ताजा खबरों, सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक विषयों को व्यंगात्मक और सरल भाषा में प्रस्तुत करना।
Friday, July 31, 2015
Thursday, July 30, 2015
Vyang -- वोट कैसे नही दोगे तुम !
गप्पी -- इस देश के मतदाताओं को बड़ा घमण्ड था। कभी भी और किसी को भी कह देते थे जाओ हम वोट नही देंगे। कई बार तो ऐसा होता था विकास कार्यों की अनदेखी के विरोध में पूरा गांव चुनाव का बहिष्कार कर देता था। ये भी एक लोकतांत्रिक तरीका था अपना विरोध प्रकट करने का। मुहल्ले का छोटा से छोटा आदमी इंकार कर देता था वोट देने से। लोगों को जब सभी पार्टियां और उम्मीदवार किसी काम के नही लगते थे तो वो वोट देने नही जाते थे । जब उसे चुनाव में खड़े लोगों से कोई उम्मीद नजर नही आती थी तो वो वोट देने नही जाता था। एक लोकतान्त्रिक देश के नागरिक होने की हैसियत से हमे ये अधिकार प्राप्त था की हम जिसे चाहें वोट दें और ना चाहें तो किसी को भी वोट ना दें। जब चुनावों में लोगों के वोट डालने की संख्या कम हो जाती है तो अब तक तो उसका विश्लेषण करने वाले कहते थे की राजनितिक पार्टियां लोगों को वोट के लिए आकर्षित करने में विफल रही हैं। यही बात थी जो कुछ पार्टियों को अच्छी नही लगी। इस देश का अदना सा वोटर उसकी गलती निकाल रहा है, उसकी इतनी हिम्मत। सो कानून बना दिया की वोट देना जरूरी है। अगर नही दोगे तो सजा होगी। एक आम वोटर की इतनी हिम्मत की वो वोट देने से इंकार करे। ये नही हो सकता। सरकार ऐसे गैरजिम्मेदार वोटरों को सीधा करेगी। आखिर लोकतंत्र है।
परन्तु मेरे पड़ौसी पूछ रहे थे की जो पार्टियां झूठे वायदे करके वोट ले लेती हैं और बाद में वायदों को जुमला कह देती हैं क्या उनके खिलाफ भी कोई कानून है। वोट देने और चुनाव जीत जाने के बाद लोगों को मालूम पड़ता है की गलत आदमी चुना गया तो क्या उसे वापिस लाने का कोई कानून है ? जिन लोगों पर अपराधी मामले चल रहे हैं क्या उन्हें चुनाव लड़ने से रोकने का कोई कानून है ? नही है। हो भी नही सकता। ये सारी मांगे नेताओं और पार्टियों के खिलाफ हैं। और हमारे नेता तो लोकतंत्र के राजा हैं तो भला उनके खिलाफ कोई कानून कैसे बन सकता है।
लेकिन कुछ कानून हैं। चुनाव में पैसा खर्च करने की सीमा तय है। कोई भी उम्मीदवार उससे ज्यादा पैसा खर्च नही कर सकता। परन्तु इस कानून का क्या हुआ ? सभी को मालूम है की उम्मीदवार करोड़ों रुपया खर्च करते हैं। कोई पकड़ा भी जाता है तो उसे पार्टी का खर्च बता दिया जाता है। क्या किसी को याद है की कोई उम्मीदवार ज्यादा खर्च करने के लिए चुनाव के अयोग्य घोषित हुआ हो ? फिर लोकतंत्र के राजाओं के खिलाफ बात की जा रही है। जो कभी नही हो सकता। सरकार पांच साल में एकबार चुनाव सुधारों पर मीटिंग का नाटक करती है और बिना किसी नतीजे के समाप्त कर देती है। क्योंकि सरकार समझती है की इस देश के मतदाता अव्वल दरजे के मुर्ख हैं।
सो इन मुर्ख मतदाताओं को सीधा करने का केवल एक ही रास्ता है और वो है कानून। सो कानून बना दिया है की वोट तो भई डालनी ही पड़ेगी वरना सजा भुगतने को तैयार हो जाओ। एक आदमी कह रहा था की भाई अब तो इस मत का भी बटन है की इनमे से कोई नही, फिर क्या एतराज है। अगर आपको कोई भी उम्मीदवार पसंद नही आता है तो आप वो बटन दबा सकते हैं। मुझे हंसी आई। इस बटन का मतलब है खराब से खराब उम्मीदवार भी ये कहेगा लो, मेरी बात छोडो इन्हे तो कोई भी पसंद नही है। वो कहेगा अरे, लोग ही बेकार हैं। अब भगवान राम तो चुनाव लड़ने आने से रहे। दुबारा चुनाव होगा फिर क्या होगा ? तब कोई बाहर से आएगा चुनाव लड़ने ? फिर सारा कसूर जनता का साबित हो जायेगा।
सो इस देश के भोले मतदाताओ, अब ये कानून बन गया की वोट तो तुम्हे देना ही पड़ेगा। दूसरा ये तरीका बन गया और स्थिति पैदा कर दी की कोई भला मनुष्य चुनाव नही लड़ सकता क्योंकि उसके पास इतना पैसा ही नही होगा खर्च करने को। टीवी चैनल पैसा लेकर एक पार्टी की हवा होने के ओपिनियन पोल पेश करेंगे। लाखों के खर्च से खबरों से ज्यादा के विज्ञापन दिखाए जायेंगे। पैसा लेकर खबरें दिखाई जाएँगी। इवेंट मैनेजमेंट कम्पनियां चुनाव प्रचार और प्रबंध करेंगी। सोशल मीडिया पर पैसे लेकर बैठे हुए लोग लगातार झूठ और गालियों का दौर चलाएंगे। सभी छोटी और सही आवाजें नक्कारखाने में खो जाएँगी। और ऐसे माहोल में अगर कोई मतदाता कानो पर हाथ रखकर घर के अंदर बैठना चाहेगा तो उसे सजा हो जाएगी। धन्य है हमारा लोकतंत्र, जो लगभग लोक के खिलाफ हो गया है। आखिर लोग कब इस तानाशाही के खिलाफ वोट देंगे।
खबरी -- क्या गुजरात सरकार का अनिवार्य मतदान का कानून अलोकतांत्रिक है ?
Tuesday, July 28, 2015
Vyang -- No Politics Please !
गप्पी -- हम गाहे बगाहे ये बात सुनते रहते हैं की कृपया इस मुद्दे पर राजनीती ना करें। कल पंजाब के गुरदासपुर में आतंकवादी हमला हुआ। कई लोग मारे गए। पंजाब के मुख्यमंत्री बादल साहब का बयान आया की आतंकवादी सीमा पार से आये थे इसलिए ये राज्य का मामला नही है। संसद में विपक्ष ने जब इस पर गुप्तचर असफलता का आरोप लगाया तो वेंकैया नायडू ने कहा की आतंकवाद के मुद्दे पर राजनीती नही की जानी चाहिए। विपक्ष के लोगों को तो एक बार जैसे सांप सूंघ गया। ये बात उस पार्टी के नेता और खुद वो मंत्री कह रहे हैं जो लगभग सारी राजनीती इसी मुद्दे पर करते रहे हैं। पिछली UPA सरकार का उन्होंने ये कह कह कर जीना हराम कर दिया था की ये सरकार देश की सुरक्षा के मामले पर असफल है।
इससे पहले जब भूमि बिल पर विपक्ष ने विरोध जताया था तब भी सरकार ने कहा था की विपक्ष को देश के विकास के सवाल पर राजनीती नही करनी चाहिए। सरकार बार बार विपक्ष को ये याद दिलाती है की भैया इन मामलों पर राजनीती मत करो। लेकिन विपक्ष है की मानता ही नही है। वह हमेशा गलत चीजों पर राजनीती करता है जैसे आतंकवाद, महंगाई, बेरोजगारी, भूमि बिल इत्यादि। अब अगर विपक्ष इन मामलों पर राजनीती करेगा तो देश का क्या होगा ?
इसलिए मेरा सरकार को सुझाव है की वो संसद में एक बिल लेकर आये और उसमे तय कर दिया जाये की किन किन मुद्दों पर राजनीती की जा सकती है। और उन मुद्दों पर राजनीती करने के लिए संसद का एक विशेष सत्र हर साल बुलाया जाये। इसके अलावा बाकि जो भी संसद के सत्र हों उनमे विपक्ष को राजनीती करने पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। इन सत्रों में विपक्ष का काम केवल हाथ ऊपर करना तय कर दिया जाये वो भी तब जब सरकार कहे।
राजनीती करने के लिए जो विशेष सत्र बुलाया जाये उसमे इस तरह का काम रक्खा जाये जैसे राजनीती पर चुटकुले सुनाना, होली खेलना और होली के गीत गाना जिनमे कुछ गालियों की भी छूट दी जा सकती है। संसद से वाकआउट करने और कार्यवाही रोकने जैसे प्रोग्राम भी केवल इसी सत्र में किये जा सकते हैं। कितना अच्छा लगेगा जब संसदीय कार्य मंत्री विपक्ष के किसी नेता पर कोई चुटकुला सुनाएंगे और विपक्ष उसका विरोध करते हुए वाकआउट करेगा। विपक्ष के वाकआऊट की तारीफ करते हुए सत्ता पक्ष के लोग तालियां बजायेंगे और प्रदर्शन की प्रशंसा करेंगे। संसद में एकदम राष्ट्रीय एकता का नजारा होगा।
बाकि सत्रों में इस पर रोक का बिल पास होने के बाद जो नियम बनाएं जाएँ उनमे कुछ इस तरह के हो सकते हैं।
१. सत्र के दौरान विपक्ष के सदस्य मुंह पर कपड़ा लपेट कर आएंगे लेकिन वो काले रंग का नही होना चाहिए।
२. सरकार किसी बिल पर जब हाथ उठाने के लिए कहेगी तब सभी सदस्यों को पार्टी से ऊपर उठकर हाथ उठाना होगा।
३. अचानक कोई घटना घटित होने पर अगर विपक्ष को लगता है की उसे सदन में उठाया जाये तो वो उसे लिखकर संसदीय कार्य मंत्री को देंगे और मंत्री उसकी भाषा कागज पर लिखकर देंगे। उसके अलावा कोई शब्द नही बोला जायेगा।
४. किसी मंत्री का कोई घोटाला सामने आता है तो उसे राष्ट्रीय कर्म माना जायेगा और जब तक सरकार के अंदरुनी मतभेदों के कारण मंत्री को हटाने की नौबत नही आएगी विपक्ष तब तक इंतजार करेगा। ऐसा समय आने पर सरकार विपक्ष को सुचना देगी और विपक्ष उसका इस्तीफा मांग सकता है। इसके अलावा किसी भी मंत्री का इस्तीफा मांगना देशद्रोह माना जायेगा।
५. प्रधानमंत्री से किसी भी मामले पर बयान देने को नही कहा जायेगा और प्रधानमंत्री केवल अपने विदेशी दौरों पर बयान देंगे। और इस पर पूरा देश प्रधानमंत्री के साथ है ये संदेश देने के लिए विपक्ष के सभी सदस्यों द्वारा मेज थपथपाना जरूरी होगा।
६. बजट पर विपक्ष के बहस करने पर पाबंदी रहेगी और केवल सत्ता पक्ष के लोग उस पर बोल सकते हैं।
७. देश की सभी संवैधानिक संस्थाए मंत्रियों के नीचे और इशारे पर काम करेंगी। संविधान को सरकार के अधीन माना जायेगा। अब तक जो सरकार को संविधान के अधीन माना जाता है वो गलत है और इस भूल का सुधार कर लिया जायेगा।
८. उच्चतम न्यायालय के जजों की नियुक्ति प्रधानमंत्री करेंगे और उच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति का अधिकार मुख्यमंत्री का होगा। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री अगर चाहें तो अपने परिवार के सदस्यों की राय ले सकते हैं।
९. अगर कोई न्यायिक बैंच दो सदस्यों की है तो अटार्नी जनरल को बैंच का तीसरा सदस्य माना जायेगा।
१०. न्यायालय के सभी फैसले मंत्रिमंडल की छानबीन और अनुमति के अधीन रहेंगे।
११. चुनाव की घोषणा के बाद ही विपक्ष सरकार की आलोचना कर सकेगा। शेष समय सरकार की आलोचना पर पाबंदी रहेगी।
१२. किसानों और मजदूरों से संबन्धित किसी भी मांग को विकास विरोधी, अल्पसंख्यकों से संबंधित मांगो को तुष्टिकरण और महिलाओं से संबन्धित मांगों को संस्कृति विरोधी माना जायेगा।
१३. संविधान संशोधन बिल पर जो दो- तिहाई बहुमत का प्रावधान है उसे सदन की नही बल्कि सत्तापक्ष की सदस्यता का दो-तिहाई माना जायेगा।
१४. ये सभी नियम सरकार के स्थाईत्व को ध्यान में रखकर बनाये गए हैं इसके बावजूद देश के दुर्भाग्य से अगर भाजपा की सरकार चली जाती है तो ये नियम समाप्त मान लिए जायेंगे।
खबरी -- उम्मीद करता हूँ की सरकार तुम्हारे सुझावों को प्रत्यक्ष रूप से भी लागु करेगी।
Sunday, July 26, 2015
Vyang -- मोदीजी की " मन की बात ", मजा आ गया !
खबरी -- मोदीजी ने अभी जो "मन की बात" की है उस पर तुम्हारा क्या कहना है ?
गप्पी -- क्या कहना है ? अरे ! मैं कहता हूँ की मजा आ गया। जिस दिन से इस बात का जिक्र हो रहा था की मोदीजी मन की बात करने वाले हैं उसी दिन से कोहराम मचा हुआ था। सारा मीडिया कयास लगा रहा था। लोग इंतजार में घड़ी देख रहे थे। विपक्ष के लोगों की दिल की धड़कन तेज हो रही थी। सबको लगता था की मोदीजी अब तो कम से कम भृष्टाचार के आरोपों पर बोलेंगे। देखते हैं क्या कहते हैं। सुषमाजी और वसुंधराजी की सफाई किस तरह देंगे। ललित मोदी पर क्या कहेंगे। पर सब धरे रह गए। मोदीजी ने एक शब्द नही बोला। अब बोलो क्या बोलते हो। सबके चेहरे उतरे हुए थे। कुछ हाथ में नही आया। कुछ लोगों का अनुमान था की संसद न चलने पर विपक्ष को कोसेगे , आरोप लगाएंगे की विपक्ष देश की तरक्की में अड़ंगा डाल रहा है। पर नही बोले। कुछ लोगों में तो शर्तें लगी हुई थी। एक कह रहा था की ये बोलेंगे, दूसरा कह रहा था की नही, ये बोलेंगे। दोनों हार गए। मैं तो कहता हूँ की क्रिकेट पर सट्टा लगाने वाले अगर इस बात पर सट्टा लगाएं की प्रधानमंत्री मन की बात में किस बात पर बोलेंगे तो ज्यादा बड़ा काम हो सकता है। प्रधानमंत्री का मन समझना भरतीय टीम के स्कोर के अनुमान से ज्यादा कठिन है।
मैं कहता हूँ की मजा आ गया। प्रधानमंत्री जी आपके मन को कौन समझ सकता है। लोग इसे ना तो चुनाओं के पहले समझ पाये और ना बाद में। इस बात को आपने साबित कर दिया की आप किसी के हाथ आने वाले नही हैं। देश में एक से एक बड़ा मसला पड़ा है। चर्चाएं चल रही हैं। लेकिन आप बोले सड़क दुर्घटनाओं पर। विपक्ष के लोगों को छोडो, मीडिया और खुद बीजेपी के लोग तक अनुमान नही लगा पाये। आपकी कपैसिटी पर जिन लोगों को संदेह था शायद अब दूर हो गया हो। आपकी महिमा उनको समझ में आ गयी हो। इतने जलते हुए सवालों के बीच से आप यों साफ निकल गए की देखते ही बनता था।
परन्तु आपकी एक बात मुझे समझ में नही आई। आपने पंद्रह अगस्त के भाषण के लिए लोगों से सुझाव क्यों मांगे। मैं कहता हूँ की ये आपने ठीक नही किया। लोग तो भरे बैठे हैं। पता नही क्या-क्या सुझाव भेज देंगे। आपके पास कौनसा मुद्दों का अकाल पड़ा है जो आप उनसे पूछ रहे हैं। इस देश के लोगों की सोच बहुत छोटी है। ये अब तक बेरोजगारी, महंगाई जैसे तुच्छ चीजों और मुद्दों से ऊपर नही उठ पाये हैं। सो इनसे कुछ मत पूछा करो। इन बेवकूफों को तो ये भी नही पता की चुनाव से पहले के और चुनाव के बाद के, दोनों मुद्दे अलग अलग होते हैं।
मैं तो कहता हूँ की आपने इतने देशों की यात्रायें की हैं। पंद्रह अगस्त पर आप उन यात्राओं के अनुभव सुना सकते हैं। एकदम नई बात हो जाएगी। अगर कोई भारी भरकम मुद्दा चाहिए जैसे विज्ञानं वगैरा से संबंधित तो आप कैपलर नाम के उस ग्रह पर बोल सकते हैं जिसे नासा ने अभी अभी खोजने का दावा किया है। आप इस पर अपना दावा भी ठोंक सकते हैं की हमारा है। आप कह सकते हैं की यह ग्रह उन हाथियों से बना है जो महाभारत के युद्ध में भीम ने फेंके थे। जब से आपने गणेश के सर पर भरतीय वैद्यों द्वारा सर्जरी से हाथी का सिर जोड़ने की बात कही है वैज्ञानिक लोग आपको गंभीरता से नही लेते। सो इस पर कोई विवाद खड़ा नही होगा और आपको अमरीका का समर्थक कहने वालों को बोलती भी बंद हो जाएगी । पंद्रह अगस्त देखने आई भीड़ इस पर तालियां जरूर बजाएगी। लेकिन लोगों से सुझाव मत मांगीये। ये पता नही क्या कह देंगे।
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Vyang -- लो बदल दिया नाम, सारे मसले हल
खबरी -- सुना है मध्यप्रदेश सरकार ने व्यापम का नाम बदल दिया ?
गप्पी -- ये बहुत अच्छा किया। बहुत बदनामी हो रही थी। वैसे तो शैक्सपीयर ने कहा था की नाम में क्या रक्खा है। परन्तु अब समय बदल गया है। अब नाम में बहुत कुछ रक्खा है। कुछ नाम दूसरी चीजों के पर्याय हो जाते हैं। जैसे कोलगेट टूथपेस्ट का पर्याय हो गया। डालडा वनस्पति घी का पर्याय हो गया। लोग नाम किसी चीज का लेते हैं और मगज में छवि किसी दूसरी चीज की होती है। जैसे बोफोर्स का नाम आते ही घोटाला याद आने लगता था। उसी तरह व्यापम की हालत हो गयी थी। व्यापम का नाम आते ही श्मशान याद आने लगता था। रात को कोई व्यापम का जिक्र कर देता तो डर के मारे रोंगटे खड़े हो जाते थे। दहशत होने लगती थी।
नाम बदलने के पीछे सरकार की दूसरी मजबूरियां भी रही होंगी। जहां व्यापम का दफ्तर है उस सड़क से लोगों ने डर के मारे आना जाना बंद कर दिया होगा। और एक सड़क बेकार हो गयी होगी। दूसरा जब कोई नई नौकरी या दाखिला निकलता होगा तो बहुत से बच्चे डर के मारे फार्म ही नही भरते होंगे। घर में छोटी मोटी कहासुनी होने पर संतान व्यापम का फार्म भर देने की धमकी देती होगी। व्यापम का नाम आते ही पता नही किस किस का चेहरा आँखों के आगे घूम जाता होगा। मुझे तो लगता है की कर्मचारियों ने व्यापम में काम करने से इंकार कर दिया होगा परन्तु सरकार ये बात दबा गयी होगी। सो उसने इस मसले का हल निकाल दिया। उसने व्यापम का नाम बदल दिया। अब अगर कोई संसद में या बाहर व्यापम घोटाले का मामला उठाएगा तो बीजेपी और शिवराज सिंह कह सकते हैं, ' कौनसा व्यापम ? हमारे यहां तो कोई व्यापम है नही। आपके यहां है क्या। " सामने वाला चुप हो जायेगा।
दूसरा राजनीती में नाम बदलने का उतना ही महत्त्व है जितना पार्टी बदलने का। महाराष्ट्र के चुनाओं में बीजेपी ने एनसीपी का नाम बदल कर नैशनल करप्ट पार्टी रख दिया। चुनाव खत्म हो गए। कुछ सीटें कम पड़ी तो शिवसेना ने आँख दिखानी शुरू कर दी। शरद पवार ने समर्थन की पेशकश की तो मोदीजी ने एनसीपी का नाम बदल कर " नैशनल कॉपरेटिव पार्टी " कर दिया। उसी तरह जम्मू-कश्मीर के चुनाव में बीजेपी ने पीडीपी का नाम बदल कर " बाप-बेटी कश्मीर लूटो पार्टी " रख दिया। लोगों ने फिर धोखा दे दिया। बीजेपी ने पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बना ली और पीडीपी का नाम बदल कर " कश्मीर विकास पार्टी " रख दिया।
अब बिहार में चुनाव आ रहे हैं तो ना जाने कितने नए नाम सुनने को मिलेंगे। शुरुआत भी हो गयी। मोदीजी ने RJD का नाम बदल कर " रोजाना जंगलराज का डर " पार्टी रख दिया। लालूजी कहाँ कम थे उन्होंने बीजेपी का नाम बदल कर " बेशर्म और झूठी पार्टी " रख दिया। मोदीजी ने नितीश पर मांझी को हटाने को लेकर " महादलित का अपमान " करार दे दिया। बिहार के कई लोग कह रहे हैं की ये बीजेपी ही थी जिसने मांझी को कहीं का नही छोड़ा।
उसी तरह नाम ही नही वायदे और नारे भी बदल रहे हैं। लोकसभा चुनाव में मोदीजी ने नारा दिया था, " कालाधन वापिस लाओ ' वायदा किया था सबको 15 -15 लाख देंगे। सारे युवाओं को रोजगार देंगे। अब नया नारा है " 24 घंटे बिजली देंगे " नया वायदा है की बिहार के लोगों को बिहार में ही काम देंगे। मोदीजी सोच रहे होंगे ये कोई दूसरे लोग हैं और लोकसभा चुनाव में दूसरे लोग थे। भूल गए होंगे, काम का दबाव रहता है। मोदीजी कह रहे हैं की बिहार को 50000 करोड़ से ज्यादा देंगे। नितीश कह रहे हैं की दे दो कौन रोक रहा है ? मोदीजी कह रहे हैं की सही समय पर इसकी घोषणा करेंगे। लोग हंस रहे हैं की नया जुमला है।
कांग्रेस आरोप लगा रही है की सरकार हमारी योजनाओं का नाम बदल बदल कर वहीं योजनाएं लागु कर रही हैं। मैं कहता हूँ की योजनाएं ही क्यों, सरकार तो हर वह काम कर रही है जो कांग्रेस करती थी। परन्तु सरकार के मंत्री इस बात के सख्त खिलाफ हैं। राजनाथसिंह कहते हैं की हमारा कोई मंत्री आरोप लगने पर UPA सरकार की तरह इस्तीफा नही देगा। बोलो फर्क हुआ की नही। अरुण जेटली जी कहते हैं की पहले हम कहते थे की संसद को चलाने की जिम्मेदारी सरकार की होती है अब हम विपक्ष से संसद चलाने की मांग को लेकर धरना दे रहे हैं। बोलो फर्क है की नही। शुष्मा जी पहले कहती थी मंत्री के पद पर रहते निष्पक्ष जाँच सम्भव ही नही है, अब कहती हैं की बिना आरोप सिद्ध हुए इस्तीफा कैसे ? बोलो फर्क हुआ की नही
सो राजनीती में नाम, वायदे, नारे और बयान बदलने का अपना महत्त्व है।
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Friday, July 24, 2015
Vyang - शिक्षा भी अब धन्धा है।
गप्पी -- हम पिछले कई दिनों से मुनाफदेय धंधों की बात कर रहे हैं। इनमे एक धंधा है शिक्षा। वैसे तो आदिकाल से शिक्षा एक धंधा रही है। गुरुकुलों के समय भी गुरु शिक्षा देने की एवज में गुरु दक्षिणा मांगता था। और ये गुरु का विशेषाधिकार था की वो गुरु दक्षिणा में कुछ भी मांग सकता था, एकलव्य का अंगूठा भी और द्रुपद का राज्य भी। गुरुओं की इस दादागिरी से छुटकारा पाने के लिए सरकार ने इस धंधे को अपने हाथ में ले लिया। और गुरुओं से बदला लेने के लिए उनकी हालत ऐसी कर दी की उन्हें न्यूनतम वेतन के लिए धरने देने पड़ते हैं। पहले जमाने में गुरुओं ने राजकुमारों से जो अनाप-शनाप दक्षिणा मांगी थी ये उसका फल है।
उसके बाद धंधादारी और दुकानदार राज के मालिक हो गए तो उन्होंने इस धंधे की संभावनाओं को देखते हुए इसका निजीकरण कर दिया। अब सर्वत्र शिक्षा की दुकाने खुलने लगी। खोलने वाले की हैसियत के हिसाब से बिल्डिंग के चौथे माले पर स्कूल, बंद पड़ी फैक्ट्री में स्कूल, घर के दो कमरों में स्कूल से लेकर राष्ट्रपति भवन से भी बड़े बड़े स्कूल। जो स्कूल नही खोल पाये उन्होंने कोचिंग क्लासें खोल ली। लेकिन मुकाबला सरकारी स्कूलों से था जो कम फ़ीस लेकर अच्छा पढ़ा रहे थे। सरकार में बैठे दुकानदारों ने सरकारी स्कूलों का सत्यानाश करना शुरू कर दिया। जहां बिल्डिंग हैं वहां अध्यापक नही हैं, अध्यापक है वहां ब्लैकबोर्ड नही हैं। अंग्रेजी की एक कहावत है की अगर आप पड़ौसी के कुत्ते को मारना चाहते हो तो पंद्रह दिन पहले से उसे पागल कहना शुरू कर दो। उसके बाद उसे मारोगे तो कोई विरोध नही करेगा। इस कहावत को सरकार में बैठे दुकानदारों ने पूरे पब्लिक सैक्टर पर लागु कर दिया। सरकारी स्कूल कुछ घोषित रूप से और कुछ अघोषित रूप से बंद किये जाने लगे।
अब ये धंधा खूब चमक रहा है। पहले तो दाखिला देने के लिए मोटे मोटे डोनेशन मांगो। फिर ऊँची ऊँची फ़ीस लो। फ़ीस बढ़ाने का सबसे बढ़िया तरीका ये है की उसे सत्र के बीच में बढ़ा दो ताकि छात्रों और अभिभावकों के पास कोई ऑप्सन नही हो। फिर फ़ीस तो एक बहाना है असली पैसा तो दूसरी चीजों से आता है। स्कूल की बस का मनमाना किराया वसूल करो। वर्दी एक खास दुकान से खरीदने के लिए कहो जो बाजार से दुगने दाम पर मिले। किताबें ऐसी लगाओ जो किसी ने कभी देखना तो दूर सुनी भी नही हों और स्कूल से ही खरीदने का नियम बनाओ। सत्र के बीच में टूर प्रोग्राम तय करो। छुट्टियों में डान्स क्लास चलाओ। स्केटिंग से लेकर तैराकी तक जो जो चीजें आपको याद हों उन्हें एक्स्ट्रा गतिविधियों में शामिल कर लो। आजकल अभिभावकों में भी एक तबका ऐसा हो गया है जो चाहता है की उसका बच्चा सुपरमैन हो, वो आपका समर्थन करेगा। अब देखो एक स्कूल के नाम पर आपकी कितनी दुकाने चल रही हैं। स्टेशनरी की दुकान, कपड़े की दुकान, डांस सीखाने का धंधा और दूसरे दसियों धंधे।
स्कूल में पढ़े लिखे अध्यापक रखना बिलकुल जरूरी नही है। बल्कि मैं तो ये कहूँगा की अगर ट्रस्टी बारहवीं पास हैं तो अध्यापक दसवीं से ऊपर नही होने चाहियें वरना अनुशासन भंग होने का खतरा रहता है। अध्यापकों को चार हजार वेतन दीजिये और चौबीस हजार पर दस्तखत करवाइये। अध्यापक पर ये शर्त भी लगाइये की वो हजार रूपये महीने में रोज दो घंटे आपके रिश्तेदार की कोचिंग क्लास में भी पढ़ाए।
धीरे धीरे विकास करिये और दूसरे माले पर दो कमरों में चलने वाले कॉलेज को डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा दिलवाइए और शिक्षा मंत्री के रिश्तेदारों को घर बैठे डिग्री भेज दीजिये । इस तरह की डिग्रियां उन लोगों को भी दी जा सकती हैं जो अच्छा पैसा दे सकते हैं लेकिन पढ़ने जैसे फिजूल कामों के लिए उनके पास समय नही है। सरकार शिक्षा में बराबरी का बहुत ख्याल रखती है। हमारे संविधान में जो समाजवाद का शब्द है उसे सही तरीके से यहां लागु किया गया है। स्कूलों में पढ़ने वालों और यूनिवर्सिटिओ के उपकुलपति, कुलपति, चेयरमैन, डायरेक्टर और यहां तक की शिक्षा मंत्री तक एक ही बौद्धिक स्तर के रक्खे गए हैं। अगर कोई इसका विरोध करता है तो उसे वामपन्थी करार दे दो जैसे वामपंथी होना कोई गाली हो या संविधान के खिलाफ हो। इस तरह धीरे धीरे सारी सरकारी सस्थाओं को या तो पागल कुत्ता बना दीजिये या बेच दीजिये। कुछ लोग ये मांग कर रहे हैं की सारे देश में शिक्षा का स्तर समान होना चाहिए। इसलिए सरकार इस मांग का आदर करते हुए सारी शिक्षा को निजी हाथों में देने की योजना पर काम कर रही है। शिक्षा के क्षेत्र में जो सरकारी हस्तक्षेप है उसे खत्म करने के प्रयास किये जा रहे हैं। सो निजी स्कूलों को जो थोड़ा बहुत मुकाबला झेलना पड रहा है वो भी जल्दी ही खत्म हो जायेगा। इसलिए मैं तो कहता हूँ की ज्यादा सोचविचार करने की जरूरत नही है और इस धंधे में कूद पड़ो।
=============================================================================================================================================================================================================================Vyang - सबसे बढ़िया धन्धा - राजनीति
गप्पी -- कल हमने एक धन्धे के बारे में बात की। आज हम ऐसे ही दूसरे धन्धों के बारे में बात करेंगे जो कभी धन्धे नही माने जाते थे परन्तु आज के समय में भारी मुनाफा देने वाले धंधे हैं।
राजनीति --- आज के समय में राजनीति सबसे ज्यादा मुनाफा देने वाला धन्धा है। इस धन्धे की पहली खासियत ये है की वैसे तो हमारे देश में चपरासी तक की नौकरी के लिए न्यूनतम क्वालिफिकेशन निश्चित है लेकिन राजनीती के धंधे के लिए ऐसी कोई शर्त नही है। एक बिलकुल अंगुठाटेक आदमी ना केवल सांसद या विधायक हो सकता है बल्कि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री भी हो सकता है। दसवीं तक पढ़ा लिखा आदमी शिक्षा मंत्री हो सकता है और सारी जिंदगी झाड़-फूंक करने वाला विज्ञानं और तकनीकी मंत्री हो सकता है। दूसरा फायदा इस धंधे का यह है की देश की जनता ने भी अब इसे पूर्णकालिक धंधा मान लिया है सो इसे धंधे की तरह करने में कोई नैतिक रुकावट नही है। वैसे मैं माफ़ी चाहता हूँ की राजनीती के धंधेबाजों से मैं नैतिकता की बात कर रहा हूँ।
ये धंधा शुरू करने का सबसे अच्छा समय यही है। क्योंकि एक तो कुछ सालों के बाद ये धंधा बिलकुल पारिवारिक धंधा हो जाने वाला है और शायद नए लोगों को इसमें जगह नही मिले। इसलिए इसे जितना जल्दी शुरू कर लिया जाये उतना बेहतर है। दूसरा अभी बाकि दुकानों की छवि इतनी खराब है की नए दुकानदार को जमने में ज्यादा समय नही लगेगा।
इस धंधे के लिए जो चीजें जरूरी हैं उनमे एक तो आपको किसी भेड़ - भेड़िये की खाल या गिरगिट की कला आनी चाहियें। आप को अभी-अभी तुरंत कही गयी बात को तुरंत इनकार करने का अभ्यास कर लेना चाहिए। आजकल मीडिआ वीडियो रिकॉर्डिंग कर लेता है इसलिए ये कहना की मीडिया ने मेरी बात को तोड़-मरोड़कर पेश किया है थोड़ा मुश्किल हो गया है लेकिन विद्वान राजनीतिज्ञों ने अब ये कहना शुरू कर दिया है की मीडिया ने मेरी बात को सही संदर्भ में पेश नही किया है। इस तरह किसी पढ़े-लिखे आदमी को सचिव रक्खा जाये तो बेहतर रहता है। वह आपके रोज-रोज के बयानों के अलावा भाषण भी लिख देगा।
इस धंधे में सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये है की आपकी जाती या धर्म के लोगों की तादाद आपके इलाके में कितनी है। अगर वह बहुमत लायक है तब तो चिंता की कोई बात ही नही है। आप तुरंत शोर मचाना शुरू कर सकते है की इस जाती या धर्म के साथ भारी अन्याय हो रहा है और अब सबको इकट्ठे हो जाने की जरूरत है। अगर आपकी जाती या धर्म के लोगों की तादाद कम है तो भी परेशान होने की जरूरत नही है। आप अपनी जाती को किसी दूसरे और नीचे के वर्ग में रखने का आंदोलन चला सकते हैं। आजकल आरक्षण के लिए एक सीढ़ी नीचे उतरने को हर जाती तैयार बैठी है। स्वर्ण जातियां बैकवर्ड में शामिल होने, बैकवर्ड जातियां अनुसूचित जाती में शामिल होने के आंदोलन चल रहे हैं। जिस वर्ग की जातियों के हाथ का छुआ हुआ ये लोग पानी नही पीते थे अब उस में शामिल होने के लिए सारा जोर लगा हुआ है। सो इस तरह का कोई बखेड़ा खड़ा किया जा सकता है।
अगर आप इस ढांचे में भी फिट नही बैठते हैं तो दो चार सन्तों और पत्रकारों को पाल लीजिये। और खुद ही बयान देना शुरू कर दीजिये की नही ये खबर गलत है की मैं भाजपा या कांग्रेस में जा रहा हूँ। हर दूसरे दिन दल बदलने का खंडन कर दीजिये। महीने दो महीने में कोई ना कोई आपसे सम्पर्क जरूर करेगा और आपका काम हो जायेगा। उससे पहले हर हफ्ते राजधानी की यात्रा कीजिये और आसपड़ोस से लेकर पूरे मुहल्ले में बता दीजिये की भाई साब ( भाई साब मतलब कोई भी मंत्री का नाम ले दीजिये )ने बुलाया है। मंत्री का नाम केवल एक-दो बार ही लीजिये उसके बाद केवल भाई साब कहिये। राजधानी में सचिवालय जाकर कहीं बैठ जाइये और शाम को वापिस आ जाइये। वापिस आकर सबको बताइये की भाई साब ने क्या-क्या कहा। खाना ट्रेन में ही खा लीजिये और जब घर से कोई खाने के लिए बुलाने आये तो लोगों के बीच में ही कहिये की भाई साब ने इतना खिला दिया की दो दिन कुछ नही खाया जायेगा। थोड़े दिन में आप एक इलाके के नेता हो जायेंगे।
कुछ जरूरी चीजें हैं जिन्हे अच्छी तरह याद कर लीजिये।
१. राजनीती में देश का मतलब कभी भी अपने घर की चारदीवारी से बाहर नही होता।
२. राजनीती में हर कुकर्म ये कहकर किया जाता है की जनहित के लिए कर रहे हैं।
३. विपक्ष का हर नेता और हर पार्टी देशद्रोही होते हैं।
४. भृष्टाचार जैसा शब्द केवल विपक्ष के लिए इस्तेमाल होता है।
५. वायदा करने में कभी पीछे मत रहिये, चाँद को लाने और गंगा को वापिस भेजने का वायदा भी किया जा सकता है।
६. अपनी सारी विफलताओं का दोष विरोधियों के माथे मढ़िए। अगर एक बार गलती से मुंह से दो और दो पांच निकल जाये तो उसी पर अड़े रहिये।
बाकि हालात के हिसाब से कुछ दूसरे पाठ भी हैं लेकिन शुरुआत के लिए इतना काफी है।
बाकि कल -----------
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Thursday, July 23, 2015
Vyang - सबसे बढ़िया धन्धा - पर जो धन्धा नही था (भाग-१)
खबरी -- इस मंदी के दौर में कौनसा धन्धा अच्छा है ?
गप्पी -- हर आदमी यही सवाल पूछ रहा है। लेकिन मुझे कुछ ऐसे धन्धे मालूम हैं जो इस समय में बहुत लाभदायक हैं। पहले लोग कहते थे की उत्तम खेती, मध्यम व्यापार। पर अब सबसे खराब काम अगर कोई रह गया है तो वह है खेती। खेती करने वाले ज्यादातर लोग ये काम छोड़ना चाहते है पर इससे छुटकारा केवल मर कर ही मिल सकता है। वो बात अलग है की पिछले कुछ सालों में कई लाख लोग इस तरह भी ये काम छोड़ चुके हैं। परन्तु हम बात कर रहे थे मुनाफदेय धन्धों की। इनकी एक पूरी लिस्ट मेरे पास है और ये वो धन्धे हैं जिन्हे कुछ समय पहले तक धन्धा नही माना जाता था। ये तो भला हो विकास करती हुई वर्तमान व्यवस्था का की उसने पता नही कितने कामों को धंधा बना दिया और कितने धंधों को मुनाफादेय बना दिया। सो मैं आपको उनकी लिस्ट बता रहा हूँ।
धर्म --- आजकल सबसे ज्यादा मुनाफे का धंधा अगर कोई है तो वो धर्म है। इस धंधे में अपार सम्भावनाएं हैं। और इसमें चुनाव के अवसर भी दूसरे धंधों से ज्यादा हैं। अगर आप धोड़ी बहुत इन्वेस्टमेंट कर सकते है तो पॉश इलाके में कोई मन्दिर खोल कर बैठ सकते हैं। अगर आपकी जान-पहचान ज्यादा है तो आप यही मंदिर सरकारी जमीन पर भी बना सकते हैं। पहले तो सरकार और प्रशासन की ही कोई इच्छा नही होती है सरकारी जमीन से मंदिर हटाने की। अगर कोई अधर्मी अधिकारी ऐसा करने की कोशिश करता भी है तो आप लोगों को इक्क्ठा करके दंगा करवा सकते हैं। पहले से दूसरे धर्म के दो चार ऐसे स्थानों के नाम याद करके रक्खो और कहो की जब तक फलां मस्जिद नही हटाई जाती हम मन्दिर नही हटने देंगे और की सरकार दूसरे धर्म का तुष्टिकरण कर रही है। इस देश के लोग भरी बस में एक गुण्डे से किसी लड़की को बेशक ना बचायें पर मंदिर के नाम पर कट मरने को तैयार हो जायेंगे। बस धंधा हो गया सैट।
अगर आपके पास थोड़ा पैसा भी लगाने को नही है तो यू-ट्यूब पर कुछ कथावाचकों के वीडियो देख कर याद कर लीजिये। अपने नाम के आगे सन्त लिखना शुरू कर दीजिये और पहले किसी मित्र के मुहल्ले में मुफ्त में कथा कर दीजिये। कथा में ज्यादा कुछ करना नही होता। भागवत कथा का नाम लीजिये और गुरु की महिमा गाइये। आपको भगवान से क्या लेना देना है अपनी मार्किट बनाने पर ध्यान दीजिये। ये दोहा जो सारे गावं को अच्छी तरह याद है उसे हर दिन कथा में कम से कम दस बार दुहराइए। '' गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागूं पांव। बलिहारी गुरु आपणो जिन गोविन्द दियो मिलाय। " दो तीन भजन करने वाले लोगों को तनखा पर रख लीजिये जिन्हे कुल मिलाकर दस भजन याद करवा दीजिये। एक तो कथा का तीन चौथाई समय ये लोग खा जायेंगे और आपकी समस्या हल हो जाएगी। दूसरा उन्हें भी गुरु महिमा के ही भजन याद करने को कह दीजिये। वो लोग गाएंगे, " आनन्द ही आनन्द बरस रहा गुरुदेव तुम्हारे चरणो में। " और सारे भक्त भाव विभोर होकर झूमेंगे। एकाध भजन भगवान के बारे में गाना भी पड़े तो वो ऐसा होना चाहिए की भगवान की छवि ऐसी बने जैसे वो कोई लोफर और मशखरे किस्म का लगे। जैसे, " तेरा श्याम बड़ा अलबेला, मेरी मटकी को मार गया ढेला। " अगर आपमें थोड़ी सी भी बुद्धि होगी तो बड़ी जल्दी तरक्की होगी। लोगों के पैसे से बढ़िया आश्रम बनाइये और आराम से रहिये मोह माया से परे। इस धंधे की दूसरी खासियत ये है की इसे अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त है। सरकार जब किसी उद्योग का विकास करना चाहती है तो उसे टैक्स वगैरा में कुछ छूट देती है। इस धंधे को सौ प्रतिशत छूट हासिल है इसलिए आप समझ सकते हैं की सरकार इसे बढ़ाने के लिए कोई कसर नही छोड़ रही। थोड़ा पैसा हो जाये तो आप किसी धार्मिक टीवी चैनल का आधा घंटा किराये पर ले सकते हैं। एक बार आप टीवी पर आये नही की आपके भक्तों की तादाद रॉकेट गति से बढ़ती है। हालत ये हो जाती है की लोगों को ही नही, खुद आपको भी लगने लगता है की आपमें कोई अलौकिक शक्ति है।
( दूसरे धन्धे के बारे मैं कल )
Saturday, July 18, 2015
Vyang -- अथ " दामाद " कथा
गप्पी -- जम्मू के एक कार्यक्रम में प्रधानमन्त्री ने एक राष्ट्रीय समस्या की तरफ देश का ध्यान खींचा। यह समस्या है दामाद समस्या। इस समस्या का मूल भारतीय संस्कृति में बहुत गहरे तक है। कांग्रेस और मीडिया इसे राबर्ट वाड्रा से जोड़कर देखते हैं तो ये उनका समस्या का सरलीकरण करना हैं। मेरा मानना है की प्रधानमन्त्री बड़ी समस्या की तरफ देश का ध्यान आकर्षित करना चाहते थे। प्रधानमन्त्री जम्मू में कांग्रेस के स्वर्गीय नेता गिरधारीलाल डोगरा की शताब्दी के अवसर पर बोल रहे थे। और गिरधारीलाल डोगरा के दामाद अरुण जेटली उनके बाजू में बैठे हुए थे। उन्होंने भाजपा के प्रवक्ताओं को भी संदेश दे दिया की अगर भविष्य में अरुण जेटली का कोई घोटाला सामने आ जाये तो वो कह सकते हैं की आखिर हैं तो एक काँग्रेसी के ही दामाद।
छोड़िये, मुख्य समस्या पर आते है। भारतीय परम्परा में दामाद का महत्त्व बहुत अधिक होता है। उसे एक विशिष्ट दर्जा हासिल है। दामाद वो प्राणी होता है जो घर में बिना कुछ किये पूरी सुविधाओं और अतिरिक्त रोबदाब से रहता है। और ये सारे लक्षण उसमे सभी तरह की जाती और धर्म से परे पाये जाते हैं। दामाद किसी जाती का हो, किसी सामाजिक और आर्थिक श्रेणी में आता हो उसके इन लक्षणों पर कोई फर्क नही पड़ता। मेरे घर से थोड़ी दूर सड़क के नुक्क्ड़ पर एक बूट पालिस करने वाला लड़का बैठता था। उम्र कोई 30 साल होगी। आते जाते उससे दुआ सलाम और बातचीत हो जाती थी। वो मुझे कई दिन दिखाई नही दिया। कई दिन बाद जब वो दुबारा दिखाई दिया तो मैंने पूछा की इतने दिन कहां थे? तो उसने जवाब दिया, " मेरे साले की शादी थी। मैं ससुराल वालों से नाराज था सो मैंने घरवाली को अकेले भेज दिया और उसको बताया की मैं एक दो दिन बाद आऊंगा। ससुर को जब पता चला की मैं नाराजगी के कारण नही आया तो वो दूसरे चार पांच लोगों को लेकर मेरे घर आये। उन्होंने सबके बीच में मुझसे माफ़ी मांगी और पैर पकड़े, तब मैं उनके साथ ससुराल गया। मैंने भी उन्हें बता दिया की आखिर मेरी भी कोई इज्जत है। इस सारे प्रोग्राम में चार पांच दिन लग गए। "
दामाद होने का अहंकार उसके चेहरे से फूटा पड रहा था। और उसमें पूर्ण सन्तोष का भाव शामिल था। ये भरतीय दामाद का सर्वव्यापी लक्षण है।
अब फिर थोड़ी इस राष्ट्रीय समस्या की बात कर लेते हैं। हमारे देश में सरकारी अफसरों और कर्मचारियों को सरकारी दामाद कहा जाता है। क्योंकि उनमे भी वो सारे लक्षण पाये जाते हैं जो दूसरे दामादों में पाये जाते हैं। इस समस्या का कोई हल प्रधानमंत्रीजी के पास भी नही होगा क्योकि नेता भी अपने आप को सरकारी दामाद मानते हैं। अख़बार में खबर छपी थी की एक आदमी ने RTI के तहत प्रधानमंत्री के विदेशी दौरों पर हुए खर्च का हिसाब माँगा तो सरकार ने इंकार कर दिया। भला कोई दामादों के खर्चे का हिसाब देता है ? RTI करने वाले को भारतीय परम्परा की जानकारी नही होगी। अधिकारीयों के खिलाफ ना जाने कितनी शिकायतें पैंडिंग हैं पर आज तक कुछ हुआ, हो ही नही सकता, दामाद जो ठहरे।
हमारे यहां पुरातन काल से ससुर दामादों के कुकर्मो का भोग बनते रहे हैं। कंस को बचाने के लिए और बाद में उसकी मौत का बदला लेने के लिए जरासंघ सारी उम्र कृष्ण से लड़ता रहा और आखिर में ससुरगति को प्राप्त हो गया। विरोधी पक्ष को हराने के लिए भी दामादों का प्रयोग हमारे यहां बखूबी होता रहा है। देवताओं को शुक्राचार्य से मृतसंजीवनी विद्या चुराने के लिए कच को उसका दामाद बनाना पड़ा था। शुक्राचार्य के पेट के अंदर पहुंचाने से पहले उसके घर अंदर पहुंचाने का सबसे आसान और पुख्ता रास्ता दामाद ही था।
भारतीय परम्परा में ऋषि मुनि पुत्र ना होने पर अपनी सारी विद्या और खोज दामाद को ही सौंपते थे। और जिनको दामाद भी प्राप्त नही होता था वो अपनी सदियों के मेहनत और विद्या अपने साथ ही लेकर मर जाता था। बाकी शिष्य भले ही कितने ही काबिल क्यों ना हों किसी को भरोसे के काबिल नही माना जाता था।
इसलिए राजनितिक पार्टियों और मीडिया को इस समस्या के मूल पर विचार करना चाहिए और इसे कोई छोटा मोटा ताना मानकर नही छोड़ देना चाहिए। मेरा तो ये मानना है की अगर हम ये समस्या हल करने में कामयाब हो गए तो विकास और महंगाई जैसी छोटी छोटी समस्याओं को तो चुटकी में हल किया जा सकता है।
खबरी -- पर मुझे तो लगता है की प्रधानमंत्रीजी को केवल देश के दामादों को सम्भालना चाहिए। इनमे बहुत से देशी विदेशी उद्योगपति भी शामिल हो गए हैं।
Friday, July 17, 2015
Vyang -- हमारी प्रगतिशील शिक्षा व्यवस्था और छात्रों की गुंडागर्दी
गप्पी -- मुझे ये इसलिए लिखना पड रहा है क्योंकि सारे देश से छात्रों की गुण्डागर्दी के समाचार आ रहे हैं। पहला समाचार केरल से है जहां छात्र इस बात को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे की पढ़ाई शुरू होने के इतने दिन बाद भी स्कूलों में किताबें नही बांटी गयी जो सरकार को बांटनी थी। अब ये तो हद दर्जे की गुंडागर्दी है की सरकार को क्या करना चाहिए और क्या नही करना चाहिए ये भी छात्र बताएंगे। छात्रों को तो सरकार का धन्यवाद करना चाहिए की कम से कम स्कूल तो खुले हैं। अगर वो भी नही खुलते तो क्या कर लेते। जैसा की नियम है और कानून में प्रावधान है, गुंडों को सुधारने का काम पुलिस का होता है। सरकार ने संविधान के अनुसार कार्यवाही करते हुए इन गुंडा छात्रों को सुधारने का काम पुलिस को सौंप दिया। उसके बाद छात्रों की जो रक्तरंजित तस्वीरें सोशल मीडिया में छपी उन्हें देखकर मुझे विश्वास हो गया की छात्र सुधर गए होंगे।
दूसरी खबर हरियाणा से आई जहां नर्सिंग की छात्राएं कोर्स पास करने के बाद डिग्री की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रही थी। बोलो, अब लड़के तो लड़के, लड़कियां भी प्रदर्शन कर रही हैं। समाज का नैतिक स्तर कहां पहुंच गया है। हरियाणा में पहले ही बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान बड़े जोर शोर से चल रहा है। वहां #SelfieWithDaughter का अभियान भी बहुत जोर शोर से चल रहा है और पूरे देश में चर्चा में भी है। अब अगर वहां बेटियां पढ़ने के बाद डिग्री जैसी तुच्छ चीज के लिए प्रदर्शन पर उत्तर आएँगी तो ये तो साफ साफ गुंडागर्दी हुई और इससे राज्य की छवि खराब होगी। जाहिर है की पूरे देश में एक ही संविधान लागु है और आपको मालूम ही है की उसमे गुंडों को सुधारने का काम पुलिस को सौंपा गया है। सो हरियाणा की सरकार ने भी संविधान का सम्मान करते हुए ये काम पुलिस को दे दिया। बाद में वहां की छत्राओं की तस्वीरें भी बहुत उत्साहवर्धक थी की हमारी पुलिस अपना काम कितना बखूबी करती है और हम हैं की हमेशा पुलिस को कोसते रहते हैं। अब मेरी हरियाणा की उन बेटियों के माँ बाप को सलाह है की वो चाहें तो खून टपकती हुई बेटियों की selfie पोस्ट कर सकते हैं। सरकार बेटियों को बचाने और पढाने के लिए कटिबद्ध है और उसने कल ही फ़िल्मी हीरोइन परिणीति चोपड़ा को इस अभियान की ब्राण्ड अम्बेसडर बनाया है।
तीसरी खबर गुजरात से है जहां एक सरकारी सहायता प्राप्त लॉ कालेज की सीटें 300 कम करके इतनी ही सीटें प्राइवेट कालेजों को दे दी हैं। अब इस पर हल्ला हो रहा है। कोई बड़ा आंदोलन नही हो रहा क्योंकि इस तरह छोटी बातों पर आंदोलन की परम्परा गुजरात में खत्म हो गयी है। यहां आंदोलन करने के लिए दूसरे महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं जैसे सड़क के बीच में आने वाले मंदिरों और मजारों को हटाने के मुद्दे। खैर, मेरा केवल ये कहना है की गुजरात की पहचान व्यवसाय से है और अगर सरकार शिक्षा के व्यवसाय को बढ़ावा नही देगी तो गुजरात इस क्षेत्र में पिछड़ सकता है। और अगर वो इस क्षेत्र में पिछड़ गया तो गुजरात की तो पहचान ही खत्म हो जाएगी। आखिर इसी माहौल के कारण तो हमारे उद्योगपति गुजरात में निवेश करने के लिए टूट पड़ते हैं। ऐसा भी नही है की सरकार शिक्षा के गिरते स्तर से चिंतित नही है। खुद मुख्यमंत्री ने इस पर चिंता व्यक्त की है ठीक उसी तरह जैसे हमारी सरकारें महंगाई और दूसरे मुद्दों पर चिंता व्यक्त करते रहते हैं। उन्होंने गुजरात में शिक्षा का स्तर उपर उठाने के लिए प्रयास भी किये हैं. कुछ लोगों का मानना है की चार-चार हजार की फिक्स पगार पर अध्यापकों की नियुक्ति करोगे तो शिक्षा का स्तर तो गिरेगा ही। लेकिन सरकार इससे सहमत नही है। इस साल दसवीं और बारहवीं की परीक्षा में गुजरात में रिकार्ड तोड़ बच्चों को फेल कर दिया गया। सरकार का कहना है की ऐसा उसने शिक्षा का स्तर ऊँचा उठाने के लिए किया। वैसे भी जब ये बच्चे शिक्षा पूरी करके नौकरी के लिए आवेदन करते हैं तो वहां की परीक्षा में फेल हो जाते हैं। इसलिए सरकार ने केवल उन बच्चों को पास करने का फैसला किया है जो बिना स्कूलों, अध्यापकों और बिना किसी सहायता से इधर उधर से अपने खुद के प्रयासों से पढ़कर पास हो सकें। इससे भविष्य में नौकरी के लिए ली जाने वाली परीक्षाओं में उनके पास होने की सम्भावना बढ़ जाएगी। और सरकार इस के लिए लगातार प्रयास करेगी की बच्चों को स्कूलों में कम से कम पढ़ाया जाये ताकि वो अपने पैरों पर खड़े हो सकें।
इन सारी खबरों को देखने के बाद मुझे तो पूरा यकीन हो गया है की हमारी शिक्षा व्यवस्था प्रगति कर रही है। और जरूरत इस पर और ज्यादा बजट खर्च करने की नही है, बल्कि छात्रों की गुंडागर्दी रोकने की है। इसलिए सरकार को चाहिए की वो अगले बजट में शिक्षा के लिए रखे गए पैसे का एक हिस्सा पुलिस पर खर्च करने का प्रावधान भी रक्खे।
खबरी -- सरकार कर ही रही है थोड़ा तो भरोसा रक्खो।
दामाद और बेटियां
खबरी -- प्रधानमंत्री मोदी ने आज जम्मू में दामाद का जिक्र करते हुए कांग्रेस पर निशाना साधा।
गप्पी -- लगे हाथ भाजपा की बेटियों पर भी बोल देते।
Thursday, July 16, 2015
नीतिओं के अनुसार योजनाएं या योजना के अनुसार नीतियां
गप्पी -- पहले हमारे देश में एक योजना आयोग होता था। सरकार का दावा था की ये आयोग विकास के लिए योजनाएं बनाता है। इसी आयोग के अनुसार देश में विकास के काम हुए। असली काम कितना हुआ इस पर बहस हो सकती है लेकिन स्कूल के बच्चों को योजनाएं जरूर याद करनी पड़ती थी। पहली योजना, दूसरी योजना इत्यादि। ये किस साल से शुरू हुई और उनमे क्या काम हुआ। अब सरकार का कहना है की ये आयोग एकदम बेकार की चीज थी, और उसे भंग कर दिया गया। अब सरकार नीतियां बनाएगी, इसलिए नीति आयोग बना दिया।
सुबह सुबह मेरे पड़ौसी मेरे पास आकर बैठ गए और पूछने लगे की भाई ये बताओ की क्या बिना नीति के योजनाएं बन सकती हैं? जब सरकार कोई योजना बनती होगी तो उसके पीछे कोई नीति तो होती होगी या नही ? मैं इसका जवाब देने ही वाला था की उसने दूसरा सवाल पूछ लिया की भाई ये बताओ अगर तुम नीति बनाओगे और उसको लागु करने के लिए योजना नही बनाओगे तो उसका क्या फायदा होगा ? एक बार मुझे लगा की इसको मोन्टेक सिंह आहलुवालिया या अरविन्द पनगढिया के पास भेज दूँ और कह दूँ की जो लोग योजनाएं और नीतियां बनाते हैं सीधा उनसे ही क्यों नही पूछ लेते। लेकिन संबंध खराब होने के भय से मैं ऐसा नही कर पाया।
मैं बोलना शुरू करता इससे पहले ही उसने कहा की मुझे तो लगता है की हमेशा से इस देश में एक ही योजना रही है और वो है जनता को बेवकूफ बनाने की। और ये हर सरकार की साझा नीति रही है चाहे सरकार किसी भी पार्टी की क्यों ना हो। 1971 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाने की योजना बनाई लेकिन गरीबी की जगह इंदिरा जी हट गयी। बाद में जनता पार्टी ने सम्पूर्ण क्रान्ति की योजना बनाई लेकिन दो साल में पार्टी में ही क्रान्ति हो गयी। बाद में वाजपेयी जी ने देश को चमकाने की योजना बनाई लेकिन उस पर इतनी गर्द चढ़ गयी की अब वाजपेयीजी को कुछ याद नही आ रहा। अब तुम्ही बताओ की ये सब बेवकूफ बनाने की योजनाएं थी की नही ?
मैं बताना ही चाहता था की वो फिर बोले, अब ये सरकार कह रही थी की कालाधन देश में वापिस आये ये हमारी नीति है। लोगों के लिए अच्छे दिन आएं ये भी हमारी नीति है। लेकिन ये कैसे होगा इसकी कोई योजना हमारे पास नही है। हमने योजना आयोग भंग कर दिया है। और ये कब तक हो जायेगा इस पर हम पहले सोचते थे की 100 दिन में हो जायेगा लेकिन वेंकय्या नायडू जी ने हमे समझाया की नौ महीने से पहले तो बच्चा भी नही हो सकता तो हमने इसको बढ़ा कर एक साल कर दिया। बाद में प्रधानमन्त्री जी ने कहा की देश को गड्ढे से बाहर निकालने के लिये कम से कम पांच साल चाहियें तो हमने इसका समय पांच साल कर दिया। अब जब अध्यक्ष जी ने 25 साल की बात की तो पार्टी ने सोचा की ये कुछ ज्यादा नही हो जायेगा तो हमने तुरंत खण्डन कर दिया। अब हमने इसके लिए नीति तो बना ली है लेकिन योजना आयोग के अभाव में हम इसको लागु कैसे करें। अब तुम बताओ की ये बेवकूफ बनाने की नीति है या नही ?
मैंने फिर बोलने की कोशिश की लेकिन उन्होंने फिर कहना शुरू किया, अब लोगों को ऐसा लगता है की सरकार अंदर खाने हमारी जमीन लेने की योजना बना रही है। प्रधानमन्त्री कह रहे हैं की जमीन के बिना गावों में स्कूल कैसे बनेगे, लोग कहते हैं की जिन गावों में स्कूल हैं उनमे अध्यापक नही हैं इसलिए पहले स्कूलों में अध्यापक भेजो। सरकार कहती है की बजट नही है। लोग कहते हैं की नए स्कूलों में भी अध्यापक तो चाहिए ही होंगे तो सरकार कहती है की पहले स्कूल बनने दो, अध्यापकों की बाद में सोचेंगे। अब तुम ही बताओ की ये बेवकूफ बनाने की बात हुई या नही। इतना कह कर वो उठ कर चले गए।
मैं सोच रहा हूँ की वो मुझसे पूछने आये थे की बताने आये थे।
खबरी -- अगर तुम्हे लगता है की तुम इसका जवाब दे सकते हो तो अब दे दो, ये सवाल तो सारा देश पूछ रहा है।
ग्रीस बेलआउट
खबरी -- ग्रीस बेलआउट समझौते पर तुम्हारा क्या विचार है ?
गप्पी -- मैं समझता हूँ की ग्रीस के प्रधानमन्त्री सिप्रास को इस्तीफा देकर फिल्मों के लिए डायलाग लिखने चाहियें।
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Wednesday, July 15, 2015
Vyang -- नेताजी की घोटाला यात्रा, सरकार से सरकार तक
गप्पी -- हुआ यों की पुलिस ने एक कालाबाजारिये के यहां छापा मारा तो उसके यहां से जो कागज मिले उनमे नेताजी को दिए पैसों का जिक्र था। जिसमे नेताजी के हाथ की लिखी हुई एक चिट्ठी भी थी। नेताजी सरकार में वित्त मंत्री के पद पर थे सो हल्ला हो गया। चारों तरफ से इस्तीफा माँगा जाने लगा। जब दबाव बढ़ा तो सरकारी पार्टी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की और कहा,
" नेताजी का किसी गलत काम से कोई लेना देना नही है। उनका इसके साथ कोई लेनदेन नही है।"
" लेकिन उसके घर से नेताजी के हाथ का लिखा पत्र मिला है, जिसमे पैसे भेजने के लिए कहा गया है। " एक पत्रकार ने पूछा।
" पत्र मिला है ये बात सही है, लेकिन अभी ये साबित नही हुआ है की वो लिखाई नेताजी की ही है। "
" लेकिन मंत्रीजी ने खुद माना है की चिट्ठी उन्होंने लिखी थी। "
" हमे ये भी देखना चाहिए की क्या पैसों के लेनदेन की कोई रशीद भी मिली है क्या ? आदमी जरूरत में हजार लोगों से पैसे मांगता है इसका मतलब ये नही होता की पैसा लिया ही गया है। "
" जिस आदमी के यहां से चिट्ठी पकड़ी गयी है वो कह रहा है की उसने मंत्रीजी को पैसे दिए हैं। " पत्रकार ने कहा।
" तुम एक गुनहगार की बात का यकीन कर रहे हो। आखिर एक गुनहगार की बात की क्या वैल्यू है। " प्रवक्ता ने कहा।
" महोदय, जब कहीं डकैती होती है और एक डकैत पकड़ा जाता है तो बाकि डकैतों को पकड़ने के लिए पुलिस उस डकैत से ही बाकि नाम पूछती है और बाकि लोगों को पकड़ती है। " पत्रकार ने कहा।
लेकिन सरकार नही मानी। कई दिन संसद नही चली। ना काम हो रहा था ना बात खत्म हो रही थी। आखिर में मंत्रीजी ने ये कहते हुए इस्तीफा दे दिया की ," ये मेरे खिलाफ विपक्ष की साजिश है और मैं नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे रहा हूँ और मुझे देश के कानून और अदालतों पर पूरा भरोसा है। "
एक पत्रकार ने दूसरे से पूछा की ये अदालतों पर पूरा भरोसा होने की बात का क्या मतलब है, तो सीनियर पत्रकार ने उसे आहिस्ता से बताया की इसका मतलब है की अदालत उसके जीवनकाल में सुनवाई पूरी नही करेगी, उसे इसका भरोसा है।
दो-तीन साल जाँच चलती रही लेकिन पुलिस किसी निर्णय पर नही पंहुची। तब तक दूसरी पार्टी की सरकार आ गयी। सरकार ने लोगों की मांग को ध्यान में रखते हुए मामला सीबीआई को दे दिया। सीबीआई ने तुरंत छापेमारी की और बहुत से दस्तावेज बरामद होने का दावा किया। सीबीआई चार्जशीट दाखिल करने के नजदीक पहुंच गयी। तभी उस नेताजी का बयान आया की उसकी पार्टी में सब ठीक नही चल रहा है और उसके खिलाफ साजिश रची जा रही हैं। दूसरी सरकारी पार्टी ने पीछे से उससे अपनी पार्टी में शामिल होने की बात चलाई। बात आगे बढ़ी और चार्जशीट पीछे खिसक गयी। थोड़े दिन बाद नेताजी ने पार्टी बदल ली। अदालत में सीबीआई ने स्टेट्स रिपोर्ट जमा करवाई जिसमे नेताजी के खिलाफ कोई पुख्ता सबूत नही मिलने की बात कही। सरकारी पार्टी के अध्यक्ष ने सीबीआई के अधिकारी को बुलाकर कहा की इतनी जल्दबाजी करने की जरूरत नही है।
दलबदल किये नेताजी को जैसे ही सीबीआई की स्टेटस रिपोर्ट का पता चला उसने पार्टी से उपयुक्त पद की मांग की और वायदा पूरा ना करने का आरोप लगाया।
अगले दिन सीबीआई ने प्रेस कांफ्रेंस में कुछ नए तथ्य सामने आने की बात कही।
नेताजी ने कहा की मीडिया ने उनके बयान को तोड़मरोड़ कर पेश किया है और उनका नई पार्टी के साथ कोई मतभेद नही है।
सीबीआई का बयान आया की छापे के दौरान मिली चिट्ठी की लिखाई नेताजी की लिखाई से नही मिलती है और जाँच रिपोर्ट आ गयी है।
नेताजी ने फिर पार्टी को अपने वायदे की याद दिलाई और पद की मांग की।
अगले दिन सीबीआई ने अदालत में कहा की चिट्ठी को जाँच के लिए दूसरी लैब में भेजा गया है ताकि कोई शक ना रहे।
अदालत ने कहा सीबीआई पिंजरे में बंद तोता है।
सीबीआई के एक बड़े अधिकारी ने ऑफ़ दा रिकॉर्ड बातचीत में कहा की अदालत ने तोता शब्द का प्रयोग गलत किया है। उसने दलील दी की क्या तोता किसी को काट सकता है ? हम तो सरकार एक बार ऊँगली से जिसकी तरफ इशारा कर देती है उसे उधेड़ कर रख देते हैं। इसलिए अदालत को किसी दूसरे जानवर का नाम लेना चाहिए था।
इस तरह पांच साल और निकल गए। ना चार्जशीट दाखिल हुई और ना पद मिला।
मामला अभी अदालत में पेन्डिंग है और इलेक्शन के बाद चार्जशीट दाखिल होने की सम्भावना है। सीबीआई ने मामले की जाँच में तेजी लाने के लिए विशेष जांचदल गठित किया है।अगली जाँच इस बात पर निभर करेगी की कौनसी पार्टी सत्ता में आती है और नेताजी कौनसी पार्टी में रहते हैं। इसलिए इंतजार कीजिये।
खबरी -- सरकार ने कहा है की भृष्टाचार को बर्दाश्त नही किया जायेगा।
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Vyang -- बस टल गया परमाणु खतरा
गप्पी -- एकदम ताजा खबर है की ईरान ओर अमेरिका के बीच परमाणु समझौता हो गया है। अब दुनिया को घबराने की कोई जरूरत नही है। दुनिया को केवल उन परमाणु हथियारों से खतरा है जिन्हे अमेरिका अपने लिए खतरा मानता है। या फिर उन हथियारों से खतरा है जो अमेरिका द्वारा किसी देश को धमकाने के आड़े आते हैं।
इस बातचीत में अमेरिका के साथ जो दूसरे देश शामिल थे उन सब देशों के पास परमाणु हथियार हैं। लेकिन उनसे दुनिया को कोई खतरा नही है। क्योंकि ये हथियार इन्होने एक दूसरे के खिलाफ बनाये हैं, दुनिया के खिलाफ नही बनाये। और ये सब सभ्य देश हैं बाकि की दुनिया जंगली है। अगर उनके पास परमाणु हथियार होंगे तो उन्हें असुरक्षित माना जायेगा। जब भारत ने परमाणु विस्फोट किया था तब भी अमेरिका ने प्रतिबंध लगाये थे परमाणु अप्रसार का नाम लेकर। अब इस समझौते के बाद भी अमेरिका ने कहा है की इससे परमाणु प्रसार रुकेगा। यानि इन पांच महाशक्तियों के अलावा किसी को परमाणु हथियार बनाना तो छोडो, शान्तिपूर्ण कामों के लिए भी परमाणु क्षमता विकसित करना अंतर राष्ट्र्रीय अपराध है।
कुछ लोगों का कहना है की अमेरिका ने इराक, लीबिया, सीरिया और दूसरे मुल्कों में जो किया, क्या वो अपराध नही था। इन देशों के पास तो परमाणु हथियार भी नही थे।अमेरिका का कहना है की उसने इन देशों में लोकतंत्र की स्थापना कर दी है। अब वहां हर आदमी सरकार होने का दावा कर रहा है कितना विस्तृत लोकतंत्र है। इसलिए दुनिया को उसका आभार मानना चाहिए। लेकिन लोग अहसान फरामोश हो गए हैं। कुछ लोगों का तो ये भी कहना है की अमेरिका ने इन देशों में जो किया वो केवल इसीलिए कर पाया की इन देशों के पास परमाणु हथियार नही थे। इसी डर से की अमेरिका उनके साथ भी ये कर सकता है ईरान और उत्तर कोरिया जैसे देश न्यूनतम प्रतिरोध के लिए परमाणु हथियार बनाना चाहते हैं।
लेकिन अमेरिका अपने हथियारों को दुनिया के लिए सुरक्षित मानता है। इसके बावजूद मानता है की वो अकेला ऐसा देश है जिसने परमाणु हथियारों का प्रयोग किया है। उसने हिरोशिमा और नागाशाकी पर परमाणु हमला किया था तब जापान के पास परमाणु हथियार नही थे। अगर होते तो क्या अमेरिका ये हमला कर सकता था ? अगर रूस के पास परमाणु हथियार नही होते तो क्या अमेरिका अब तक उसका वजूद रहने देता।
लेकिन छोडो इन बातों को, अब जब अमेरिका कह रहा है की अब दुनिया को उसके अलावा और किसी से खतरा नही है तो दुनिया को मान लेना चाहिए। लेकिन लोग कह रहे हैं की दुनिया को तो हमेशा उससे ही खतरा रहा है, बाकि तो किसी से था ही नही। आप ऐसा मत सोचिये की अमेरिका से खतरा केवल उसके दुश्मनों को ही है। अगर आप ऐसा सोचते हैं तो आप अमेरिका पर पक्षपात का इल्जाम लगा रहे हैं। आप पाकिस्तान को देख लीजिये। पिछले दस सालों में अमेरिकी ड्रोन हमलों में वहां के 85000 लोग मारे जा चुके हैं। वो तो अमेरिका का मित्र देश है। क्या आप अब भी अमेरिका की तठस्थता पर शक करते हैं। अब हम अमेरिका के मित्र बनने की तरफ बढ़ रहे हैं तो निकट भविष्य में हमे भी अमेरिकी पक्षपात विहीन नीति का उदाहरण मिल सकता है।
एक बात है जो मुझे समझ नही आ रही है की दुनिया को खतरा उन परमाणु हथियारों से है जो मौजूद हैं या उनसे है जो अभी बने नही हैं। अगर परमाणु हथियारों को ये इतना ही बड़ा खतरा मानते हैं तो ये उन्हें खत्म क्यों नही कर देते। ईरान से बातचीत में जाते वक्त अगर ये रास्ते में अपने परमाणु हथियारों को भी खत्म करने की बात कर लेते तो दुनिया में किसी दूसरे देश को इन हथियारों की जरूरत ही नही पड़ती।
खबरी -- पुरानी कहावत है की पर उपदेश कुशल बहुतेरे।
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Monday, July 13, 2015
Vyang -- अब पुलिस को सुरक्षा की जरूरत है
गप्पी -- ताजा खबर आई है की उत्तरप्रदेश के एक IG रैंक के पुलिस अधिकारी ने केंद्रीय गृह मंत्रालय में जाकर अपने लिए सुरक्षा की मांग की है। ये तो हद हो गयी। अगर पुलिस अधिकारी को खुद डर लग रहा है तो लोग किसके पास जाकर सुरक्षा की मांग करें। और ये अधिकारी कोई छोटे मोटे अधिकारी नही हैं।
इससे एक बात का पता चलता है की पुलिस किसी को सुरक्षा नही दे सकती। जब तक इन अधिकारी का झगड़ा वहां के एक बड़े राजनीतिज्ञ से नही हुआ था उस समय ये क्या कहते होंगे। जब कोई आम आदमी इनके पास सुरक्षा मांगने आता होगा तो ये कहते होंगे की लोकल पुलिस सक्षम है उसे सुरक्षा देने में। किसी किसी को किसी नेता की तरफ से धमकी मिलने का मामला भी आता होगा। तब ये उस आदमी से क्या कहते होंगे? मैं अनुमान नही लगा पा रहा हूँ। जैसे कानून अपना काम करेगा, या की तुम्हारे पास कोई पुख्ता सबूत है नेताजी के खिलाफ या की जाओ और रिपोर्ट दर्ज करवाओ। शायद इसी तरह का कोई जवाब देतें होंगे। लेकिन आज एक ही दिन में पूरे सूबे की उस पुलिस से उनका विश्वास उठ गया जिसके वो IG हैं। मैं उस आदमी के बारे में सोच रहा हूँ जो इस पुलिस के पास सुरक्षा मांगने जाता है क्या वो ठीक करता है या उसे भी केंद्र के पास जाना चाहिए।
मुझे नही मालूम की मामले की सच्चाई क्या है। उत्तरप्रदेश के राज्यपाल महोदय का बयान है की ये एक पॉलिटिकल मामला है। बहुत लोगों को ऐसा ही लगता है की ये पॉलिटिकल मामला है। शायद अधिकारी राजनीती में जाने की सोच रहे हों। या किसी ने उन्हें टिकट की ऑफर की हो। अगर ऐसा है तो भी कोई गुनाह नही है। अगर सचमुच में उन्हें और उनके परिवार को खतरा है तो ये थोड़ा गंभीर बात है। उन्हें ये भी बताना चाहिए की क्या पुलिस वाकई आम आदमी को सुरक्षा देने की स्थिति में है। उनके पूरे कैरियर में क्या कभी उन्हें महसूस हुआ की आम आदमी केवल भगवान भरोसे है। और अगर उन्हें केंद्र से सुरक्षा मिल भी जाती है तो भी प्रदेश के बाकि लोगों का क्या होगा। उन्हें सुरक्षा कौन देगा ?
इन अधिकारी महोदय को ये भी बताना चाहिए की कैसे पुलिस किसी नेता के एक फोन पर किसी शरीफ आदमी को थाने में नंगा करके पीट सकती है। और कैसे और किन नियमो के अनुसार हमारे देश की पुलिस काम करती है। मैं ये इसलिए कह रहा हूँ की जब उन्होंने ये खुलासा कर ही दिया है की पुलिस नेताओं के इशारे पर काम करती है तो बाकि चीजें भी साफ कर देनी चाहियें। आखिर उनका काफी लम्बा अनुभव रहा है।
एक और जो आरोप इन महोदय ने लगाया है वो ये है की उत्तरप्रदेश की पुलिस ने उनके खिलाफ बलात्कार का झूठा मुकदमा दर्ज कर लिया है। ये भी एक खुलासा ही है की पुलिस झूठे केस दर्ज करती है। वैसे लोगों को तो इस बात का बहुत पहले से मालूम है परन्तु एक पुलिस अधिकारी का ये मानना मायने रखता है। उनके कार्यकाल के दौरान ऐसे कितने किस्से हुए होंगे उनका भी खुलासा उन्हें लगे हाथ कर देना चाहिए।
उन्हें इस मामले में लोगों की सहानुभूति जरूर मिलेगी। क्योंकि हमारे यहां रिवाज है की जब दो गाड़ियों की टककर होती है तो हमेशा बड़ी गाड़ी का दोष माना जाता है। और जब मामला किसी नेता का हो तब तो किसी छानबीन की जरूरत ही नही समझी जाती। हमारे देश के नेताओं ने इतने दिन में अपनी सेवाओं से यही तो प्राप्त किया है। उनकी छवि ही उनकी उपलब्धि है। और ये छवि उन्होंने खुद बनाई है इसके लिए वो किसी दूसरे को दोष नही दे सकते, ठीक उसी तरह जैसे पुलिस की छवि खुद पुलिस की बनाई हुई है।
इसलिए मैं ये चाहता हूँ की मामले का कोई ठोस हल निकले और सारे तथ्य और पुलिस और नेताओं की कार्यप्रणाली लोगों के सामने आये, जो की कभी नही होगा। आखिर आम आदमी को इतनी खास सुविधा कैसे दी जा सकती है। आम आदमी इस देश में हमेशा से असुरक्षित था और हमेशा रहेगा। उसे ना राज्य से सुरक्षा मिल सकती है और ना केंद्र से।
खबरी -- पुलिस राज को माफ़ करो, अपनी रक्षा आप करो।( आम आदमी के लिए )
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Sunday, July 12, 2015
Vyang -- गंगा की गन्दगी और व्यापम घोटाला
गप्पी -- गंगा को हमारे देश की सबसे पवित्र नदी माना जाता है। इसको पाप-विमोचनी, मोक्ष-दायिनी कहा गया है। मुझे लगता है की यही प्रशंसा उसे भारी पड़ी है। देश में जितने भी पाप करने वाले लोग हैं वे एक अंतराल के बाद गंगा में पाप धोने जाते है। अपने सभी पूर्वजों को मोक्ष दिलाने के लिए भी सारा देश अस्थियां लेकर गंगा में विसर्जित करने जाता है। और गंगा का ये हाल हो गया की उसको साफ करने का स्पेशल प्रोग्राम चलना पड रहा है। और गंगा है की साफ होने का नाम ही नही लेती। हजारों करोड़ रूपये खर्च हो गए और आगे होने वाले हैं लेकिन परिणाम नही आ रहा।
दूसरा सवाल ये है की जब गंगा को हम इतना पवित्र मानते हैं तो उसे गन्दा क्यों करते हैं। इसका जवाब हमारी परम्परा में है। हम अपनी सारी पवित्र चीजों को गन्दा करते हैं फिर चाहे वो नदी हो ,पहाड़ हों, तीर्थस्थान हों , पार्क हों, शैक्षणिक और सांस्कृतिक संस्थाएं हों। गंदगी हमारी सांस्कृतिक धरोहर है सो इसे हम कैसे छोड़ सकते हैं। जब तक हमारे आसपास गन्दगी ना हो हमे अजीब अजीब लगता है। हमे लगता है की हम दूसरे देश में हैं। घर जैसा महसूस ही नही होता। इसलिए हम पहला काम गन्दगी फ़ैलाने का ही करते हैं।
इसलिए हमे केवल गंगा को साफ करने का अभियान नही चलाना पड़ता बल्कि सारे देश में स्वच्छता अभियान चलाना पड़ता है। अगर हम ये देखें की गंगा में गन्दगी फ़ैलाने वाले लोगों में कौन कौन शामिल हैं तो मालूम पड़ेगा की पाप धोने वाले लोगों के अलावा और भी बहुत से लोग हैं जो ये काम करते हैं। इनमे गंगा के किनारे बसे हुए शहरों की म्युनिसिपल कमेटियां भी शामिल हैं जो सारे शहर की गन्दगी गंगा में डाल देती हैं। इसके अलावा वो सारे उद्योग जो गंगा के किनारे स्थित हैं अपनी गन्दगी गंगा में डाल देते हैं। सोचते होंगे इससे गंदगी के निकाल के साथ पाप भी धुल जायेंगे।
दूसरी तरफ हमारी सरकार है जो शहरों और उद्योगों की गन्दगी की उपयुक्त सफाई का प्रबन्ध करने की बजाए केवल प्रतिबंध लगाने में विश्वास रखती है। आज ये चीज गंगा में डालने पर प्रतिबंध लगा दिया, कल दूसरी चीज गंगा में डालने पर। अब सवाल ये है की वो इस गंदगी को लेकर कहां जाएँ। जब तक वैकल्पिक व्यवस्था नही होगी तब तक या तो वो गन्दगी घुमाफिरा कर गंगा में गिरेगी या फिर वो उद्योग बंद हो जायेंगे। लेकिन सरकारों को इन चीजों से कभी सरोकार ही नही रहा। उसको केवल एक काम ही करना आता है और वो हैं प्रतिबंध लगाना। सरकार ने गंदगी से लेकर कालेधन तक, और रेप से लेकर टैक्स चोरी तक, हर चीज पर प्रतिबन्ध लगा दिया है।
अब एक दूसरी समस्या खड़ी हो गयी है। मध्यप्रदेश के एक बीजेपी नेता ने कहा है की मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान उतने ही पवित्र हैं जितनी गंगा है। मुझे अब तक समझ में नही आया की ये बयान शिवराज सिंह के समर्थन में है की विरोध में। कुछ लोग कह रहे हैं की समर्थन में है और इसमें वो गंगा की आध्यत्मिक पवित्रता की बात कर रहे हैं। दूसरा पक्ष कहता है की विरोध में है क्योंकि मंत्री को मालूम है की गंगा ही सबसे प्रदूषित नदी है। और व्यापम की गंदगी कोई गंगा में गिरने वाली गंदगी से कम थोड़े ना है, बल्कि उससे ज्यादा ही व्यापक है। और की मंत्री ने ये बयान इस संभावना को ध्यान में रखकर दिया है की व्यापम की सफाई में भी उतना ही समय लगने वाला है जितना गंगा की सफाई में लगने वाला है। अब वाराणसी और इलाहबाद से चुनाव लड़ने वाले भाजपा के नेता मुरली मनोहर जोशी तो कहते हैं की जिस तरह सरकार गंगा की सफाई कर रही है उससे तो गंगा सौ साल में भी साफ नही हो सकती। उसी तरह मध्यप्रदेश के कुछ लोग कह रहे हैं की जिस तरह से व्यापम की जाँच हो रही है उस हिसाब से तो ये सौ साल में भी पूरी नही हो सकती। गजब का साम्य है दोनों में। दूसरी जो बात उन्होंने कही की बीजेपी को व्यापम घोटाले का कोई अफ़सोस नही है। ये बात कहने की कोई जरूरत नही थी। देश की जनता ये बात पहले से ही जानती है की सरकारों को घोटालों के अफ़सोस कभी नही रहे। आप कांग्रेस से पूछ लीजिये की क्या उसे 2G या कोयला घोटाले का कोई अफ़सोस है तो कहेगी बिलकुल नही। आप तृणमूल कांग्रेस से पूछ लीजिये की क्या उसे श्रद्धा चिट फण्ड घोटाले का कोई अफ़सोस है तो कहेगी की अफ़सोस किस बात का, बल्कि हमे तो गर्व है।
मेरे पड़ौसी को इस बात पर बहुत एतराज है की अब नेताओं की गन्दगी भी गंगा में डाली जा रही है। उनका कहना है की इससे तो गंगा की सफाई की रही सही सम्भावना भी खत्म हो जाएगी। उसका कहना है की कम से कम गंगा को तो राजनीति से दूर रक्खो , क्योंकि गंगा की स्वीकार्यता सभी धर्मों से परे है। हर धर्म और सम्प्रदाय के लोग गंगा को जीवन दायिनी मानते हैं। इसका एक उदाहरण मैं नीचे दे रहा हूँ जिसमे गंगा के किनारे रहने वाला एक मुसलमान शायर गंगा को सम्बोधित करते हुए कहता है ,
बहुत नमाजें पढ़ी हैं हमने,
अ गंगा तेरे पानी में वजू करके।
खबरी -- शायद हमारा यही सामूहिक जज्बा ही गंगा को बचा ले जाये।
Vyang -- ज्योतिष के लिए अध्यादेश लाओ
गप्पी -- हमारे देश में आजकल विज्ञानं का बहुत बोलबाला है। आपको ये जानकर बहुत ख़ुशी होगी की हमारे यहां सबसे बड़ा विज्ञानं ज्योतिष को माना जाता है। और ज्योतिष में भी जो हिस्सा खगोल शास्त्र से संबंध रखता है और जिसमे ग्रहों की आकाश में स्थिति और गति की गणना की जाती है उसे नही, बल्कि उस ज्योतिष को माना जाता है जो आदमी और राशि अनुसार फल बताता है। कोई भी ज्योतिषी अपने को आइंस्टीन से दो दर्जे ऊपर समझता है। बाकि के विज्ञानों की हालत तो यह है की भौतिकी का विद्यार्थी ज्योतिषी से ज्यादा नंबर लाने का उपाय पूछता है। कुछ लोग इसे गलती से अंध विश्वास कहते हैं जबकि यह अन्धविश्वास नही है बल्कि पूर्ण विश्वास है। मशीन के सही संचालन के लिए सर्विस के शैड्यूल की जगह प्रशाद का शैड्यूल बनाया जाता है। कुछ लोग इसे नशा भी कहते हैं। लोग इसके आदी हो जाते हैं।सुबह अख़बार में सबसे पहले राशिफल देखते हैं बाद में मुख्य खबरें पढ़ते हैं। अगर अख़बार के राशिफल में उस दिन कोई बुरी खबर मिलने का योग लिखा हो तो बाकि का अख़बार नही पढ़ते। कोई कोई मजबूत दिल के लोग भी होते हैं जो उस दिन कोई बुरी खबर मिलने का योग लिखा हो तो पहले श्रद्धांजलि वाला पेज पढ़ लेते हैं और अपने उन सभी रिश्तेदारों की फोटो चेहरा याद कर करके ढूंढते हैं जिनके टपकने का उन्हें अंदेशा होता है।
नशे पर मुझे याद आया की एक मशहूर ज्योतिषी हैं हमारे देश में। जिनके ग्राहकों में बड़े बड़े फ़िल्मी सितारे और राजनीतिज्ञ हैं। उनका नाम है बेजान दारूवाला। ज्योतिष भी नशा ही होता है ये इनके नाम से ही पता चल जाता है। इनके पुरखे कभी दारू का धंधा करते होंगे, ये भी धंधा तो नशे का ही करते है लेकिन उत्पाद बदल लिया है। इनका नशा धड़ल्ले से बिकता है और इतनी ऊँची कीमत पर बिकता है की आम आदमी तो उसका एक पैग नही खरीद सकता। लेकिन मुझे एक बात नही समझ में आई, की ये अपनी दारू को बेजान क्यों कहते हैं। लोग तो इनकी दारू को बहुत जानदार मानते हैं। किसी किसी को तो एक बार पी हुई महीनो नही उतरती। लेकिन ये उसे बेजान कहते हैं। हो सकता है अपनी चीज की क्वालिटी ये ज्यादा बेहतर जानते हों। इनका दारू बेचने का तरीका भी गजब का है। सामान खुद बेचते हैं और नाम गणेश जी का लेते हैं। कुछ भी कहेंगे लेकिन गणेश जी कहते हैं ये जोड़कर कहेंगे। अपनी जिम्मेदारी भी खत्म और सामने वाले पर बोझ भी पड जाये। अब कोई ये तो कह नही सकता की गणेश जी ने गलत कहा था। अपना नाम ही नही लेते।
ज्योतिष को हमारे जीवन में इतने गहरे तक घुसा दिया गया है की उसके निकले मुहूर्त के बिना कोई काम नही हो सकता। हमारे एक पड़ौसी परेशान थे की उन्हें लड़की की शादी दिल्ली से जाकर मुंबई करनी पड रही थी। कारण था उस दिन दिल्ली में उनके बजट के हिसाब से कोई जगह नही मिल रही थी। मैंने कहा की दो-चार दिन बाद कर लो तो बोले मुहूर्त नही है। सारा देश उन दस दिनों में शादी करना चाहता है जिनमे मुहूर्त बताया गया होता है। उस दिन शादी के लिए न जगह मिलती है न खाना बनाने वाला , न बैंड बाजा। बाकि सारा साल सब कुछ खाली रहता है। अब तो ज्योतिषियों की हिम्मत इतनी हो गयी है की बच्चा पैदा होते ही कह देते हैं की सही समय पर नही हुआ। माँ बाप पर भारी रहेगा। उपाय में लाख रूपये का खर्चा बता देते हैं। डाक्टर कह रहा है की बच्चा सही समय पर हुआ है और कोई समस्या नही है लेकिन माँ बाप मानने को तैयार नही हैं। वो एकबार भगवान की मूर्ति की तरफ नाराजगी से देखते हैं की तुम भी कैसे कैसे काम करते हो, कम से कम सही समय का तो ध्यान रक्खा होता। तुम्हे नही मालूम था तो किसी ज्योतिषी से पूछ लेते। हमारे सिर ये फालतू की समस्या डालने की क्या जरूरत थी। गलती तुम करते हो और भुगतनी हमे पड़ेगी।
इस धंधे के बाकि व्यापारी भी छाती थोक कर धन्धा करते हैं। अख़बारों के विज्ञापन पढ़ लीजिये। " सब जगह से निराश , 101 % गारण्टी के साथ काम करवाएं। मेरा किया कोई काट नही सकता। बाबा मूसा बंगाली -- महाकाली उपासक " इतनी गारंटी तो कोलगेट भी नही देती। मैं कहता हूँ की इन पर सर्विस टैक्स क्यों नही लागु किया जाता। वरना सरकार को बैठे बिठाये बड़ी आमदनी का जरिया हो जाता।
लेकिन कई बार ऐसा भी होता है की ज्योतिषी मुहूर्त देख कर पुल का उद्धघाट्न तय करता है। नेताजी नारियल फोड़ कर घर नही पहुँचते और पुल गिर जाता है। लड़का लड़की दोनों के माँ बाप अच्छी तरह शुभ मुहूर्त देखकर शादी करते हैं और छह महीने में नौबत तलाक की आ जाती है। जिस बच्चे को वो बिलकुल सही समय और योग के अनुसार पैदा हुआ बताते हैं वही ऐसे ऐसे कुकर्म करता है की माँ बाप को मुंह छिपाना मुश्किल हो जाता है। पर इसकी जिम्मेदारी लेने को कोई तैयार नही है। ज्योतिषी फ़ीस लेकर भविष्य बताता है और मुसीबत का उपाय करता है लेकिन परिणाम उल्टा निकलता है। कानून के हिसाब से तो यह ग्राहक सुरक्षा अदालत का मामला बनता है। सरकार को चाहिए की वो ज्योतिष को व्यापार घोषित कर दे ताकि लोग अदालत जा सकें।
पिछले दिनों ये खबर आई थी की कुछ विश्वविधालय ज्योतिष का डिग्री प्रोग्राम शुरू कर रहे हैं। मैं कहता हूँ की देश धन्य हो जायेगा। एक तो इससे विज्ञानं के क्षेत्र में हमारी स्थिति सुधरेगी और हम योग दिवस की तरह ज्योतिष के नोबल पुरुस्कार की मांग कर सकते हैं। इससे कम से कम एक नोबल पुरुस्कार हर साल हमारे लिए पक्का हो जायेगा। दूसरा सरकार के सभी सरकारी विभाग एक स्थाई ज्योतिषी रख सकेंगे जो यह बता सकेगा की किस इमारत का फीता कौनसे मंत्री से कटवाना शुभ रहेगा। सरकार तय कर सकेगी की कौनसी सड़क किस मुहूर्त में शुरू की जाये। जिस दिन राहुकाल हो उस दिन दफ्तर में छुट्टी रक्खी जा सकती है। दफ्तर खुलने का समय बाकायदा चौघड़िया देखकर तय किया जा सकता है। साथ ही संविधान में जो साइंटिफिक टेम्परामेन्ट को बढ़ावा देने जैसी उल-जलूल बातें लिखी गयी हैं उन्हें घोषित रूप से खत्म किया जा सकेगा और उसके लिए सरकार को इतने लचर बहाने बनाने की जरूरत नही पड़ेगी जैसे वो अब बना रही है। इसलिए विश्व महत्त्व के इस काम पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है और संसद के मानसून सत्र में इसके लिए प्रस्ताव लाया जा सकता है। बल्कि मैं तो कहता हूँ की उतना इंतजार करने की भी जरूरत नही है, इसके लिए एक अध्यादेश लाया जा सकता है। वैसे भी सरकार इस महीने कोई अध्यादेश नही लाई है और उसकी छवि खराब हो रही है।
खबरी -- उम्मीद रखनी चाहिए की सरकार अच्छा सा मुहूर्त देखकर अध्यादेश जरूर लाएगी।
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Friday, July 10, 2015
Vyang-- नवाज शरीफ से क्यों मिले मोदी ?
खबरी -- क्या तुम बता सकते हो की नवाज शरीफ से क्या बात हुई ?
गुप्पी -- हमारे मुहल्ले में एक सरकारी प्रवक्ता रहता है। वैसे तो उसकी किराने की दुकान है परन्तु वो मुहल्ले में सरकार की तरफ से बयान देता रहता है। मैंने उससे पूछ लिया की भाई साब आज प्रधानमंत्री जी नवाज शरीफ से क्यों मिले।
प्रवक्ता -- देखिये वैसे तो ये खुद प्रधानमंत्री भी नही बता सकते की वो क्यों नवाज शरीफ से मिलते हैं और क्यों एकाएक बातचीत बंद कर देते है। फिर भी जहां तक मुझे मालूम है सरकार ये समझती है की दोनों पड़ौसी मुल्कों में आपस में बातचीत होनी चाहिए। आखिर द्विपक्षीय मसलों को हल करने का और क्या तरीका हो सकता है।
Q- लेकिन फिर आपने बातचीत बंद क्यों की थी ? मैंने पूछा।
प्रवक्ता -- देखिये सरकार का मानना है की सीमा पर गोली और बातचीत दोनों एकसाथ नही चल सकती। पाकिस्तान को बातचीत का माहौल बनाना होगा। तभी बातचीत सम्भव है।
Q- क्या अब गोलीबारी बंद हो गयी ? जब प्रधानमंत्री बातचीत कर रहे थे ठीक उसी समय BSF का एक जवान सीमा पर मारा गया। मैंने कहा।
प्रवक्ता -- अब सीमा पर गोलीबारी कैसे बंद हो उसके लिए भी तो बातचीत करनी पड़ेगी। अब दोनों कमाण्डरों की मीटिंग होगी जिसमे गोलीबारी बंद करने के तरीकों पर बातचीत होगी।
Q- लेकिन पिछली बार आपने ये कहकर बातचीत बंद की थी की पहले पाकिस्तान को 26 / 11 पर ठोस कार्यवाही करनी होगी। मैंने पूछा।
प्रवक्ता -- एकदम सही बात है। हाफिज सईद पाकिस्तान में खुला घूमता रहे और हम बातचीत करते रहें ये कब तक चलेगा। ये पिछली सरकार की तरह कमजोर सरकार नही है।
Q- तो अब तो हाफिज सईद को जेल में डाल दिया होगा ?
प्रवक्ता -- इस पर भी बातचीत हुई है। और ये फैसला लिया गया है की दोनों देश बातचीत करके ये तय करेंगे की किस तरह की कार्यवाही हो सकती है।
Q- लेकिन सरकार ने कहा था की जब तक लखवी को जेल नही भेजा जाता और पाकिस्तान कश्मीरी अलगाववादियों से बातचीत बंद नही करता उसके साथ कोई बातचीत नही हो सकती।
प्रवक्ता -- अब पाकिस्तान अगर कश्मीरी अलगाववादियों से बातचीत करेगा तो हमारा उससे बात करने का क्या मतलब रह जायेगा ? कश्मीरी अलगाववादियों से बातचीत करने का हक केवल हमारा है। उन्हें सारी सुविधाएँ और सुरक्षा हमने दी हैं और बातचीत पाकिस्तान करता है ये कोई बात हुई ?
Q- तो अब पाकिस्तान ने कह दिया होगा की अब वो उनसे बातचीत नही करेगा।
प्रवक्ता -- ये भी तय हुआ है की दोनों पक्ष किन किन मुद्दों पर बातचीत करेंगे। जहां तक हमारा सवाल है हमने कह दिया है की कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है और उस पर कोई बातचीत नही हो सकती। अब ये तय हुआ है की कश्मीर पर क्या बात हो ये तय करने के लिए बातचीत होगी। हमारे प्रधानमंत्री ने आतंकवाद पर बड़ी सख्ती से बात की और कहा की आतंकवाद बंद किये बगैर कोई बातचीत नही हो सकती।
Q- लेकिन खबर तो यह है की बातचीत का न्योता भारत ने दिया था।
प्रवक्ता -- देखिये दोनों पड़ौसी देश हैं। हम अपने पड़ौसी बदल तो नही सकते। इसलिए दोनों देशों के लोग आपस में मिलते रहें तो संबन्ध सुधारने में मदद मिलती है।
Q- लेकिन ये तो पिछली सरकारें कर ही रही थी। तब तो आपकी पार्टी इस तरह चिल्ला रही थी जैसे बातचीत बंद करना ही सबसे बड़ी देशभक्ति हो।
देखिये वो कमजोर सरकारें थी। वो पाकिस्तान को ज्यादा रियायतें दे सकती थी इसलिए हम बातचीत का विरोध कर रहे थे। वो पाकिस्तान के नेताओं को यहां बिरयानी खिला रहे थे। अब एक मजबूत सरकार है और अब हम जायेंगे वहां बिरयानी खाने।
मेरे सिर में दर्द होने लगा था। इतनी देर की बातचीत में अगर आपको इस मामले पर सरकार की कोई नीति समझ में आई हो तो कृपया मुझे भी बताना।
Thursday, July 9, 2015
Vyang-- ग्रीस, हम और लोकतन्त्र
खबरी -- क्या ग्रीस के संकट का हम पर कोई असर होगा।
गप्पी -- सरकार कह रही है की नही होगा। बड़े बड़े अर्थशास्त्री कह रहे हैं की नही होगा। लेकिन मैं चाहता हूँ की असर हो और भारी असर हो। ठहरिये , मुझे देशद्रोही की संज्ञा देने से पहले मेरी पूरी बात सुन लीजिये। इस तरह का उतावलापन जो हम हर बात में दिखाते हैं अच्छा नही होता।
ग्रीस के लोगों और सरकार का कहना है की वहां का जनमत संग्रह लोकतन्त्र की लड़ाई है। अब हमारे यहां के लोगों को ये ही समझ नही आ रहा है की ये कर्जे की लड़ाई है और इसका लोकतन्त्र से क्या लेना देना है। पहले हम ग्रीस के लोगों की पूरी बात सुन लेते हैं। उनका कहना है की हम जब भी यूरोपियन यूनियन, IMF या वर्ल्ड बैंक से कर्जा लेते हैं वो हम पर शर्तें लगाता है की लौगों के वेतन में कटौती करो। पेंशन में कटौती करो। शिक्षा और स्वास्थ्य पर किये जाने वाले खर्चों में कटौती करो और वो टैक्स बढ़ाओ जो सीधे लोगों पर असर करते हैं जैसे सेल्स टैक्स। हमने ये सब किया। लोगों की खर्च करने की ताकत कम हो गयी। लोगों ने पेट पर पट्टी बांध ली। कारखानों का माल बिकना कम हो गया। उन्होंने कर्मचारियों की छंटनी की। बेरोजगारी और बढ़ गयी और स्थिति और खराब हो गयी। अब उनके अर्थशास्त्री चिल्ला रहे हैं की तुम्हारा उत्पादन क्यों नही बढ़ रहा है। हम कहते हैं की हमने तो वही किया है जो आपने करने को कहा था। अब इसका परिणाम खराब निकला, जो की निकलना ही था तो उसकी जिम्मेदारी तुम लो। वो कह रहे हैं की नही, रास्ता हम बताएंगे और जिम्मेदारी तुम्हारी होगी। अब पुराना कर्जा चुकाने के लिए नया कर्जा लो और बाकि चीजों में और कटौती करो। सारी चीजें जो सरकार की है चाहे हस्पताल हों, स्कूल हो या कारखाने हों सबको प्राइवेट को बेच दो। हम कह रहे हैं की वो तो आपके कहने पर हम पहले ही बेच चुके हैं। यहां तक की पानी तक का निजीकरण कर चुके हैं। अब उन्होंने हमारे सामने दो रास्ते छोड़े, या तो हम उनके करार पर दस्तखत करके भूखे मरें या बिना करार किये भूखे मरें।
ये स्थिति थी जिसमे हमने कहा की हम भूखे मरने वाले करार पर दस्तखत नही करेंगे। देश हमारा है, तो इसका फैसला हमे लेने दो की कर्ज के पैसे का उपयोग हम कैसे करें। अगर हम ये फैसला नही कर सकते की हमे स्कूल और हस्पताल सरकारी रखने हैं या प्राइवेट, हमे अपने लोगों को उतनी पेंशन तो देनी पड़ेगी की वो जिन्दा रह सकें ये तय नही कर सकते तो काहे का लोकतंत्र। हम सारी नीतियां तुम्हारे कहने से बनायेगे तो हमारे लोकतंत्र का क्या मतलब रह जायेगा। इसलिए हम कह रहे हैं की ये लोकतंत्र की लड़ाई है।
अब हम अपनी बात करते हैं। हमारे यहां दो तरह का लोकतंत्र है एक पार्टीतंत्र और दूसरा भीड़तंत्र। कुछ लोग केवल वो करते हैं जो पार्टी या पार्टी का कोई नेता कहता है। वो कहता है की अपने गाल पर थप्पड़ मारो तो हम पहले तो अपने गाल पर थप्पड़ मारते हैं और फिर ताली बजाते हैं नेता जी के सम्मान में। दूसरे लोग वो करते हैं जो भीड़ कहती है। भीड़ किसी शरीफ आदमी की तरफ ऊँगली करके चिल्ला देती है चोर,चोर। और हम उसे मारकर उसकी सेल्फ़ी फेसबुक पर डाल देते हैं जिस पर हमारे वो मित्र जो मारने में शामिल नही हो पाये थे, धड़ाधड़ लाइक करते हैं।
अब हम ग्रीस संकट के हम पर असर की बात करते हैं। ग्रीस से कहा गया की पब्लिक सैक्टर को बेच दो, हमने तो बिना कहे की सेल लगा रक्खी है। ग्रीस को कहा गया की शिक्षा पर कम खर्च करो, हमने तो पहले ही शिक्षा के बजट में कटौती कर दी है। ग्रीस को कहा गया की स्वास्थ्य सेवाओं को प्राइवेट के भरोसे छोड़ दो। हमने हालाँकि उसे पहले ही प्राइवेट के भरोसे छोड़ा हुआ था, लेकिन हमने फिर भी स्वास्थ्य के बजट में और कटौती कर दी। और ये सब हमने उनके सुझाव के अनुसार विकास के नाम पर ही किया। सो हमे कैसा खतरा। हम तो शर्तें पहले लागु करते हैं और कर्ज लेने बाद में जाते हैं। इसलिए हमारी रेटिंग लगातार बढ़ रही है। कुछ लोग ये एतराज करते हैं की ये लोकतंत्र नही है।
ये लोकतंत्र कैसे नही है ? क्या हमे लोगों ने नही चुना। वैसे हम आपको बता देते हैं की हम लोकतंत्र से ज्यादा राजतन्त्र में विश्वास रखते हैं। हमारे प्रधानमंत्री इसका उदाहरण हमेशा पेश करते रहते हैं। वो चुने हुए मुख्यमंत्रियों से मिलने से इंकार कर देते हैं ,क्या ये राजतन्त्र का उदाहरण नही है। इसलिए मैं चाहता हूँ की ग्रीस संकट का असर हो और लोग ये पूछें की पैसा कहां खर्च हो रहा है और कहां खर्च होना चाहिए। नीतियां कैसी हों ये लोग पूछें। लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं की ग्रीस का हम पर कोई असर नही होगा। मगर मैं इंतजार करूंगा क़यामत तक , खुदा करे की क़यामत हो और असर की खबर आये।
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Vyang--शिवराज सिंह हाजिर हों।
गप्पी -- मध्यप्रदेश आजकल खबरों में है। खबरों में व्यापम घोटाले की वजह से है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह पर आरोप लग रहे हैं और वो इनकार कर रहे हैं हमेशा की तरह। ये तय किया गया की एक जनअदालत लगा ली जाए जिसमे शिवराज सिंह से कुछ सवाल पूछे जाएँ।
अदालत लगी हुई है। आवाज लगाई जाती है, शिवराज सिंह हाजिर हों।
शिवराज सिंह अदालत में हाजिर होते हैं तो जनता का वकील उनसे सवाल पूछता है।
वकील -- क्या आप जनता के सवालों का जवाब देने के लिए तैयार है ?
शिवराज सिंह -- मैं जनता के प्रति जवाबदेह नही हूँ। वैसे तो मैं किसी के प्रति भी जवाबदेह नही हूँ। परन्तु जनता के प्रति जवाबदेह होने का तो सवाल ही पैदा नही होता। हमारी पार्टी में इसका रिवाज ही नही है।
वकील -- लेकिन आप जनता के चुने हुए नुमाइन्दे हैं। आप जनता के प्रति जवाबदेही से इनकार कैसे कर सकते हैं ?
शिवराज सिंह -- मुझे मुख्यमंत्री जनता ने नही बनाया, पार्टी ने बनाया है। इसलिए मैं जनता के प्रति नही पार्टी के प्रति जवाबदेह हूँ। जनता को अपना भरम निकाल देना चाहिए।
वकील -- लेकिन आपको विधायक तो जनता ने ही चुना है।
शिवराज सिंह -- आपने मुझे यहां मुख्यमंत्री की हैसियत से बुलाया है। इसलिए बात भी उसी हिसाब से कीजिये। मैं यहां विधायक की हैसियत से नही आया। हूँ, जनता।
वकील -- क्या आप व्यापम घोटाले की नैतिक जिम्मेदारी लेते हैं।
शिवराज सिंह -- आप हमसे नैतिकता की बात कैसे कर सकते हैं ? आपको मालूम होना चाहिए की हम राजनीती में हैं।
वकील -- तो आप किस चीज की जिम्मेदारी लेते हैं।
शिवराज सिंह -- हम केवल मध्यप्रदेश की जिम्मेदारी लेते हैं। मध्यप्रदेश का विकास हमारी जिद है, हमारा पैशन है।
वकील -- लेकिन इतना बड़ा घोटाला हुआ है।
शिवराज सिंह -- ये मध्यप्रदेश को बदनाम करने की साजिश है ये स्टैण्ड हमने कल ही तय किया है। अब आपको हररोज ये सुनने को मिलेगा की ये मध्यप्रदेश को बदनाम करने की साजिश है। बिलकुल गुजरात की तरह। ये कांग्रेस की साजिश है।
वकील -- क्या आप कहना चाहते हैं की घोटाला नही हुआ ? तो फिर आप कैसे कहते हैं की इस घोटाले का पर्दाफाश आपने किया था।
शिवराज सिंह -- हाँ, हम मानते हैं की घोटाला हुआ है इसीलिए तो हम जाँच करा रहे हैं। आखिर सबसे ज्यादा नुकशान तो हमारा ही हुआ है।
वकील -- वो कैसे ?
शिवराज सिंह -- देखिए पूरी बात ध्यान से सुनिए। वरना आप कभी भी इस घोटाले की गंभीरता और हमारा नुकशान समझ नही पाएंगे। पहले कांग्रेस का राज था। दाखिलों और भर्तिओं की कोई सही प्रणाली नही थी। पर्चियों पर भर्ती हो जाती थी। हमने व्यापम की स्थापना की। आप नाम से ही समझ सकते हैं की हमारी योजना कितनी व्यापक थी। हमने सारी नौकरियों के रेट तय किये। दाखिलों के रेट तय किये। MBBS का 35 लाख और MD का एक करोड़। इसी तरह इंजीनियरिंग के रेट तय किये। फिर सभी नौकरियों के रेट तय किये। MBBS का झूठा पेपर देने के पैसे तय हुए। दलाली की दरें तय की। हमारे पास नई नौकरियां नही थी तो हमने 10 -15 साल से नौकरी कर रहे अध्यापकों को पेपर दिलवा कर 24000 अध्यापकों को बर्खास्त किया और उनकी जगह नई भर्तियां की। हम सोच रहे थे की इस तरह लगाये हुए अध्यापकों के पढाये हुए बच्चे तो भविष्य में पेपर पास ही नही कर पाएंगे और हमारा धन्धा बढ़ेगा। इस तरह की पूरी योजना बनाने और लागु करने में कितनी मेहनत होती है आप समझ सकते हैं। लेकिन अब हिसाब मिलाता हूँ तो हिसाब ही नही मिल रहा। जितनी नौकरियाँ दी गयी, दाखिले किये गए उसके हिसाब से जितना पैसा आना चाहिए था नही आया। घोटाला हो गया। इसलिए मैंने जाँच शुरू की। मेरी तो सारी मेहनत पानी में चली गयी।
वकील -- लेकिन आपने अभी जो सीबीआई की जाँच की मांग की है तो लोग कहते हैं की रपट पड़े तो हर-गंगा।
शिवराज सिंह -- जिन लोगों ने मेरे साथ ये घोटाला किया वो ही विपक्ष से मिल गए। कहते हैं की हमारा नाम आया है तो तुम्हारा भी आना चाहिए। कलियुग है। मैं अगर नही कहता तो भी सीबीआई जाँच तो होनी ही थी। इसलिए मैंने भी कह दिया।
वकील -- सुना है की आपकी पार्टी के अंदर भी आपसे इस्तीफा मांगने वाले बढ़ रहे हैं क्या आपको इस्तीफा देना पड़ेगा ?
शिवराज सिंह -- सब ऊपर वाले की मर्जी पर निर्भर करता है। हम तो उसके हाथ की कठपुतलियां हैं। वैसे मैं उनको हमेशा अपना बड़ा भाई कहता रहा हूँ। लेकिन हर मुख्यमंत्री वशुन्धरा राजे की तरह ताकतवर तो नही होता न।
तभी जनता में से आवाज आई की ये शिवराज सिंह नकली है। ये असली शिवराज सिंह नही है।
अदालत ने पूछा की क्या तुम असली शिवराज सिंह नही हो ?
लेकिन मेरे सारे जवाब असली हैं आपको आम खाने से मतलब होना चाहिए।
अदालत ने इस बात की जाँच होने तक की ये शिवराज सिंह असली है या नकली कार्यवाही स्थगित कर दी।
खबरी -- लगे हाथ ये भी सीबीआई को दे देते।
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Sunday, July 5, 2015
Vyang -- नालायक होने की जाँच कैसे हो।
खबरी -- मीडिया में फर्जी डिग्रियों का ढेर लग गया है।
गप्पी -- ये जो फर्जी डिग्रियां दिखाई जा रही हैं, वो तो केवल एक ही किस्म की फर्जी डिग्रियां हैं। मुझे लगता है की बाकि के जो लोग दूसरे किस्म की फर्जी डिग्रियां लिए हैं वो अपनी डिग्री बचाने के चककर में दूसरों की डिग्रियों का मामला उठा रहे हैं।
मसलन ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हे बाकायदा यूनिवर्सिटी ने डिग्री दी है। उन लोगों ने वहां पढ़ाई भी की है लेकिन बहुत से लोगों को लगता है की ये डिग्रियां भी फर्जी हैं। छात्र कई साल लगाता है उसके बाद उसे डिग्री देते वक़्त कह दिया जाता है की लो बेटा हम लिख कर देते हैं की अब तुम किसी काम के नही रहे। वो आगे दाखिला लेने जाता है तो एंट्रेंस टेस्ट होता है। नए कालेज को पुरानी डिग्री पर भरोसा नही है। टेस्ट में फेल होता है और दाखिला नही मिलता। वो डिग्री दिखाता है दाखिला देने वाले कह देते हैं की जेब में रखो।
नौकरी के लिए आवेदन करता है तो पहले परीक्षा होती है फिर इंटरव्यू होता है। क्योंकि डिग्री पर किसी को भरोसा नही है। चार लाख लोग परीक्षा में बैठते हैं और चार हजार पास होते हैं। बाकि नालायक हैं। जिन्हे नालायक युनिवर्सिटियों ने डिग्रियां थमा दी हैं।
डिग्री किसी नौकरी की गारंटी नही है ये तो माना जा सकता है। लेकिन उसकी लायकात की गारंटी तो होनी ही चाहिए। आदमी के पास डिग्री असली है और लायकात फर्जी है। अब इसका क्या हो।
कई बार चुन लिए जाने के बाद मालूम पड़ता है की नालायक को चुन लिया। सरकारों के साथ तो हरबार यही होता है। चुनाव में नेता बड़े बड़े दावे करते हैं। कसम खा खा कर यकीन दिलाते हैं की हम पूरी तरह लायक हैं। लोग नए कपड़े पहन कर वोट देने जाते हैं। सरकार बन जाती है। बनते ही मालूम पड जाता है की नालायक है। लोग कहते हैं की तुम नालायक हो, सरकार कहती है की नही हम तो लायक हैं। लोग कहते हैं की तुमने फलां वायदा किया था, अब मुकर रहे हो इसलिए नालायक हो। सरकार कहती है की वायदों का संबन्ध तो केवल वोट लेने से होता है, सरकार चलाने से थोड़ा ना होता है। सरकार बनने के बाद हमे इस सत्य का बोध होता है की पिछली सरकार के जिस काम को हम देश विरोधी बता रहे थे वो तो देश के हित में था। पहले हमारे पास जानकारी नही थी अब है। जो काम पिछली सरकार ने लोगों की बार बार की मांग करने के बावजूद नही किया था और जिसके लिए हमने सरकार को जनविरोधी बताया था अब पता चला की वो तो किया ही नही जा सकता था । सरकार जनविरोधी नही थी हमे तो लगता है की जनता ही जनविरोधी है।
लोग नारे लगाते हैं की वापिस आओ नालायक हो। सरकार कहती है नही आएंगे, हम चुन कर आये हैं नालायक चुनने वाले हो सकते हैं हम नही हैं। जनता नालायक है इसे बदलना होगा। इसी में देश की भलाई है। अब हम लायक हैं या नालायक हैं इसका फैसला इस जनता से लेकर चैंबर आफ कामर्स पर छोड़ देते हैं। हम हमारे लायक होने का प्रमाणपत्र अमरीका से मंगवा लेते हैं। तब तो तुम्हे भरोसा होगा की हम लायक हैं।
लोग काम के लिए सरकारी दफ्तरों में जाते हैं। दस धक्के खाने के बाद काम नही होता। लोग कहते हैं कर्मचारी नालायक हैं। कर्मचारी कहते हैं की लोगों को काम करवाना ही नही आता, इन नालायक लोगों को झेलते हम परेशान हो गए हैं। लोग कहते हैं की तुम दो घण्टे लेट आये हो, कर्मचारी कहता है की साहब का बिजली का बिल भरकर आया हूँ लेट नही हूँ। लोग कहते हैं की तुम्हे साहब का बिल भरने का वेतन नही मिलता। कर्मचारी कहता है वेतन तो साहब ही देता है तुम कब देने आये थे बताओ।
जनता कहती है -नालायक
कर्मचारी कहता है -तुम नालायक
हर बार सरकार और सरकारी अमला जनता को नालायक सिद्ध कर देता है। मैं चाहता हूँ की इस नालायकी को टेस्ट करने का भी कोई तरीका निकाला जाये। लेकिन ध्यान रहे की वो तरीका जनता को नालायक न सिद्ध कर दे।
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Vyang -----बड़ा धार्मिक दिखने का मुकाबला
खबरी -- लोगों में धार्मिक होने की जैसे हौड़ लगी हुई है।
गप्पी -- ये हौड़ धार्मिक होने की नही है। धार्मिक दिखने की है। होने और दिखने में फर्क होता है। दिखने के लिए होना जरूरी शर्त नही है। उसी तरह जैसे होने के लिए दिखना जरूरी शर्त नही है। धार्मिक होने और दिखने में उतना ही फर्क है जितना आसाराम बापू और विवेकानन्द में है। आजकल विज्ञापन का जमाना है। हर चीज की मार्केटिंग हो रही है। व्यक्ति समाज में खुद की भी मार्केटिंग करता है। धर्म और व्यक्ति दोनों ब्राण्ड हो गए हैं।
विज्ञापन में किसी वस्तु के बारे में जो बातें कही गयी होती हैं जरूरी नही है की वो चीजें उसमे हों। बल्कि यों कहिये वे चीजें उसमे होती नही हैं। इसके क़ानूनी पचड़े से बचने के लिए विज्ञापन कम्पनी उसमे नीचे छोटे छोटे अक्षरों में सूचना लिख देती हैं। लेकिन धार्मिक दिखने के मुकाबले वाले लोग ऐसा नही करते बल्कि उल्टा जोर जोर से उसके होने का झूठा दावा करते हैं।
कई बार ये लोग ऐसी हरकतें करते हैं की समझ से बाहर की बात हो जाती है। मेरे दो पड़ौसी हैं जो एक ही टाइम पर छत पर जाते हैं सूर्य को पानी देने। एक दिन एक आदमी ने देखा की दूसरे का पानी लाल रंग का है। उसने उससे पूछा की पानी लाल क्यों है। पहले ने जवाब दिया की पानी देने के बाद सूर्य महाराज को तिलक भी तो करना होता है इसलिए पानी में सिंदूर से तिलक किया हुआ है इसलिए पानी लाल दीखता है। पहले आदमी में काटो तो खून नही। इसका मतलब है तुम सूर्य के मुझसे बड़े भगत हो, देख लूँगा तुम्हे, ऐसा मन ही मन बड़बड़ाता हुआ वो नीचे आ गया। चार पांच दिन वो अलग से पानी देने गया। छठे दिन वो उसके साथ ही पहुंचा। आज उसके पानी में सिंदूर तो था ही थोड़े से चावल और शककर के दाने भी थे। अब पूछने की बारी पहले की थी।
" वो क्या है की हमारे यहां देवताओं को तिलक चावल के बिना नही करते। और तिलक करने के बाद मीठा मुंह तो करवाना ही होता है। अब जिनको ये नही मालूम तो नही मालूम। " दूसरे आदमी ने जवाब देकर पांच दिन से रोक कर रखी हुई भड़ास निकाल ली।
दूसरा आदमी एक हफ्ते उसके साथ पानी देने नही गया।
एक हफ्ते बाद पहला आदमी पानी देने गया तो उसके पानी में सिंदूर, चावल,शक़्क़र के साथ लाल रंग का धागा भी था जिसे मौली कहते हैं।
दूसरे आदमी ने देखा और कुढ़ कर नीचे आ गया।
अगले हफ्ते उसके पानी के साथ बाकि की सारी चीजें तो थी ही साथ में जलती हुई अगरबत्ती भी थी।
अगले हफ्ते पहला आदमी अगरबत्ती के साथ दीपक भी लिए था।
दो महीने में ये हाल हो गया की दोनों पानी के लोटे के साथ सामान से भरी हुई एक थाली भी लेकर छत पर जाने लगे।
ये बड़ा धार्मिक दिखने का मुकाबला था।
हमारी सोसायटी में एक आदमी ने सुंदर कांड का प्रोग्राम रखा। सोसायटी के कई लोगो को बुलाया। सबको प्रशाद देकर विदा किया। अगले शनिवार को दूसरे आदमी ने सुंदर कांड का प्रोग्राम रखा। बाकि सारी चीजें तो वैसी ही थी लेकिन उसने लाऊड स्पीकर और जोड़ दिया। पूरी रात सोसायटी शोर से परेशान रही। सुबह मैंने उससे पूछा की भाई साब आपने लाऊड स्पीकर क्यों रक्खा।
" देखो भाई साब, प्रोग्राम किआ जाये तो थोड़ा ढंग से किया जाए। सुंदर कांड रखते हो तो थोड़ा खर्चा करने की भी हिम्मत रखो। पूरी सोसायटी के कान में भगवान का नाम पड गया। " उसने आसपास के आदमियों को भी सुनाकर कहा।
" लेकिन भाई साब, लोगों को परेशानी भी हुई। सारी रात लाऊड स्पीकर बजाना क्या अच्छी बात है। आप सभ्य आदमी हैं। " मैंने कहा।
वो गुस्से से कांपने लगा। " सभ्य होगा तू, तेरा बाप। तेरी हिम्मत कैसे हुई मुझे सभ्य कहने की। जुबान संभालकर बात किया करो। "
मैं वापिस आ गया।
एक पैसे वाला आदमी जागरण रखवाता है। बड़ी भीड़ होती है। दूसरे आदमी ने जागरण में फ़िल्मी हीरो और हीरोइन को बुलवा लिया। वो बड़ा भगत था।
शहर में एक बड़े नामी कथावाचक का प्रोग्राम हुआ। शहर के बड़े बड़े लोग कथा सुनने जाते। ये कथावाचक भी अपने नाम के आगे सन्त लिखते हैं। एक दिन एक पैसे वाले बड़े सेठ ने उन्हें घर बुला लिया। साथ में उसने अपने सारे विरोधिओं और मिलने वालों को भी न्योता भेज दिया। सभी आये। सबके भोजन के बाद भरे हुए हाल में सन्त ने कहा की " मैं कभी किसी के घर जाता नही हूँ। भई सन्तों को गृहस्थियों से जरा दूर ही रहना चाहिए। लेकिन इन भाई साब के साथ प्रेम का व्यवहार है, बहुत धार्मिक विचारों और संस्कारों वाला परिवार है इसलिए इंकार नही कर सका। "
लाखों का खर्चा वसूल हो गया। ये बड़े धार्मिक हो गए।
आजकल तो लोग एक दूसरे से सतसंग में जाने के बारे में इस तरह पूछते हैं जैसे क्लब के बारे में पूछ रहे हों। ये सतसंग नए जमाने के क्लब हैं। जो काम लोग पहले क्लबों में साधते थे अब सतसंग में साधते हैं। एक पुराने फ़िल्मी गाने की लाइने इस स्थिति को बखूबी बयान करती हैं।
देवा हो देवा गणपति देवा ,
तुमसे बढ़कर कौन।
और तुम्हारे भक्त जनो में ,
हमसे बढ़कर कौन।
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