आर्थिक क्षेत्र में हर राष्ट्र और समुदाय के सामने कुछ अवसर आते हैं। इन अवसरों का निर्माण कब और किन कारणों से होता है ये उस समय की परिस्थितियों पर निभर करता है। हमारा देश पिछले कुछ समय में एक सर्विस इकोनॉमी बनकर उभरा है। इसके पीछे जो प्रमुख कारण माना जाता है वो हमारे देश की जवान जनसंख्या को माना जाता है। कहा जाता है की इतनी बड़ी तादाद में नौजवान लेबर दुनिया में किसी देश के पास उपलब्ध नही है। कुछ लोगों को ये शर्म की बात लगती है तो कुछ लोगों को ये अवसर लगता है। पिछले कुछ सालों में कम्प्यूटर के क्षेत्र में जो हमारे युवा इंजीनियर बाजार में आये और हमारी कम्प्यूटर सेवा उपलब्ध करवाने वाली कम्पनियों ने पूरी दुनिया में इस कारोबार पर जो कब्जा करने की कोशिश की और उसके बाद विश्व की बड़ी कम्पनियों ने इस क्षेत्र में हमारे अपेक्षाकृत सस्ते श्रम का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया, उससे इस क्षेत्र में हमे नंबर एक पर मान लिया गया। लेकिन सर्विस इकोनॉमी आधारभूत रूप से एक परजीवी इकोनॉमी की तरह होती है। इसकी बढ़ौतरी उत्पादन के क्षेत्र की कम्पनियों की बढ़ौतरी पर सीधे रूप में निर्भर करती है। जैसे ही विकसित देशों में मंदी का दौर आया, हमे ये समझ में आ गया की केवल सर्विस बेचने के सहारे काम चलने वाला नही है। फिर हमारा ध्यान मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की तरफ गया। पिछले कुछ सालों में इस क्षेत्र पर चीन का दबदबा है। उसके सस्ते उत्पादों का मुकाबला दुनिया का कोई भी देश नही कर पा रहा है। लेकिन उसमे भी अब मंदी के लक्षण दिखाई दे रहे हैं।
उत्पादन क्षेत्र की मंदी ने पूरी दुनिया में धातु बाजार में मांग ना होने के चलते भारी गिरावट पैदा की। उसके साथ ही उसने सबसे ज्यादा मंदी कच्चे तेल की कीमतों में पैदा की। कभी 140 $ बैरल के भाव से बिकने वाला तेल कुल 40 $ प्रति बैरल से भी नीचे आ गया। इन दोनों क्षेत्रो में हम भारी मात्रा में आयात करते हैं। हमारा आयात बिल एकदम नीचे आ गया। हमारी अर्थव्यवस्था को मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में आगे बढ़ाने के लिए ये हमारे लिए एक स्वर्णिम अवसर था। किसी भी देश के उत्पादन को दूसरे देशों के मुकाबले सस्ता बनाने के लिए उसमे खर्च के जो जो कारक होते हैं उनमे मुख्य तौर पर एक होता है सस्ती श्रम शक्ति, और दूसरा होता है सस्ती ऊर्जा। विश्व बाजार में गिरते हुए तेल के दामों ने हमे ये अवसर उपलब्ध करवाया था। पूरी दुनिया में तेल की मांग कम होने के कारण तेल कंपनियां दबाव में हैं। अब उनके साथ कम कीमत पर लम्बी अवधि के करार करना पहले से ज्यादा आसान हैं। हमारी सरकार उनके साथ कम कीमत के करार करके और घरेलू बाजार में तेल की कीमतें आधी करके उद्योगों की उत्पादन लागत घटा सकती थी। इसके साथ ही वो उद्योगों को भी लम्बी अवधि तक कम कीमतों का भरोसा दे सकती थी। उससे जो उद्योग अभी कोयले या बिजली का उपयोग ईंधन के रूप में करते हैं, वो तेल या गैस पर शिफ्ट हो सकते थे। इससे हमारे उद्योगों का ऊर्जा बिल तो कम होता ही, माल ढुलाई के क्षेत्र में भी क्रांति हो सकती थी। रेल का माल ढुलाई भाड़ा कम हो सकता था। सड़क परिवहन का माल भाड़ा कम हो सकता था। गैस आधारित बिजली कारखानों का खर्च कम होने से बिजली के रेट कम हो सकते थे। और हमारी सस्ती शर्म शक्ति के साथ मिलकर ये हमारे उत्पादन की लागत को इतना कम कर सकते थे की हमारा माल अंतर्राष्ट्रीय बाजार में एक चुनौती बनकर उभर सकता था।
स्टील उत्पादन जैसे क्षेत्र में, जिसमे हम पहले ही बहुत आगे तो हैं लेकिन कीमतों के मामले में चीन की चुनौती का मुकाबला नही कर पा रहे हैं। चीन हमारे यहां से कच्चा लोहा आयात करता है। अगर ऊर्जा की कीमतें कम होती, जो स्टील उत्पादन में बहुत बड़ा कारक होती है, तो कच्चे माल की उपलब्धता और हमारी सस्ती लेबर के साथ मिलकर इस क्षेत्र में हमे चुनौती विहीन बना सकते थे।
लेकिन अफ़सोस, हमारी सरका ने अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की गिरती हुई कीमतों का उपयोग अपनी टैक्स कलेक्शन बढ़ाने के लिए किया। और मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र को केवल " मेक इन इंडिया " जैसी घोषणाओं के भरोसे छोड़ दिया। हमारी सरकार पूरी दुनिया के उद्योगपतियों को हमारे यहां उद्योग लगाने के लिए आमंत्रित कर रही है, वो भी केवल सस्ती लेबर का नारा देकर। इसके लिए हम सभी तरह के श्रम कानूनों में छूट देने, या यों कहें की खत्म करने को तैयार हैं। अगर हमारे लोगों के पास पैसे ही नही होंगे तो उनकी खरीदने की शक्ति भी नही होगी। इससे उद्योगों का माल नही बिकेगा। और मंदी का एक साईकिल शुरू हो जायेगा। केवल निर्यात पर निर्भरता हमे आज के चीन जैसी स्थिति में पहुंचा सकते हैं।
ये वो अवसर था जो हमारे देश की कायापलट कर सकता था और लेकिन हमारी सरकार ने उसे तात्कालिक टैक्स कलेक्शन के लिए इस्तेमाल करके बर्बाद कर दिया।
उत्पादन क्षेत्र की मंदी ने पूरी दुनिया में धातु बाजार में मांग ना होने के चलते भारी गिरावट पैदा की। उसके साथ ही उसने सबसे ज्यादा मंदी कच्चे तेल की कीमतों में पैदा की। कभी 140 $ बैरल के भाव से बिकने वाला तेल कुल 40 $ प्रति बैरल से भी नीचे आ गया। इन दोनों क्षेत्रो में हम भारी मात्रा में आयात करते हैं। हमारा आयात बिल एकदम नीचे आ गया। हमारी अर्थव्यवस्था को मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में आगे बढ़ाने के लिए ये हमारे लिए एक स्वर्णिम अवसर था। किसी भी देश के उत्पादन को दूसरे देशों के मुकाबले सस्ता बनाने के लिए उसमे खर्च के जो जो कारक होते हैं उनमे मुख्य तौर पर एक होता है सस्ती श्रम शक्ति, और दूसरा होता है सस्ती ऊर्जा। विश्व बाजार में गिरते हुए तेल के दामों ने हमे ये अवसर उपलब्ध करवाया था। पूरी दुनिया में तेल की मांग कम होने के कारण तेल कंपनियां दबाव में हैं। अब उनके साथ कम कीमत पर लम्बी अवधि के करार करना पहले से ज्यादा आसान हैं। हमारी सरकार उनके साथ कम कीमत के करार करके और घरेलू बाजार में तेल की कीमतें आधी करके उद्योगों की उत्पादन लागत घटा सकती थी। इसके साथ ही वो उद्योगों को भी लम्बी अवधि तक कम कीमतों का भरोसा दे सकती थी। उससे जो उद्योग अभी कोयले या बिजली का उपयोग ईंधन के रूप में करते हैं, वो तेल या गैस पर शिफ्ट हो सकते थे। इससे हमारे उद्योगों का ऊर्जा बिल तो कम होता ही, माल ढुलाई के क्षेत्र में भी क्रांति हो सकती थी। रेल का माल ढुलाई भाड़ा कम हो सकता था। सड़क परिवहन का माल भाड़ा कम हो सकता था। गैस आधारित बिजली कारखानों का खर्च कम होने से बिजली के रेट कम हो सकते थे। और हमारी सस्ती शर्म शक्ति के साथ मिलकर ये हमारे उत्पादन की लागत को इतना कम कर सकते थे की हमारा माल अंतर्राष्ट्रीय बाजार में एक चुनौती बनकर उभर सकता था।
स्टील उत्पादन जैसे क्षेत्र में, जिसमे हम पहले ही बहुत आगे तो हैं लेकिन कीमतों के मामले में चीन की चुनौती का मुकाबला नही कर पा रहे हैं। चीन हमारे यहां से कच्चा लोहा आयात करता है। अगर ऊर्जा की कीमतें कम होती, जो स्टील उत्पादन में बहुत बड़ा कारक होती है, तो कच्चे माल की उपलब्धता और हमारी सस्ती लेबर के साथ मिलकर इस क्षेत्र में हमे चुनौती विहीन बना सकते थे।
लेकिन अफ़सोस, हमारी सरका ने अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की गिरती हुई कीमतों का उपयोग अपनी टैक्स कलेक्शन बढ़ाने के लिए किया। और मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र को केवल " मेक इन इंडिया " जैसी घोषणाओं के भरोसे छोड़ दिया। हमारी सरकार पूरी दुनिया के उद्योगपतियों को हमारे यहां उद्योग लगाने के लिए आमंत्रित कर रही है, वो भी केवल सस्ती लेबर का नारा देकर। इसके लिए हम सभी तरह के श्रम कानूनों में छूट देने, या यों कहें की खत्म करने को तैयार हैं। अगर हमारे लोगों के पास पैसे ही नही होंगे तो उनकी खरीदने की शक्ति भी नही होगी। इससे उद्योगों का माल नही बिकेगा। और मंदी का एक साईकिल शुरू हो जायेगा। केवल निर्यात पर निर्भरता हमे आज के चीन जैसी स्थिति में पहुंचा सकते हैं।
ये वो अवसर था जो हमारे देश की कायापलट कर सकता था और लेकिन हमारी सरकार ने उसे तात्कालिक टैक्स कलेक्शन के लिए इस्तेमाल करके बर्बाद कर दिया।
Very insightful article.....we miss the bus,only loud speaking & chest thumping never give results.
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