प्रथा हो या दास प्रथा। इसे केवल कानून ने रोका।
हमे ये लगता है की लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठेगा और लोग थोड़ा पढ़ लिख लेंगे तो इन चीजों को समझना शुरू करेंगे या उनमे मानवीय मूल्यों के प्रति संवेदना पैदा होगी। लेकिन जब धरातल पर इसका विश्लेषण करते हैं तो बात एकदम उलटी दिखाई देती है। सबसे ज्यादा पढ़े लिखे और सबसे ज्यादा आय वाले लोगों में लिंग अनुपात सबसे कम है। क्यों है, क्योंकि इन्होने तकनीक का इस्तेमाल करके लड़कियों को गर्भ में ही मार दिया। ये मानवीय मूल्यों पर बात करते हैं। नही, इनको केवल अपने वित्तीय स्वार्थ दिखाई देते हैं। लोग भाईचारे की बात करते हैं लेकिन उन्हें अगर ये लगता है की पड़ौस के कुछ लोगों की हत्या करके उनकी जान पहचान सीधे मंत्री से हो सकती है और उनको इसका फायदा मिल सकता है तो वो दंगों में भाग लेने के लिए तैयार हैं। गुजरात के दंगों में सीसी टीवी फुटेज में लोग महंगी गाड़ियां लेकर दुकानो को लूटते पाये गए। जब इनके बच्चे इन हत्याओं और दंगों के अपराध में जेल चले जाते हैं तो इनको भाईचारा याद आता है और ये राग अलापते हैं की पुरानी बातें भूल जाओ। इसका मतलब है की हमारे बच्चों को आजाद करवा दो। ये भाईचारा अपनी जरूरत की उपज है किसी संवेदना की उपज नही है।
सोशल मीडिया पर भी हम ऐसे बहुत से लोगों को देखते हैं जो पढ़े लिखे हैं और राष्ट्र्वाद के नारे लगाते हैं। और उनके काम और बातें देश को सौ टुकड़ों में बाँटने वाली होती हैं। उनका बस चले तो वो दस बीस करोड़ लोगों का कत्ल एक ही दिन में करवा दें। उनके लिए देश का मतलब कभी भी अपने फायदे से आगे नही जाता। वो किसी पार्टी के वेतनभोगी हो सकते हैं, किसी मंत्री या सांसद से जान पहचान के प्यासे हो सकते हैं या व्यापार में उनसे जुड़े हो सकते हैं। बढ़े हिस्से के लोग केवल अपनी जरूरतों के हिसाब से राष्ट्रवादी होते हैं।
विकसित और पश्चिमी देशों में मानवीय मूल्यों और लोकतंत्र की बहुत चर्चा होती है। ये लोग अपने आपको बहुत ऊँचे नैतिक धरातल पर रखते हैं। लेकिन इराक और लीबिया में इन्होने क्या किया। लोगों का एक अनुमान है की इराक में अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते केवल दवाइयों के बगैर मरने वाले बच्चों की तादाद दस लाख थी। अब ये वही सब काम सीरिया और यमन में कर रहे हैं। ये कौनसे मानवीय मूल्य हैं, कौनसा लोकतंत्र है। अगर कोई देश तुम्हारे साथ है, तुम्हारी कम्पनियों को लूटने की इजाजत दे रहा है तो सब ठीक है भले ही उसमे राजतंत्र हो या फौजी तानाशाही। लेकिन अगर कोई तुम्हे ये इजाजत नही देता तो वह सरकार अवैध है।
अगर कोई आदमी किसी मसले पर कोई बात रखता है और वो आपके खिलाफ है, फिर भले ही उसकी कोई बात कितनी ही सही क्यों न हो आप उसे दूसरा रूप देकर मुद्दा बना देते हैं। दादरी की घटना पर ओवैसी ने वहां का दौरा करने पर एक भी बात गलत नही कही ( किसी को एतराज हो तो वो विडिओ देख सकता है ) लेकिन वो गद्दार हो गया और जहर उगलने वाले संगीत सोम, साध्वी प्राची और योगी आदित्यनाथ देश भक्त हो गए। लोगों को क्या हासिल हुआ। गुजरात दंगों के बाद बहुत से हिन्दुओं को सजा हुई और उनके परिवार बर्बाद हो गए। नरेंद्र मोदी 12 साल मुख्यमंत्री रहे और अब प्रधानमंत्री बन गए। परन्तु ये लोग अपना जीवन बर्बाद कर गए। जो लोग दंगों में भाग लेकर सजा से बच भी गए, उनको भी क्या हासिल हुआ। उन्होंने जिन लोगों को मार डाला उनसे उनकी क्या सीधी दुश्मनी थी। लेकिन अपने स्वार्थों के पुरे होने की उम्मीद में ये लोग साम्प्रदायिक ताकतों के हाथों का हथियार बन गए। मुजफ्फर नगर के दंगों के बाद संगीत सोम और संजीव बालियान तो विधायक और मंत्री हो गए, इनके कुछ नजदीकी लोगों को भी राज का फायदा हो गया होगा लेकिन जेलों में बंद सैंकड़ो लोगों को क्या मिला, केवल जेलयात्री का सम्मान। मानो आजादी की लड़ाई में जेल गए थे।
इसलिए इन बातों से कुछ होगा, ये मुझे नही लगता। इन लोगों को केवल कानून को सख्ती से लागु करके रोका जा सकता है। भीड़ का कुछ नही बिगड़ता ये बात इनके दिल से निकल जानी चाहिए। जिन जिन लोगों की सजाएं दंगों में भाग लेने के कारण हुई उनका प्रचार होना चाहिए। बात फिर वहीं आ जाती है। ये काम टीवी मीडिया तो करेगा नही, क्योंकि उसको तो अपने हित देखने हैं फिर चाहे सारा देश जल जाये उसके ऑफिस को छोड़कर। अभी हाल का उदाहरण है। बिहार चुनाव में मीडिया हर नेता से पूछ रहा था की तुम विकास पर क्यों नही लड़ते। ऐसा मुंह बनाते थे एंकर जैसे विकास के बिना बहुत दुखी हों। जैसे ही बीफ का मुद्दा हाथ लगा उनके चेहरे चमक गए। अब दूसरा सवाल ही नही पूछते हैं। एक हफ्ते से बीफ छाया हुआ है और इलेक्सन तक छाया रहेगा। खुद वो और उनको पैसे देने वाली पार्टी दोनों चाहते थे की मुद्दा विकास से हट जाये और हट गया।
इसलिए मेरा ये कहना है की दंगों में भाग लेने वालों को सजा हो ये सुनिश्चित करो। केवल यही काम है जो लोगों को इससे दूर रख सकता है। बाकि की तो सारी बातें बस बातें ही हैं।
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