गप्पी -- डा. राममनोहर लोहिया की ये बात लाखों बार दोहराई गयी है की जिन्दा कौमे पांच साल इंतजार नही करती। किस चीज का इंतजार, ये लोहिया जी ने भी खुल कर नही बताया सो में भी क्यों बताऊँ। वैसे कुछ लोगों का विचार है की ये राजनितिक बदलाव और चुनाव के इंतजार के बारे में कहि गयी थी। मुझे ऐसा लगता है की ये राशन या रेलवे बुकिंग की लाइन देखकर भी कहि हो सकती है। लेकिन मेरे पड़ौसी ने इस पर एतराज करते हुए कहा की लोहिया जी ने जिन्दा कौम की बात की है और जिन्दा कौमें कभी लाइन में लगती हैं ? वे अपने सारे काम लाइन तोड़कर कर लेते हैं। फिर भी ना हो तो पिछले दरवाजे से कर लेते हैं। पिछला दरवाजा जिन्दा कौमों के लिए ही बनाया गया है। बाकि कोई तो वहां झांक भी नही सकता।
लेकिन हम पिछले 68 साल से इंतजार कर रहे हैं और खुद को जिन्दा भी मानते हैं। ये हमारी संस्कृति है। लोग ये भी कहते हैं की हमारी 5000 साल पुरानी संस्कृति छुआछूत खत्म होने का इंतजार कर रही है और जिन्दा भी है । जहां तक हमारा सवाल है हम 68 साल से इंतजार कर रहे हैं की अब तो आजादी हम तक पहुंचे थोड़ी तो रौशनी हमारे दिमागों तक भी पहुंचे। और हम जिन्दा भी हैं, जबकि लोहियाजी पांच साल इंतजार करने वालों को भी जिन्दा नही मानते थे।
हमारे घर के खली कमरे में स्कुल के कुछ बच्चे कभी कभी पढ़ने आ जाते थे। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा की अँकल ये बताइये, अगर हमारे देश के लोग भगत सिंह को फांसी देने के इतने ही खिलाफ थे तो उन्होंने उन्हें फांसी क्यों देने दी ? मैंने कहा की लोग विरोध कर रहे थे इसलिए अंग्रेजों ने उसे और उसके साथियों राजगुरु और सुखदेव को एक दिन पहले ही फांसी दे दी। उन्होंने कहा, लेकिन वो तो बहुत दिन से जेल में बंद थे और फांसी का दिन भी तय किया हुआ था तब हमारे लोगों ने क्यों नही कहा की नही हम फांसी नही देने देंगे। मैंने कहा लोग विरोध तो कर रहे थे पर अंग्रेज ऐसे क्यों मानने लगे। मानते क्यों नही ? सारे लोग इकट्ठे होकर कह देते तो मानना ही पड़ता वरना सब कुछ बंद हो जाता। सारी दुकाने, रेल, बस, सड़क, गांव, शहर, स्कुल, कालेज, दफ्तर, कचहरी आदि सब कुछ। फिर क्या करते अंग्रेज ? लोग अंग्रेजों को कह देते की तुम जाओ हमे तुम पसन्द नही हो। अँकल, जरूर सारे लोगों ने जोर देकर नही कहा होगा। मेरे पास कोई जवाब नही था। मैं सोच रहा था की अगर सारे इकट्ठे होकर कहें तो हिमालय रास्ता छोड़ दे, अंग्रेजों की क्या ओकात थी। लेकिन ताज्जुब की बात है की हम तब भी जिन्दा कौम थे और अब भी जिन्दा कौम हैं। जी हाँ. मैं अब की बात कर रहा हूँ। जब भोपाल गैस दुर्घटना हुई तो हम ही थे जो उनको बचा रहे थे, उनके केस लड़ रहे थे। उस दुर्घटना की दोषी यूनियन कार्बाइड का सारा माल वैसे ही बिकता रहा। हमारे नेता उसे दूसरे नाम से चलने की इजाजत देते रहे और उनकी सभी तरह की मदद करके फिर सत्ता पर कब्जा करते रहे, चुनाव जीतते रहे। वो कम्पनी तो अब भी करोड़ों कमा रही है और भोपाल गैस हादसे के पीड़ित उनके अपने ही देश में मुआवजे का इंतजार करते करते स्वर्ग सिधार गए और हम अब भी जिन्दा कौम हैं।
मुझे नरसिम्हाराव की सरकार याद है। उस समय उसे इतिहास की सबसे भृष्ट सरकार कहा जाता था। उच्चतम न्यायालय में कई केस थे। लोग चबूतरों पर बैठकर घंटों बहस करते और जोर देकर कहते की उच्चतम न्यायालय को सबको फांसी दे देनी चाहिए। कभी किसी की जमानत होने की खबर आ जाती तो लोग न्यायालय को कोसते। पुरे देश में उन मंत्रियों और सरकार के खिलाफ माहौल था। चुनाव हुए, कल्पनाथ राय समेत सभी आरोपी मंत्री चुनाव जीत गए। जो लोग उन्हें फांसी देने की मांग कर रहे थे उनके खिलाफ वोट नही दे पाये। उस समय भी हम जिन्दा कौम थे।
कोई आदमी नर संहारों का आरोपी है। बच्चो और महिलाओं तक की हत्या के आरोप हैं उस पर। लेकिन हम उसके समर्थन में रैली निकाल सकते हैं केवल इसलिए की वो हमारी जाति का है। हजार साल पहले किसी ने हमारे पूर्वजों पर जुल्म किये थे। उसके बदले में हम आज अपने पड़ौसी और उसके परिवार की हत्या कर देते हैं महज इसलिए की उनका धर्म एक है। मरने वाला उसका नाम भी ठीक से नही जानता, लेकिन हम फिर भी जिन्दा कौम होने का दावा करते हैं।
जिस दिन कोई नेता कहेगा उस दिन हम सेना के नाम पर गीत गाएंगे, जिस दिन सरकार चाहेगी अमर जवान ज्योति पर फूल चढ़ाएगी, और जिस दिन सरकार चाहेगी पूर्व सैनिकों पर लाठियां बरसाएगी और हम उसका समर्थन करते रहेंगे। अगर आज डा. लोहिया होते तो मैं उनसे जरूर पूछता की जिन्दा कौम के क्या लक्षण होते हैं, जरा खुलासा कर दीजिये वरना बहुत मुश्किल होने वाली है। लेकिन वो नही हैं और इसका फायदा लोग उठा रहे हैं। ऐसे ऐसे लोग जिन्दा होने का दावा करने लगे हैं जो पैदा होने से पहले ही मर चुके थे।
खबरी -- हमारी पूरी कौम में चन्द लोग ही जिन्दा हैं।
लेकिन हम पिछले 68 साल से इंतजार कर रहे हैं और खुद को जिन्दा भी मानते हैं। ये हमारी संस्कृति है। लोग ये भी कहते हैं की हमारी 5000 साल पुरानी संस्कृति छुआछूत खत्म होने का इंतजार कर रही है और जिन्दा भी है । जहां तक हमारा सवाल है हम 68 साल से इंतजार कर रहे हैं की अब तो आजादी हम तक पहुंचे थोड़ी तो रौशनी हमारे दिमागों तक भी पहुंचे। और हम जिन्दा भी हैं, जबकि लोहियाजी पांच साल इंतजार करने वालों को भी जिन्दा नही मानते थे।
हमारे घर के खली कमरे में स्कुल के कुछ बच्चे कभी कभी पढ़ने आ जाते थे। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा की अँकल ये बताइये, अगर हमारे देश के लोग भगत सिंह को फांसी देने के इतने ही खिलाफ थे तो उन्होंने उन्हें फांसी क्यों देने दी ? मैंने कहा की लोग विरोध कर रहे थे इसलिए अंग्रेजों ने उसे और उसके साथियों राजगुरु और सुखदेव को एक दिन पहले ही फांसी दे दी। उन्होंने कहा, लेकिन वो तो बहुत दिन से जेल में बंद थे और फांसी का दिन भी तय किया हुआ था तब हमारे लोगों ने क्यों नही कहा की नही हम फांसी नही देने देंगे। मैंने कहा लोग विरोध तो कर रहे थे पर अंग्रेज ऐसे क्यों मानने लगे। मानते क्यों नही ? सारे लोग इकट्ठे होकर कह देते तो मानना ही पड़ता वरना सब कुछ बंद हो जाता। सारी दुकाने, रेल, बस, सड़क, गांव, शहर, स्कुल, कालेज, दफ्तर, कचहरी आदि सब कुछ। फिर क्या करते अंग्रेज ? लोग अंग्रेजों को कह देते की तुम जाओ हमे तुम पसन्द नही हो। अँकल, जरूर सारे लोगों ने जोर देकर नही कहा होगा। मेरे पास कोई जवाब नही था। मैं सोच रहा था की अगर सारे इकट्ठे होकर कहें तो हिमालय रास्ता छोड़ दे, अंग्रेजों की क्या ओकात थी। लेकिन ताज्जुब की बात है की हम तब भी जिन्दा कौम थे और अब भी जिन्दा कौम हैं। जी हाँ. मैं अब की बात कर रहा हूँ। जब भोपाल गैस दुर्घटना हुई तो हम ही थे जो उनको बचा रहे थे, उनके केस लड़ रहे थे। उस दुर्घटना की दोषी यूनियन कार्बाइड का सारा माल वैसे ही बिकता रहा। हमारे नेता उसे दूसरे नाम से चलने की इजाजत देते रहे और उनकी सभी तरह की मदद करके फिर सत्ता पर कब्जा करते रहे, चुनाव जीतते रहे। वो कम्पनी तो अब भी करोड़ों कमा रही है और भोपाल गैस हादसे के पीड़ित उनके अपने ही देश में मुआवजे का इंतजार करते करते स्वर्ग सिधार गए और हम अब भी जिन्दा कौम हैं।
मुझे नरसिम्हाराव की सरकार याद है। उस समय उसे इतिहास की सबसे भृष्ट सरकार कहा जाता था। उच्चतम न्यायालय में कई केस थे। लोग चबूतरों पर बैठकर घंटों बहस करते और जोर देकर कहते की उच्चतम न्यायालय को सबको फांसी दे देनी चाहिए। कभी किसी की जमानत होने की खबर आ जाती तो लोग न्यायालय को कोसते। पुरे देश में उन मंत्रियों और सरकार के खिलाफ माहौल था। चुनाव हुए, कल्पनाथ राय समेत सभी आरोपी मंत्री चुनाव जीत गए। जो लोग उन्हें फांसी देने की मांग कर रहे थे उनके खिलाफ वोट नही दे पाये। उस समय भी हम जिन्दा कौम थे।
कोई आदमी नर संहारों का आरोपी है। बच्चो और महिलाओं तक की हत्या के आरोप हैं उस पर। लेकिन हम उसके समर्थन में रैली निकाल सकते हैं केवल इसलिए की वो हमारी जाति का है। हजार साल पहले किसी ने हमारे पूर्वजों पर जुल्म किये थे। उसके बदले में हम आज अपने पड़ौसी और उसके परिवार की हत्या कर देते हैं महज इसलिए की उनका धर्म एक है। मरने वाला उसका नाम भी ठीक से नही जानता, लेकिन हम फिर भी जिन्दा कौम होने का दावा करते हैं।
जिस दिन कोई नेता कहेगा उस दिन हम सेना के नाम पर गीत गाएंगे, जिस दिन सरकार चाहेगी अमर जवान ज्योति पर फूल चढ़ाएगी, और जिस दिन सरकार चाहेगी पूर्व सैनिकों पर लाठियां बरसाएगी और हम उसका समर्थन करते रहेंगे। अगर आज डा. लोहिया होते तो मैं उनसे जरूर पूछता की जिन्दा कौम के क्या लक्षण होते हैं, जरा खुलासा कर दीजिये वरना बहुत मुश्किल होने वाली है। लेकिन वो नही हैं और इसका फायदा लोग उठा रहे हैं। ऐसे ऐसे लोग जिन्दा होने का दावा करने लगे हैं जो पैदा होने से पहले ही मर चुके थे।
खबरी -- हमारी पूरी कौम में चन्द लोग ही जिन्दा हैं।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन बहकती जुबान, भटकते नेता : आखिर मंशा क्या है में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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