Saturday, October 31, 2015

बिहार चुनाव में बीजेपी की चिंता के पांच कारण

बिहार चुनाव में सबको बीजेपी के प्रचार में एक हड़बड़ाहट दिखाई दे रही है। बीजेपी ने कई बार अपनी रणनीति में परिवर्तन किये हैं और प्रचार में स्वयं प्रधानमंत्री ने कुछ ऐसी बातें कहि हैं जिन्हे राजनितिक विश्लेषक उनके स्तर का नही मानते। क्या कारण है की बिहार चुनाव में बीजेपी अपने प्रदर्शन के प्रति आश्वस्त नही हो पा रही है। अब तक मिली सूचनाओं और हालात की खबरें आ रही हैं उनके अनुसार बिहार चुनाव में बीजेपी को ये पांच प्रमुख कारण चिंता में डेल हुए हैं।

१.   बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नितीश कुमार के खिलाफ कोई एंटी-इन्कम्बैंसी दिखाई नही दे रही है। बिहार के लोग नितीश कुमार को अब तक का सबसे अच्छा मुख्यमंत्री मानते हैं। उन पर ना कोई आरोप है और ना कोई भृष्टाचार का दाग है। इसकी कोई काट अब तक बीजेपी निकाल नही पाई है, बीजेपी ने नितीश पर भृष्टाचार के कुछ आरोप लगाने की कोशिश तो की है लेकिन बिहार की जनता इसे केवल चुनाव प्रचार मानती है। ये बीजेपी की चिंता का प्रमुख कारण है।

२.   बिहार में बीजेपी के पास कोई स्थानीय चेहरा नही है जिसे वो नितीश के मुकाबले में मतदाताओं के सामने पेश कर सके। अब तक कई राज्यों में बीजेपी ने बिना किसी मुख्यमंत्री की घोषणा किये चुनाव लड़ा है। उन राज्यों में बीजेपी अपनी जीत को इस रणनीति से जोड़कर देख रही है। जबकि उन राज्यों में बीजेपी की जीत का असली कारण वहां की सरकारों के खिलाफ जनता में रोष का भाव था। बिहार में पहले से बीजेपी अपना मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने पर बिहार के स्थानीय नेताओं के मतभेद सामने आने से भी डर रही है। अब तक बीजेपी इस रणनीति पर चलती रही है की जिस जाती और इलाके में जाओ, उसके नेता को ही मुख्यमंत्री के रूप में पेश कर दो। इससे कई बार फायदा भी होता रहा है लेकिन बिहार में ये फार्मूला काम नही कर रहा है जो बीजेपी की चिंता का कारण है।

३.   लालू प्रशाद यादव एक बार फिर यादवों के और पिछड़ों के नेता के रूप में उभर रहे हैं। पहले के चुनावों में इधर-उधर खिसका यादव दुबारा उनके साथ गोलबंद हो रहा है। बीजेपी की पूरी कोशिश और लालू यादव की खराब छवि के बावजूद यादव और पिछड़े उसके साथ खड़े हो रहे हैं। रही सही कसर मिहं भागवत के बयान ने पूरी कर दी। बीजेपी बिहार में जातीय समीकरण का कोई तोड़ नही खोज पा रही है और ये भी उसकी चिंता का कारण है।

४.   बिहार में मुस्लिमो की बड़ी संख्या है और मुस्लिम इस बार सख्ती से महागठबंधन के साथ हैं। लालू, निटश के इकट्ठा होने से उनके बीच से असमंजस खत्म हो गयी है। बीजेपी के मुस्लिम विरोधी और साम्प्रदायिक ब्यानो ने उन्हें तेजी से महागठबंधन के  दिया है। मुस्लिम धुर्वीकरण के खिलाफ बीजेपी को उम्मीद थी की इससे दूसरी तरफ हिन्दू मतों का भी धुर्वीकरण होगा। लेकिन ऐसा हो नही रहा है। इसका मुख्य कारण बिहारी समाज में हिन्दू और मुसलमानो के बीच किसी तनाव का उपस्थित ना होना है। बीजेपी लाख कोशिश करने के बावजूद ये धुर्वीकरण करने में कामयाब नही हो पाई। आरएसएस की कोशिशें भी बेकार हो गयी। इसलिए ये भी बीजेपी की चिंता का एक कारण है।

५.   बिहार की राजनीती में एक नई चीज उभर कर सामने आई है, वो है महिला वोट बैंक। पुरे देश से अलग बिहार में महिलाओं का एक अलग वोट बैंक सामने आ रहा है जो वोटों के प्रतिशत और महिलाओं के मुद्दो के रूप में सामने आया है। नितीश सरकार ने छात्राओं को साईकिल दे कर बिहार की लड़कियों में एक नया आत्मविश्वास पैदा किया है। कानून व्यवस्था की स्थिति में सुधार के चलते बिहार में ये महिला वोट बैंक नितीश के समर्थन में माना जा रहा है। अब चुनाव में नितीश का महिलाओं को नौकरियों में 35 % आरक्षण का वायदा महिलाओं को आकर्षित कर रहा है। इस वोट बैंक की कोई काट बीजेपी के पास नही है। साथ ही आरएसएस की महिला विरोधी छवि इस आग में घी डालने का काम कर रही है। ये वोट बैंक बीजेपी के लिए एक बड़ी चिंता का कारण है।

 

Friday, October 30, 2015

चेतन भगत - यानी एक भक्त का रुदन

कल के दिव्य भास्कर ( गुजराती ) में चेतन भगत का एक लेख छपा है। जिसमे चेतन भगत ने सोशल मिडिया में उन्हें और उन जैसे लोगों को " भक्त " कहने पर एतराज किया है। ये एतराज वो कर सकते हैं लेकिन उन्होंने इन तथाकथित भक्तों और उनके लिए इस शब्द का इस्तेमाल करने वाले उदारवादियों की परिभाषा और प्रकृति बताने की कोशिश भी की है। उसने इन उदारवादियों के बारे में कहा है की ये अपार पैसे और सम्पत्ति के बीच में  पैदा हुए और अंग्रेजी माध्यम में पढ़े लिखे ऐसे लोगों की जमात है जिन्हे दुनिया के बारे में और वैश्विक संस्कृति के बारे में तो ज्यादा जानकारी होती है लेकिन इनके पास किसी समस्या का कोई इलाज नही होता।
                     दूसरी तरफ उसने " भक्त " के सम्बोधन से सम्बोधित किये जाने वाले लोगों की विशेषता बताते हुए लिखा है की ये राष्ट्रवादी बच्चे, जो प्रतिभाशाली और भारतीय संस्कृति के जानकर और आर्थिक विकास के इच्छुक विशाल समूह हैं। उसके बाद  वो सब बातें कहि जो टीवी चैनलों में बैठने वाले बीजेपी और आरएसएस के प्रतिनिधि और सोशल मीडिया में बैठे ये " भक्त " हमेशा कहते हैं। जैसे ये कांग्रेस की लड़ाई लड़ रहे हैं और की असुरक्षित महसूस कर रहे हैं और की मुस्लिम कटट्रपंथियों के खिलाफ कभी बोलते नही हैं।
                     चेतन भगत और उन जैसे लोगों के लिए " भक्त " शब्द का इस्तेमाल क्यों किया जाता है उसका एक मुख्य कारण तो खुद उनके लेख में ही है। अपने लेख के अंत में दिए गए प्रवचन में उसने कहा है की हमे एक समाज बन कर रहने की जरूरत है ये बात इन उदारवादियों को समझनी चाहिए। क्या बात है भगत साहब ! एक समाज बनाने के लिए आपकी सरकार और संगठन ने पिछले 18 महीनो और उससे पहले भी जितने काम किये हैं वो सबके सामने हैं। चेतन भगत ने हर बार की तरह और एक सच्चे भगत की तरह इस आरोप को भी दोहराया है की गोधरा की घटना में मारे गए कारसेवकों पर  शब्द नही बोले और उनके लिए कुछ नही किया। और उसके बाद के दंगों पर हमेशा बात करते हैं। तो मैं ये पूछना चाहता हूँ की 13 साल बाद भी आपकी सरकार ट्रेन जलाने वाले असली मुजरिमो को पकड़ क्यों नही पाई। जिन लोगों को आपकी सरकार ने  पकड़ा था उन्हें तो उच्चत्तम न्यायालय ये कह कर बरी कर चूका है की उनको फ्रेम किया गया था।
                       अब मैं मुख्य सवाल पर आता हूँ। जिन लोगों को चेतन भगत अपार पैसे में पले और अंग्रेजी के महंगे स्कूलों में पढ़ा लिखा बताते हैं, इनमे से ऐसा कौन है ? ये सब लोग तो दूरदराज के गावों से आने वाले वो लोग हैं जो इंसानियत और उसके रास्ते, दोनों चीजों को समझते हैं। ये पढ़े लिखे ज्यादा हैं या ये दुनिया को ज्यादा अच्छी तरह से समझते हैं तो ये कोई आरोप हुआ ? आप लोगों के पास गजेन्द्र चौहान से ज्यादा जानकार और काबिल लोग नही हैं तो इसमें इन उदारवादियों की क्या गलती है। विख्यात साहित्यकार काशीनाथ सिंह ने आपको बाजारू लेखक कहा तो एक बार उनके सामने बैठ कर पूछते तो की ऐसा क्यों कहा। वैसे आप जैसे भक्तों का ये नामकरण किया ही इसलिए गया है की एक भक्त कभी भी अपने आराध्य देव द्वारा किये गए किसी भी काम का  कभी विश्लेषण नही करता। अभी भी लोग आसाराम बापू को फूल चढ़ाने जेल के दरवाजे तक जाते हैं इन्हे कहते हैं भक्त।
                       मैं आपसे घटनाओं का सही और निष्पक्ष विश्लेषण करने के लिए नही कहूँगा , क्योंकि भक्तों में इसकी तो योग्यता ही नही होती। फिर भी मैं आपको उसी दिन के उसी अख़बार में उर्विश कोठारी का एक व्यंग लेख जो " ट्राफिक पोलिस-भद्रंभद्र संवाद " के शीर्षक से छपा है पढ़ने की सलाह जरूर दूंगा। उसमे उन्होंने लिखा है , " की भद्रंभद्रो केवल जड़ता पूर्वक भूतकाल से चिपके तो रह सकते है,  उसमे से कुछ भी ना सिखने के लिए कृत-निश्चयी भी होते हैं। यही उनके भद्रंभद्र होने का कारण है और यही प्रमाण है। "
                         चेतन भगत " भक्त " इसमें  भद्रंभद्र की जगह केवल भक्त कर लें तो शायद बात उनकी समझ में आ जाये, लेकिन हो सकता है तब भी ना आये आखिर " भक्त " जो ठहरे।

Wednesday, October 28, 2015

NEWS -- FTII के आंदोलनकारी छात्रों को मुबारकबाद

 FTII के 140 दिन से हड़ताल कर रहे छात्रों ने आज अपनी हड़ताल समाप्त कर दी और आंदोलन और विरोध जारी रखने का फैसला लिया। कुछ  लोगों का ऐसा कहना की हड़ताल बिना किसी नतीजे के वापिस हो गयी ये सही नही है। असलियत तो ये है की इस हड़ताल ने इस सरकार के तानाशाह, नासमझ और अलोकतांत्रिक चरित्र को बेनकाब कर दिया। हम ये समझ सकते हैं की बीजेपी और संघ के पास गजेन्द्र चौहान से ज्यादा लायक लोग नही हैं, लेकिन ये जरूरी नही है की हर पद पर संघ के लोगों की ही नियुक्ति की जाये भले ही उनका स्तर जो भी हो। एक तानाशाह और निरकुंश सरकार, जिसको अपनी 56 " की छाती का बड़ा गरूर था और जो उसका प्रदर्शन सीमा पर नही कर पाई, उसने छात्रों के सामने इसका बखूबी प्रदर्शन किया। और ये सारा नजारा लोगों की नजरों में ही नही आता अगर FTII के छात्र इसका विरोध नही करते। इस सरकार ने झारखंड में आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलवादियों को एक करोड़ रुपया देने की घोषणा की है और ये बता दिया है की लोकतान्त्रिक ढंग से चलने वाले आंदोलनों की वो परवाह नही करती और बंदूक के सामने खड़े होने की उसकी औकात नही है।  ये उसके 56 " की छाती की हकीकत है। इस पुरे आंदोलन  के लिए देश की जनता की तरह से उन्हें मुबारकबाद।
                     जैसे ही ये खबर आई, मंत्रिमंडल में बैठे अक्षम मंत्रियों ने इसका स्वागत किया। वो किस चीज का स्वागत कर रहे थे पता नही, परन्तु तभी ये खबर भी आ गयी की फिल्म उद्योग से जुड़े और FTII के छात्र रहे दस लोगों ने राष्ट्रिय पुरुस्कार लौटाने की घोषणा कर दी। ये सरकार के मुंह पर करारा तमाचा है। हालाँकि अभी सरकार के पास इनको वामपंथी बताने का विकल्प खुला हुआ है।
                        एक सामान्य नागरिक की तरफ से FTII के छात्रों को एकबार फिर मुबारकबाद।

बिहार में बीजेपी को वोट ना देने के 10 कारण

बिहार चुनाव में बिहार की जनता को बीजेपी को वोट क्यों नही देना चाहिए, इसके मुख्य दस कारण निम्नलिखित हैं।
१.  लोकसभा चुनाव में किये गए मोदी जी के वायदों को पूरा नही करना।
२.  देश में साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने का विरोध ।
३.  पुरे देश में साहित्यकारों के खिलाफ हमले और दुष्प्रचार।
४.  पुरे देश में उच्च शिक्षा के छात्रों के खिलाफ दमन चक्र।
५.  देश में बढ़ती हुई महंगाई के विरोध में।
६.   रेल व दूसरी सरकारी सेवाओं में आम जनता की लूट के खिलाफ।
७.  शिक्षा सहित सभी महत्त्वपूर्ण संस्थाओं में संघ के अक्षम लोगों की नियुक्तियां।
८.  विदेशो में सरकारी यात्राओं के दौरान विपक्ष पर हमलों का विरोध।
९   दिल्ली सहित विपक्षी राज्य सरकारों को काम ना करने देने के लिए।
१०. जनहित की सभी योजनाओं जैसे शिक्षा, स्वास्थय, मनरेगा और बच्चों के बजट में कटौती के विरोध में।

                हालाँकि इस तरह के कारणों की लिस्ट कहीं लम्बी है, फिर भी ये वो कारण हैं जिन पर पुरे देश के सही सोच वाले लोग दुखी हैं।

Monday, October 26, 2015

NEWS -- बिहार चुनाव में मोदी जी का साम्प्रदायिक कार्ड

खबरी -- मोदी जी के आज बक्सर की रैली में भाषण के क्या मायने हैं ?

गप्पी -- बीजेपी और मोदी जी, दोनों को अब ये अधिकाधिक स्पष्ट होता जा रहा है की वो बिहार चुनाव हार रहे हैं। चुनाव प्रचार शुरू होने के बाद बीजेपी के नेताओं ने जो भी मुद्दे उठाये उनसे उनका नुकशान ही ज्यादा हुआ। बाद में मोहन भागवत के आरक्षण पर दिए गए भाषण ने पूरी बजी ही पलट दी और बीजेपी का एजेंडा खुल कर सामने आ गया। अब बक्सर की रैली में मोदी जी ने ये कह कर की नितीश और लालू प्रशाद दलितों और पिछड़ों का आरक्षण छीन कर मुसलमानो को देना चाहते हैं और वो यानि मोदी जी अपनी जान दे देंगे लेकिन उनका आरक्षण नही छीनने देंगे, संघ की पुरानी साम्प्रदायिक लाइन ले ली है।  मोदी जी को मालूम है की मुसलमानो का तो कोई वोट उन्हें मिलने वाला नही है और दलितों और पिछड़ों के वोट में अगर वो सेंध नही लगा पाये तो वो चुनाव नही जीत सकते। इसलिए ये मोदी जी और आरएसएस का आखरी दांव है।
                     लेकिन अगर आरक्षण का मुद्दा मोदी जी और आरएसएस बहस में लेकर आते हैं तो उन्हें कुछ अप्रिय सवालों के जवाब भी देने पड़ेंगे। जैसे लालू जी पहले दिन से जातिगत जनगणना का मसला उठा रहे हैं। लालू जी का कहना है की जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी किये जाएँ और दलितों और पिछड़ों को उनकी जनसंख्या के हिसाब से आरक्षण दिया जाये। इस पर बीजेपी को अपना रुख साफ करना होगा। दूसरा आर्थिक आधार पर आरक्षण के मोहन भागवत के बयान पर भी उन्हें स्पष्ट जवाब देना होगा। जातिगत आरक्षण के युद्ध में मोदी जी लालू और नितीश को हरा पाएंगे अभी तो मुस्किल लगता है, बाकि वक्त बताएगा।

Sunday, October 25, 2015

OPINION -- " मन की बात " केवल " मीठे प्रवचन " बन गयी है।

             हर महीने की तरह आज भी प्रधानमंत्री की मन की बात हुई। देश के सामने पिछले एक महीने में कई जलते हुए सवाल सामने आकर खड़े हो गए हैं। पुरे देश से प्रधानमंत्री से इस पर बोलने और कुछ बातों की स्पष्टता करने की मांग जोर से उठ रही है। लेकिन इस बार फिर मन की बात केवल " मीठे प्रवचन " ही साबित हुई। मैं हैरान हूँ की देश के सबसे जिम्मेदार पद पर बैठे व्यक्ति को एक भी सवाल पर बोलने की जरूरत महसूस नही हुई। प्रधानमंत्री ने कहा की भारत- दक्षिणी अफ्रीका मैच दिलचस्प दौर में पहुंच गया है। सुन कर वितृष्णा सी हुई। क्या देश ये बात सुनने के लिए इंतजार कर रहा था। एक बात बिलकुल साफ हो गयी की मन की बात के लिए जो लोग भी भाषण लिखते हैं, उन्हें ये निर्देश दिए गए हैं की देश की किसी भी प्रमुख समस्या का जिक्र भाषण में नही होना चाहिए। प्रधानमंत्री जनता के किसी भी सवाल का जवाब देना ना तो जरूरी समझते हैं और ना ही उपयोगी।
                 इस बात का आरोप लगता रहा है की हमारे प्रधानमंत्री बोलने में बहुत कुशल हैं और इस कुशलता का वो भरपूर फायदा भी उठाते हैं। लेकिन ये बात भी उतनी ही सच है की ये सारी कुशलता वहां तक ही सिमित है जहां किसी की सवाल का जवाब नही देना हो। अपने बोलने की आदत को लेकर प्रधानमंत्री ने कुछ नई परम्पराएँ भी स्थापित की हैं। जैसे अब तक ये परम्परा रही थी की कोई भी प्रधानमंत्री अपने विदेश दौरों पर घरेलू मतभेदों की बात नही करते थे। पिछली सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों को वर्तमान सरकार द्वारा समर्थन दिया जाता था। क्योंकि विदेश नीति एक निरंतर प्रक्रिया है और किसी भी विदेशी सरकार को इस बात से कोई मतलब नही होता की कब किस पार्टी की सरकार रही। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सभी विदेशी यात्राओं में पिछली सरकार को नालायक, अक्षम और भृष्ट साबित करने की पूरी कोशिश की। पहले ऐसा कभी नही हुआ। अब विदेश नीति के मामले पर भी पार्टीगत लाइन लेने की शुरुआत कर दी गयी जो देश हित में नही है। क्योंकि ऐसा तो हो नही सकता की प्रधानमंत्री विदेश में ये कहें की आप आईये और हमारे देश में निवेश कीजिये और अब तक जो भृष्टाचार हमारे देश में होता था उसे हम बंद कर रहे हैं और इसके जवाब में कांग्रेस या पिछली सरकारों में रहे लोग ये कहें की हाँ, प्रधानमंत्री बिलकुल सच कह रहे हैं। प्रधानमंत्री ये कहें की हम पिछली सरकारों द्वारा की गयी गलतियों को सुधार रहे हैं और कांग्रेस ये कहे की हाँ, ये सरकार हमारी गलतियां सुधार रही है।
                    दूसरी जो चीज सामने आई है वो ये है की प्रधानमंत्री की ये सारी मुखरता तभी सामने आती है जब सामने कोई जवाब देने वाला नही होता। जब भी ऐसा मौका आया है की सामने दूसरे लोग भी मौजूद हैं जो आपकी बात का जवाब भी देंगे और सवाल भी खड़े करेंगे वहां प्रधानमंत्री कन्नी काट जाते हैं। इसके कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं। पहला ये की डेढ़ साल की सरकार के बाद भी प्रधानमंत्री ने एक भी पत्रकार वार्ता आयोजित नही की। जबकि ये परम्परा रही है की प्रधानमंत्री समय समय पर देश के प्रमुख संपादकों के साथ बातचीत का आयोजन करते हैं, उनके सवालों के जवाब देते हैं और सरकार के फैसलों के ओचित्य साबित करते हैं। लेकिन ऐसा एक बार भी नही हुआ। दूसरा उदाहरण संसद का है। पूरा का पूरा सत्र बेकार हो गया लेकिन प्रधानमंत्री ने विपक्ष के उठाये किसी भी मामले पर चुप्पी नही तोड़ी। यहां तक की प्रधानमंत्री संसद की बैठकों में आने से भी बचते रहे। संसद में चल रहे गतिरोध को दूर करने के प्रधानमंत्री की तरफ से कोई भी प्रयास नही हुए और सरकार द्वारा बुलाई गयी एकमात्र सर्वदलीय बैठक में भी प्रधानमंत्री नही आये। इसलिए ये बात अब जोर पकड़ने लगी है की प्रधानमंत्री वहीं बोलते हैं जहां कोई दूसरा नही होता। ऐसा तो लोकतंत्र की परम्परा नही है। फिर विपक्ष पर ये आरोप लगाना की वो सरकार का सहयोग नही कर रहा है एकदम उलटी ही बात है। संसद में लटके हुए कई बिलों पर जिनकी कॉर्पोरेट सैक्टर को बीजेपी से बहुत जल्दी पास करने की उम्मीद थी अब उसकी आशाएं और धर्य खत्म होता जा रहा है। अभी कॉर्पोरेट सैक्टर इस पर एतराज नही जताता लेकिन वह बहुत दिन इंतजार कर पायेगा इसमें शक है। राहुल बजाज और रतन टाटा जैसे लोग तो थोड़ा थोड़ा बोलना भी शुरू कर चुके हैं।
                 प्रधानमंत्री देश के नेता होते हैं। आज जब देश में जातीय और साम्प्रदायिक हमलों की बाढ़ सी आ गयी है और अभिव्यक्ति की आजादी पर सवाल खड़े हो रहे हैं और इन सब का आरोप उन्ही संगठनो पर लग रहा है जिस संगठन से खुद प्रधानमंत्री और उनके ज्यादातर मंत्री आते है, ऐसी हालत में लोग प्रधानमंत्री से आश्वासन चाहते हैं। और प्रधानमंत्री केवल प्रवचन दे रहे हैं। लोगों में ये बात घर कर रही है की संत-महंत और साधु साध्वियां सरकार चला रहे हैं और नेता प्रवचन कर रहे हैं।

Saturday, October 24, 2015

NEWS-- गौ-हत्या पर प्रवीण तोगड़िया का बयान

 खबरी -- प्रवीण तोगड़िया ने कहा है की गौ-हत्या करने वाला हिंदुस्तान में नही रह सकता।

गप्पी -- लेकिन भाई साब, यहां तो गौ पालने वालों का रहना मुश्किल हो गया है। महाराष्ट्र में सुखा पड़ा है और जानवरों के चारे के लिए कुछ नही बचा है। बयान देने की बजाय उन किसानो और गायों के लिए तो कुछ कीजिये। इन गायों को ना मोदी बचा पा रहे हैं, ना मोहन भागवत " जिनके नाम में कृष्ण और उनकी गीता दोनों शामिल हैं" और ना फड़नवीस।

Friday, October 23, 2015

OPINION -- सम्मान लौटाने वाले लेखकों का विरोध करने वालों के कुतर्क

      साहित्य अकादमी व अन्य सम्मान लौटाने वाले लेखकों ने इस दौर की असहिष्णुता और हमलों का विरोध करने के लिए जो तरीका अपनाया उसके पीछे मुख्य रूप से एक संस्था के रूप में अपने सदस्यों की सुरक्षा के मुद्दे पर अकादमी की विफलता का विरोध ही मुख्य था। इस बात पर की स्वतंत्र लेखन और विरोध की आवाज को चुप करवाने के लिए हो रहे हमले तेज हो रहे हैं शायद ही कोई तटस्थ आदमी इंकार कर सके। असहिष्णु हमलों की एक पूरी श्रृंखला सामने है और इसका नेतृत्व सत्ता में बैठे दल से संबंध रखने वाली विचारधारा के लोग कर रहे हैं। सरकार की चुप्पी उकसावे का काम कर रही है। जाहिर है की इसे बिना विरोध के नही जाने दिया जा सकता।
                  लेकिन सम्मान लौटाने वाले लेखकों के विरोध में प्रदर्शन करने वाले लोगों ने टीवी के सामने जो तर्क दिए वो हैरान करने वाले हैं। उन्होंने सरकार के प्रवक्ताओं की जुबान में जुबान मिलाते हुए इन लेखकों पर एक विचारधारा से संबन्धित होने का आरोप लगाया। उनका ये आरोप की ये सब वामपंथी विचारधारा से  हैं अगर सीधा सीधा मान लिया जाये तो भी किसी विचारधारा से संबंधित होना क्या कोई अपराध है ? संघ परिवार से जुड़े लोगों में वामपंथी लेखकों के प्रति ईर्ष्या का भाव हमेशा से रहा है। वामपंथी लेखकों के लेखन का स्तर और पूरी दुनिया में उनकी मान्यता और सम्मान इन लोगों से कभी बर्दाश्त नही हुआ। फिर भी हम इस आरोप की थोड़ी छानबीन करते हैं।
                  इन लेखकों ने आरोप लगाया है की साहित्य अकादमी पर हमेशा से वामपंथी विचारधारा के लेखकों का कब्जा रहा है और साहित्य अकादमी पुरुस्कार भी योग्यता के आधार पर नही बल्कि विचारधारा के आधार पर दिए जाते हैं। अब इस पर एक सवाल खड़ा होता है। देश में साहित्य अकादमी के अलावा भी ऐसी प्रतीष्ठित संस्थाए हैं जो  साहित्य के क्षेत्र में अवार्ड देती हैं। हमारे ही देश में साहित्य के क्षेत्र में सबसे प्रतिष्ठा प्राप्त जो सम्मान है वो भारतीय ज्ञानपीठ है। यह सम्मान देश के एक बहुत ही सम्मानित प्रकाशन समूह की तरफ से दिया जाता है। इस सम्मान को तय करने के लिए जो समिति है उसमे देश के सबसे सम्मानित और योग्य लोग होते हैं। साहित्य अकादमी सम्मान प्राप्त लेखकों को दरबारी बताने वाले ये लेखक बताएंगे की उनमे से कितनो को ज्ञानपीठ सम्मान मिला है ? और जिन लोगों को अब तक ज्ञानपीठ सम्मान दिया गया है उनमे कितने लेखक ऐसे हैं जिनको साहित्य अकादमी सम्मान नही मिला है। शायद ही वो कोई नाम ढूंढ पायें। तो क्या भारतीय ज्ञानपीठ भी वामपंथियों की संस्था है ?
                    इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी कई सम्मान हैं। उनमे से कौन कौनसे सम्मान इन तथाकथित साहित्यकारों को मिले हैं। नही जनाब, आपको अगर साहित्य अकादमी सम्मान नही मिला तो इसलिए नही मिला की आप उसके लायक नही थे। आप लोगों ने इन लेखकों का विरोध करके भी अपनी समझ के स्तर का सबूत दे दिया है। कोई लेखक या कलाकार किसी चीज का विरोध किस तरह करता है ये उसका अधिकार है। जिन लेखकों ने अकादमी के विरोध में सम्मान नही लौटाया, उनका भी ये अधिकार है। उन्होंने सम्मान नही लौटाया तो इसका मतलब ये नही हो जाता की उनका स्तर नीचा है या की वो इस माहोल का विरोध नही करते। लेकिन जिन्होंने सम्मान लौटाया है उन्हें दरबारी कहना केवल स्तरहीन समझ है।
                   सरकार की हाँ में हाँ मिलाने वाले और उससे फायदा उठाने की कोशिश करने वाले लोग हर दौर में रहे हैं। आज इस दौर में वो लोग कौन हैं उन्होंने अपनी पहचान सार्वजनिक कर दी है।

Wednesday, October 21, 2015

OPINION -- अब अल्पसंख्यक आयोग ने कहा मुस्लिमो में डर का माहोल

खबरी -- अब अल्पसंख्यक आयोग की टिप्पणी भी सरकार के अनुकूल नही है।

गुप्पी -- 2002 के गुजरात दंगों के बाद हर उस संस्था को चाहे वो मानवाधिकार आयोग हो, अल्पसंख्यक  ,विपक्ष के नेता हों, यहां तक की उच्चत्तम न्यायालय को भी हिन्दू विरोधी घोषित कर दिया गया था। उस समय गुजरात के स्थानीय अख़बारों में इस आशय के पुरे पुरे पेज के विज्ञापन आते थे। सबको चुप रहने का फरमान सुना दिया गया था। बीजेपी और संघ का हर नेता एक ही बात बोलता था की ये गुजरात को बदनाम करने की साजिश है। अब एक बार फिर व्ही किया जा रहा है। विरोध करने वाले लेखकों को  लेकर पाकिस्तानी तक कहा जा रहा है। हर उस आदमी को, सरकार के कामकाज पर सवाल उठाता है देशद्रोही घोषित किया जा रहा है। देश भक्ति का ठेका केवल संघ परिवार के पास है।

NEWS-- गुजरात में स्थानीय निकाय चुनाव से संबंधित बीजेपी सरकार का अध्यादेश उच्च न्यायालय द्वारा ख़ारिज

 खबरी -- अब गुजरात सरकार का अध्यादेश भी ख़ारिज।

गप्पी -- गुजरात सरकार ने राज्य में पटेल आंदोलन के कारण पैदा हुई स्थिति के कारण होने वाले चुनावी नुकशान को देखते हुए स्थानीय निकायों के चुनावों को तीन महीने आगे सरकाने का अध्यादेश जारी किया था जिसे उच्च न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित कर दिया। हरियाणा में भी राज्य सरकार ने तरह तरह के बहाने और शर्तें लगाकर चुनाव को लटका रखा है। दोनों राज्यों के उच्च न्यायालय इस पर अपनी नाराजगी प्रकट कर चुके हैं। लेकिन बीजेपी को सही बात तभी समझ में आती है जब उसके पास और कोई रास्ता नही रहता।

Tuesday, October 20, 2015

NEWS -- बिहार चुनाव में दाल मुद्दा बन रही है।

खबरी -- बिहार से आ रही खबरों से पता चलता है की वहां चुनाव में दाल एक बड़ा मुद्दा बन रही है।

गुप्पी -- सारी कोशिशों और चालबाजियों के बाद भी जनता के असली मुद्दे दब नही पाये। महंगाई पर अब बीजेपी वही तर्क दे रही है जो पिछली सरकार देती थी और मोदी जी उसे मिस-मैनेजमेंट बताते थे। मोदी जी ने ऐसी हवा बनाई थी जैसे वो देश की सभी समस्याएं हल कर देंगे लेकिन एक भी चीज ऐसी नही है जिसको वो उपलब्धि के रूप में सामने रख सकें। विफलताओं का बोझ लगातार बढ़ रहा है, उस पर देश में बिगड़ता हुआ भाईचारे का माहोल लोगों के दिलों पर नमक छिड़क रहा है।

Monday, October 19, 2015

OPINION -- उच्चत्तम न्यायालय के फैसले पर उठे सवालों का जवाब

NJAC  पर माननीय उच्चत्तम न्यायालय का फैसला आने के बाद सरकार के कुछ मंत्रियों और दूसरे लोगों की नकारात्मक प्रतिक्रियाएं आई हैं। इसमें अरुण जेटली ने चुने हुए लोगों के फैसले को गैर चुने हुए लोगों द्वारा बदले जाने और फैसले को कुतर्क पर आधारित बताया था। जिस पर बहुत से लोगों ने अरुण जेटली से नाराजगी भी जताई थी। किसी भी कानून के निर्माण को न्यायायिक छानबीन के तहत माना गया है और संविधान में इसका प्रावधान है। पहले भी बहुत से कानूनो को न्यायालयों ने रद्द किया है। जब कोई कानून बनता है तो ये तो स्वयं सिद्ध है की वो बहुमत का प्रतिनिधित्त्व करता है, फिर ये बहुमत कितना है या फिर सर्वसम्मत है इससे न्यायालय द्वारा छानबीन के संविधान प्रदत्त अधिकार पर क्या फर्क पड़ता है। न्यायालय जब किसी कानून की छानबीन करता है तो इस आधार पर करता है की वो कानून संविधान के बेसिक ढांचे या अधिकारों का उललंघन तो नही करता। उसमे इस बात का कोई लेना देना नही होता की उसको कितने बहुमत ने पास किया है। अरुण जेटली पहले भी " चुने हुए लोगों " का सवाल राज्य सभा के संदर्भ में उठा चुके हैं। और ये भी एक विडंबना है की खुद अरुण जेटली चुनाव हारे हुए हैं और राज कर रहे हैं। उन्हें शपथ लेते वक्त इस बात का बिलकुल ख्याल नही आया की लोकसभा चुनाव में लोगों ने उन्हें रिजेक्ट किया है।
             इस सवाल पर THE HINDU में उच्चत्तम न्यायालय के रिटायर्ड मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर एम लोढ़ा ने एक लेख में इन सब सवालों के जवाब हैं। इसे इस लिंक से देखा जा सकता है --http://www.thehindu.com/opinion/lead/njac-constitutions-will-upheld/article7781047.ece?homepage=true

NEWS -- महामहिम राष्ट्रपति जी और मोदी जी क्या चाहते हैं ?

खबरी -- राष्ट्रपति महोदय का एक नया बयान आया है।

गप्पी -- मुझे ये बहुत गड़बड़ की बात लग रही है। प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं की राष्ट्रपति जी ने रास्ता दिखाया है और उनकी ही बात सुनिए। और राष्ट्रपति महोदय ने कहा है की बाँटने वाली ताकतों को हराइये।  देश को बाँटने वाली ताकतों को हराना ही होगा। अब सारा देश देख रहा है की ये ताकतें कौनसी हैं। पूरा लेखक समुदाय इनके खिलाफ उठ खड़ा हुआ है। साथ ही बिहार में चुनाव हो रहे हैं। इन चुनाओं में मोदी जी सचमुच क्या चाहते हैं ये बहुत कन्फ्यूजन की बात है।

NEWS-- रशीद पर स्याही फेंकने और BCCI के दफ्तर पर हल्ला बोल पर

  दादरी और कलबुर्गी की हत्या पर प्रधानमंत्री ने कहा की इसमें केंद्र का क्या रोल। आज कश्मीर के विधायक रशीद पर दिल्ली में स्याही फेंकी गयी और महाराष्ट्र में BCCI के दफ्तर पर शिवसेना ने हल्ला बोला, इन दोनों ही जगह पर कानून और व्यवस्था की जिम्मेदारी आपकी सरकार की है। दूसरे जो आपके प्रवक्ता टीवी चैनलों पर बैठकर ये सिद्ध कर रहे थे की देश में माहोल इतना भी खराब नही है वे अब रोज रोज क्या कहेंगे।

NEWS -- साहित्यकारों को प्रधानमंत्री से बात करने की सलाह।

खबरी -- बीजेपी और आरएसएस के प्रवक्ता साहित्यकारों को प्रधानमंत्री से बात करने की सलाह दे रहे हैं।

गुप्पी -- एक तो प्रधानमंत्री पहले ही कह चुके हैं की इसमें केंद्र का क्या रोल।  दूसरे, माहोल को खराब करने वालों की शिकायत संघ या प्रधानमंत्री से करने की बात पर मुझे एक हरियाणवी कहावत याद आ गयी। एक जवान लड़का गांव की गली में सरेआम खड़ा होकर पेशाब कर रहा था। गांव वालों ने देखा तो बहुत नाराज हुए। उसके बाद कुछ समझदार लोगों ने सुझाव दिया की इसके बाप को इसकी शिकायत की जाये। गांव वाले उसे लेकर उसके घर गए तो देखते हैं की उसका बाप पेशाब करते करते पुरे आँगन में चककर लगा रहा है।

NEWS -- बिहार चुनाव पर नेताओं के बयान

बिहार चुनाव पर बोलते हुए अमित शाह ने कहा है की " हम पिछड़े और दलितों को साथ लेकर चलेंगे। "

बिहार चुनाव पर लालू यादव ने कहा है की ," हम पिछड़ों और दलितों की खुद की सरकार बनाएंगे। "

बिहार चुनाव पर लेफ्ट के नेताओं ने कहा है की " सरकार बनाने का काम तो खुद लोगों को ही करना है। "

Sunday, October 18, 2015

NEWS -- मुंबई में BCCI , शिवसेना और बीजेपी का फ्रेंडली मैच

 खबरी -- BCCI के दफ्तर में शिवसैनिकों के हंगामे पर क्या कहना है ?

गप्पी -- ये शिवसेना, बीजेपी और BCCI का फ्रेंडली मैच था। शशांक मनोहर की प्रतिक्रिया से ऐसा लग रहा था की वो शिव सैनिकों का इंतजार कर रहे थे , गेट पर खड़े दो गार्डों ने जानबूझकर गेट खोला और पुलिस नदारद थी। जब सौ के करीब शिवसैनिक BCCI कार्यालय में घुसकर धमकी  थे तब पुलिस आकर उनके नीचे आने का इंतजार कर रही थी। उनके नीचे आने के बाद 10-15 लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और बाकि को सम्मान पूर्वक जाने दिया। अब पुलिस थाने में ही इनकी जमानत कर दी जाएगी और शांति भंग करने जैसी हल्की धाराएं लगाई जाएँगी। अगर विरोधी पार्टी के कार्यकर्ता होते तो देशद्रोह, जान से मरने की धमकी देने और सरकारी सम्पत्ति को नुकशान पहुंचाने जैसी गंभीर धाराएं लगाई जाती।
       महाराष्ट्र में GOOD Governance के दावे के साथ जंगल राज है और देश इसे देख रहा है।

क्या बाबा रामदेव जैसे संत के लिए दूसरे जीव का हक हड़पना सही है ?

खबरी -- बाबा रामदेव ने गौमांस ना खाने की सलाह दी है।

गप्पी -- ये तो वही बात हुई की " पर उपदेश कुशल बहुतेरे "  हिन्दू धर्म में जीवमात्र के लिए समानता की बात कही  गयी है।  गाय का दूध उसके बछड़े का हक होता है और ये प्राकृतिक रूप से भी सत्य है। जिस तरह गौमांस खाने के खिलाफ कई वैज्ञानिक कारण गिनाये जाते हैं, उसी तरह दूध पीने के खिलाफ भी मैं दस वैज्ञानिक कारण बता सकता हूँ। लेकिन मेरा केवल इतना कहना है की जो आदमी खुद को सन्त कहता है क्या उसके लिए ये शोभा देता है की वो दूसरे जीव का हक हड़प कर खुद खाये। हाँ वो गोमूत्र पी सकते हैं।

NEWS -- प्रधानमंत्री की नाराजगी पर मीडिया झूठ बोल रहा है ?

खबरी -- क्या वाकई में प्रधानमंत्री बीफ पर आये बयानों से नाराज हैं ?

गप्पी -- मुझे लगता है की मीडिया बेवजह इस बात को प्रचारित कर रहा है। क्योंकि --
क्या प्रधानमंत्रीजी का कोई बयान आया है ?
नही।
क्या प्रधानमंत्रीजी ने कोई ट्वीट किया है ?
नही।
क्या बीजेपी का कोई बयान आया है ?
नही।
क्या बुलाये गए नेताओं ने ऐसा कहा है ?
नही।
क्या प्रधानमंत्रीजी या अमित शाह ने कोई सार्वजनिक लताड़ लगाई है ?
नही।
तो फिर मीडिया को कैसे पता ?

NEWS -- सऊदी पुलिस ने हाथ काटने वाले मामले में भारतीय नौकरानी को ही दोषी ठहराया।

photo of a Indian maid in Saudi

खबरी -- खबर आई है की भारतीय नौकरानी का हाथ काटने वाले मामले में सऊदी अरब की पुलिस ने नौकरानी पर ही दोष दाल दिया है।

गप्पी -- इस खबर पर भारतीय विदेश मंत्री श्रीमती शुष्मा स्वराज ने कहा था की बात अब बर्दाश्त से बाहर हो गयी है। लेकिन उसके बाद लोगों की ये आशंका सही साबित हुई है की इस सरकार की कोई इच्छा और हैसियत सऊदी सरकार पर कार्यवाही के लिए दबाव डालने की नही है। लोग एकबार फिर 56 इंच की छाती वाला मुहावरा याद करेंगे।
photo of Shushma swraj
    हर बार बीजेपी नेता और मंत्री भारी भारी बयान देते हैं और फिर पानी में बैठ जाते हैं। इससे सरकार की शाख समाप्त हो रही है।

NEWS -- बाबा रामदेव का विदेशी कम्पनियों पर बयान

खबरी -- बाबा रामदेव ने कहा है की वो विदेशी कम्पनियों को भगाकर ही दम लेंगे।

गप्पी -- बाबा रामदेव बाबा कम हैं और व्यापारी ज्यादा हैं। वो उन्ही कम्पनियों की बात कर रहे हैं जो व्ही सामान बेचती हैं जो उनकी पतञ्जलि कम्पनी बेचती है। कल जब वो बिग बाजार के साथ हुए समझौते पर प्रैस कॉन्फ्रेंस कर रहे थे तो कह रहे थे की अगले कुछ दिनों में बड़ी विदेशी कम्पनियों के स्टोर में भी पतंजलि का सामान बिकेगा। ये है असलियत। बाबा रामदेव विशुद्ध व्यापार कर रहे हैं, वो कोई फ्रीडम फाइटर नही हैं।

NEWS -- आरएसएस के मुखपत्र पाञ्चजन्यमें गौ -हत्या पर लेख

खबरी -- पाञ्चजन्य में गौ-हत्या पर जो लेख है उस पर आपका क्या कहना है ?

गप्पी -- इस लेख में लिखा है की अख़लाक़ की हत्या वेद के अनुसार ही की गयी है। लेकिन वेदों के जानने वालों ने सवाल उठाया है की कौनसे वेद में इस तरह की बात कही गयी है ? आरएसएस हमेशा पुराने हिन्दू ग्रंथों का नाम अपनी राजनीती को आगे बढ़ाने के लिए करता रहा है। दूसरा सवाल ये है की एक सभ्य समाज में जहां कानून का राज होता है वहां देश की व्यवस्था संविधान के अनुसार चलती है, किसी धर्म की धार्मिक पुस्तकों के आधार पर नही। 

NEWS -- बीफ बयान पर अमित शाह की बैठक

खबरी -- सुना है बीफ बयान पर प्रधानमंत्री नाराज हैं और अमित शाह ने बयान देने वाले नेताओं को तलब किया है ?

गप्पी -- मुझे नही लगता की प्रधानमंत्री नाराज हैं। अब तक खुद अमित शाह और प्रधानमंत्री बिहार में बीफ पर जोर शोर से बयान दे रहे थे। बिहार में ही गिरिराज सिंह बीफ के सवाल पर जहर उगलते रहे हैं उन्हें तो अमित शाह ने नही रोका। लगता है की बीजेपी को महसूस हो रहा है की बीफ के मामले से फायदा होने की बजाय नुकशान हो रहा है इसलिए वो अपनी स्ट्रैटजी बदल रही है। वरना इन नेताओं पर कार्यवाही हो जाती।

Thursday, October 15, 2015

Economy -- रिवर्स रेपो रेट ( Reverse Repo Rate ) कम करे रिजर्व बैंक ( RBI )

अर्थ व्यवस्था में तेजी  लाने के लिए ब्याज दरों में कमी की मांग लगातार उठती रही है। रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के साथ तो इस मुद्दे पर वित्त मंत्री के मतभेद मीडिया में भी चर्चा का विषय रहे हैं। रिज़र्व बैंक महंगाई सहित कई चीजों को ध्यान में रखकर अपनी नीति की घोषणा करता है। देश के हालात की समीक्षा और उसके नतीजों पर अलग अलग विचार हो सकते हैं। परन्तु हमारे देश में ऊँची ब्याज दरों को अर्थ व्यवस्था में तेजी ना आने के लिए जिम्मेदार माना गया। इस पर वित्त मंत्री और दूसरे उद्योगपतियों के साथ साथ वित्त विशेषज्ञ भी अपना एतराज जताते रहे हैं। लेकिन मूल सवाल ये है की अर्थ व्यवस्था की तेजी का मामला केवल रिजर्व बैंक द्वारा रेट कम करने तक है या बैंकों द्वारा ब्याज दरों को कम करके आम उपभोक्ता तक पंहुचाने से जुड़ा है। अब तक रिजर्व बैंक 1. 25 % की दर कम कर चूका है लेकिन बैंकों ने केवल 50 -60 पैसे कम किये हैं। हैरत की बात है की जो वित्त मंत्री रिजर्व बैंक की रेट ना घटाने को लेकर सार्वजनिक आलोचना करते रहे हैं उन्होंने बैंको के रेट कम ना करने को लेकर एक शब्द नही बोला। दूसरे उद्योगपति और विशेषज्ञ भी इस पर आश्चर्य जनक रूप से चुप्पी साधे हुए हैं। आखिर ये खेल क्या है ?
                   खेल ये है की अब तक रिजर्व बैंक ने जिस रेट को कम करने की घोषणा की है उसका एक बड़ा हिस्सा बैंकों ने अपने मुनाफे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल कर लिया। एक तरफ उन्होंने लोन की दरें कम नही की , दूसरी तरफ उन्होंने लोगों द्वारा जमा करवाये जाने वाले डिपॉजिट पर ब्याज कम कर दिया। इससे लोन लेने वाले लोगों, या पहले से लोन ले चुके लोगों को तो कोई लाभ हुआ नही उल्टा बैंक में पैसा रखकर ब्याज पर गुजारा करने वाले रिटायर लोगों के लिए जरूर मुश्किलें खड़ी हो गयी। इस सारे खेल में किसी को अगर कोई फायदा हुआ तो वो बैंक ही हैं जिनके मुनाफे बिना कुछ किये बढ़ गए। आश्चर्य है की वित्त मंत्रीजी को अब अर्थ व्यवस्था पर उसके कुप्रभाव नजर नही आये। उद्योग पतिओं के मुनाफे पर आँख मूंदने वाली सरकार से और क्या उम्मीद की जा सकती है।
                     इस सारी व्यवस्था पर रिजर्व बैंक के गवर्नर जरूर अपनी नाराजगी व्यक्त करते रहे हैं। उन्होंने बैंको को ब्याज कम करने की हिदायत भी दी। लेकिन इस तरह की हिदायतों को हमेशा की तरह बैंकिंग सेक्टर ने नजरअंदाज कर दिया। इसलिए बैंको को ब्याज दर घटाने के लिए मजबूर करने के लिए और ग्राहकों तक इसका लाभ पंहुचाने के लिए रिजर्व बैंक को चाहिए की वो रिवर्स रेपो रेट में 1 % की कमी करे। पहले रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट में दो प्रतिशत का अंतर होता था जिसे कम करते करते एक प्रतिशत पर ले आया गया। ये वो दर होती है जिसके अनुसार बैंको को अपना अतिरिक्त पैसा रिजर्व बैंक में पार्क करने पर रिजर्व बैंक उन्हें ब्याज के रूप में देती है। अगर ये दर अपेक्षाकृत रूप से कम होगी तो बैंक अपना पैसा रिजर्व बैंक में पार्क करने की बजाए थोड़ा कम ब्याज पर बाजार में लोन के रूप में देंगे। अगर सरकार और रिजर्व बैंक सचमुच ब्याज दरों में कमी लाना चाहती है और उपभोक्ताओं तक उसका लाभ पंहुचना चाहती है तो उसे तुरंत ये फैसला ले लेना चाहिए।

Wednesday, October 14, 2015

व्यंग -- नाग ( सांप ) हत्या पर प्रतिबंध की मांग और इच्छाधारी नाग .

गौ हत्या पर प्रतिबंध की मांग जबसे जोर पकड़ रही है उसके बाद से मुझे उम्मीद बंधी है की नागों की हत्या पर प्रतिबंध की मांग भी उठेगी। गौ-हत्या पर तो राजनैतिक पार्टियां और खासकर बीजेपी तो ऐसे ऐसे राज्यों में प्रतिबंध की मांग कर रही है जहां सालों पहले से प्रतिबंध है। उसे पता है, लेकिन वो फिर भी कह रही है की अगर उसकी सरकार आई तो वो गौ-हत्या पर प्रतिबंध लगाएगी। कारण ये है की हिन्दू गाय की पूजा करते हैं। भगवान कृष्ण का गाय के साथ संबंध सबको पता है। भगवान शिव के परिवार में भी नंदी बैल स्थाई सदस्य है। देवी पार्वती को गुजरात में उमा ( उमिया ) देवी के नाम से जाना जाता है और गाय की सवारी करते दिखाया गया है। लेकिन मुझे बड़ा अफ़सोस है की इसी परिवार के दूसरे सदस्य नाग देवता को सब भूल गए हैं। नागों का महत्त्व शिव परिवार के बाहर भी है। स्वयं विष्णु शेषनाग पर विराजमान हैं। उसके अलावा भी नागों को हिन्दुओं का एक तबका देवता मानता है। उसकी पूजा होती है। उसके लिए तो दिन तक मुकर्रर किया गया है, नागपंचमी। हमारे हिन्दू धर्म में ये भी एक खासियत है की इसमें अधिकतर जानवरों को देवता का दर्जा दिया गया है भले ही आदमीओं को अछूत माना गया हो।
                      लेकिन सांपों की अपनी अलग महिमा है और इनके मारने पर प्रतिबंध जरूरी है। मेरे पड़ोसी को जब मैंने अपनी इस मांग के बारे में बताया तो उसने कहा की सभी बड़े सांपों को तो जैड-प्लस श्रेणी की सुरक्षा प्राप्त है फिर तुम और क्या चाहते हो। लेकिन मैं तो सचमुच के सांपों के बारे में बात कर रहा था और वो उन सांपों के बारे में बात कर रहे थे जिन्होंने पुरे देश को अपनी जकड़ में ले रखा है। इनके जहर से बस्तियां की बस्तियां समाप्त हो रही हैं। इनकी फुफकार चारों और सुनाई दे रही है। इनकी फुफकार को राष्ट्रिय गान का दर्जा दिया जा चूका है। सरकार इनकी फुफकार को ही देश की असली श्वसन प्रणाली मानती है। इनकी फुफकार का जहर आहिस्ता आहिस्ता हवा में घुल रहा है और जो भाईचारा और एकता के अदृश्य धागे लोगों को जोड़े हुए हैं ये उनको गलाता रहता है। फिर इसकी गहनता बढ़ती जाती है और ये सांसों के द्वारा मनुष्य शरीर में प्रवेश करता है और जो मूल्य सदियों में मनुष्य जाति ने अर्जित किये हैं उन्हें कैंसर के वायरस की तरह खाता रहता है।  कुछ दिन बाद पूरा समाज मूल्य विहीन भीड़ में बदल जाता है। लेकिन इनको तो कोई खतरा नही है। मेरे पड़ोसी फिर कहते हैं की भाई, तुम आदमियों की सुरक्षा मांगने की बजाए सांपों की सुरक्षा के पीछे क्यों पड़े हो ?
                      मैंने कहा की रिवाज ही ऐसा है। जो लोग गायों की सुक्षा की मांग कर रहे हैं वो इसके लिए लाखो आदमियों को मारने को तैयार हैं। इस देश में आदमी अवांछित प्राणी है। आदमी गायों के लिए है, सांपों के लिए है। उसके मरने से किसी को कोई फर्क नही पड़ता। लेकिन गाय के मरने से पड़ता है। इसलिए मेरा मानना है की सांप भी  पवित्र हैं, बल्कि मेरी माने तो उससे भी ज्यादा पवित्र हैं इसलिए उनके मारने पर भी प्रतिबंध लगाया जाये।
                        मेरे पड़ोसी ने कहा की तुमने फिल्मों में देखा होगा की कुछ नाग इच्छाधारी भी होते हैं। वो जब चाहे कोई भी रूप धारण कर लेते हैं। इसलिए हो सकता है की कुछ इच्छाधारी नागों ने मंत्रियों का रूप धारण कर लिया हो और बाद में वो इतना पसंद आ गया हो की वापिस अपने रूप में आना ही नही चाहते हों। एक अजीब सा भय मेरे शरीर में दौड़ गया। अब उनको पहचाना कैसे जाये। क्या पता कल जो नेता मुझसे वोट मांगने आया था वो भी इच्छाधारी नाग हो ? इस तरह सरकार में मंत्रियों के भेष में कितने इच्छाधारी नाग शामिल हों। मैंने थोड़ा डरते डरते अपने पड़ोसी से पूछा की इन इच्छाधारी सांपों को कैसे पहचाना जाये ? उसने कहा की काम बहुत मुस्किल है लेकिन एक तरीका है।
       मैंने तुरंत पूछा की क्या ?
 मेरे पड़ोसी ने कहा की कोई भी सांप, चाहे वो साधारण हो या इच्छाधारी, और किसी भी भेष में हो, वो कभी ना कभी जहर जरूर उगलता है। इसलिए ये ध्यान रखा जाये की कौन जहर उगल रहा है। इस तरह इन इच्छाधारी नागों की पहचान हो सकती है।
          मैंने कहा की अगर हम सरकार से मांग करें की वो छानबीन करके पता लगाये की कौन-कौन इच्छाधारी सांप सरकार और पार्टी में शामिल हैं तो कैसा रहेगा ?
           मेरे पड़ोसी ने मुश्कुराते हुए पूछा की जिस से तुम ये मांग करोगे, अगर वो खुद ही इच्छाधारी नाग हुआ तो ? तब तुम क्या करोगे। इसलिए इनकी पहचान तो लोगों को ही करनी होगी।

Saturday, October 10, 2015

Vyang -- गाय को राष्ट्रिय पशु घोषित करने के बाद के काम

बीजेपी और आरएसएस ने गाय को राष्ट्रिय पशु घोषित करने की मांग की है। वैसे तो इस मांग में ही इस समस्या का हल है। आरएसएस और बीजेपी अगर ये मान लेती हैं की गाय एक पशु है, फिर तो कोई समस्या ही नही बचती। समस्या तब खड़ी होती है जब वो इसे पशु मानने की बजाय माता कहने लगते हैं। समस्या ये है की बहुत से लोग गाय को माता नही मानते। ये उनका अधिकार है। आप किसी के सोचने के तरीके पर कोई पाबंदी तो लगा नही सकते। ठीक उसी तरह जो लोग गाय को माता मानते हैं उनका भी ये अधिकार है आप उन पर भी पाबंदी नही लगा सकते। अगर कोई आदमी गाय को माता मानता है, और गाय ही क्यों , वो किसी भी जानवर को माता मानता है तो उसे इसका अधिकार है आप उसे रोक नही सकते। रोक तो आप उसे भी नही सकते जो सगी माता को माता नही मानते हैं। इनमे से बहुत से ऐसे भी हैं जो सगी माँ को माँ नही मानते लेकिन गाय को माता मानते हैं। उसका एक बड़ा कारण ये है की गाय एक सुविधा युक्त माता है। उस पर ये आग्रह नही होता की आप इस माता को अपने साथ रखें। आप पड़ोसी की गाय को भी माता मान सकते हैं और माता मानने  के बाद आप पर कोई नैतिक या भौतिक जिम्मेदारी नही आती। जिन लोगों ने कभी अपनी सगी माता को माता नही माना, गाय को माता मानने से उनका अपराध बोध कुछ कम हो सकता है। अब ऐसी हालत में गाय को राष्ट्रिय पशु घोषित करने की मांग हो रही है। मैंने इस पर विचार करने की कोशिश की है की अगर गाय को राष्ट्रिय पशु घोषित कर दिया जाता है तो उसके बाद और क्या क्या करना पड़ेगा।
                   जो लोग गाय पालते हैं वो उसे दूध के लिए पालते हैं। उससे बैल भी मिलते हैं लेकिन अब इस दौर में बैलों की जरूरत कम हो गयी है। गाय हर रोज बीस से पच्चीस किलो चारा खाती है। इसलिए जो लोग गाय को दूध के लिए पालते हैं वो ये देखते हैं की कहीं चारे की कीमत दूध की कीमत से ज्यादा  ना हो जाये। इसलिए जब गाय बूढी होकर दूध देना बंद कर देती है तब किसान उसे बेच देते हैं। अब जब काम के लायक ना रहने के कारण कुछ लोग अपने सगे माँ या बाप को भी साथ रखने को तैयार नही हैं, और ये एक बड़ी सामाजिक समस्या के रूप में हमारे सामने है, और हम इसका कोई पुख्ता हल नही निकाल पाये हैं उस हालात में सरकार किसानो को इस बात के लिए मजबूर तो नही कर सकती की वो बेकार हो चुके गाय या बैल को अपने घर में रखे। उस हालत में सरकार को ये काम करने पड़ेंगे।
                 १. सरकार को गाय की पहचान के लिए एक आधार कार्ड की स्कीम बनानी होगी ताकि ये पहचान हो सके की ये गाय किसकी है।
                  २. जिस तरह बूढ़े लोगों को राहत देने के लिए सरकार बुढ़ापा पेंशन देती है, उसी तरह उसे बूढ़े और नाकारा हो चुके गाय और बैलों के लिए भी बुढ़ापा पेंशन देनी होगी ताकि उनके चारे का खर्चा निकल सके।
                  ३. बहुत से किसान ऐसे भी हैं जिनके पास दो पशुओं को रखने की जगह ही नही होती है इसलिए सरकार को उनके लिए लाखों की तादाद में गौशालाएं और बैलो के लिए ओल्ड एज होम बनाने पड़ेंगे। जाहिर है की ये काम कोई PPP मॉडल से तो हो नही सकता, इसलिए सरकार को इसके लिए अपने बजट में प्रावधान करना होगा। और इनकी संख्या को देखते हुए हमारे पुरे बजट में ये अकेला काम भी हो सकेगा या नही इसमें शक है , वरना इसके लिए वर्ल्ड बैंक से लोन लेना होगा।
                  ४. इस कानून के पालन के लिए विशेष निगरानी दस्तों की स्थापना करनी पड़ेगी और कुछ विशेष अदालतों का गठन भी करना पड़ेगा।
                 अगर सरकार ये सब काम कर सकती हो तो उसे गाय को राष्ट्रिय पशु घोषित करने की सोचनी चाहिए, वरना जो लोग आरएसएस की शाखाओं में बैठकर और सुबह एक रोटी गाय को खिलाकर अपना कर्तव्य पूरा समझ लेते हैं उन्हें कहा जाये की वो एक एक गाय पालकर दिखाएँ।
                   इसका दूसरा हल ये है की जो भी लोग भगवा कपड़े पहन कर समाज पर बोझ बने हुए हैं उनके लिए दो-चार गाय पालना अनिवार्य कर दिया जाये।     

Vyang -- बिजनेस, नैतिकता और राजनीती

जैसा की हमने पहले बताया था की हमारे मुहल्ले में एक करियाने के दुकानदार हैं और जो अपने आप को बीजेपी के अघोषित प्रवक्ता बताते हैं। हम कई बार उनकी राय जानने की कोशिश करते हैं। और वो बड़े धड़ल्ले से दुनिया के सभी मामलों पर अपना मत देते हैं। अब बिहार चुनाव पर कुछ घटनाएँ जो पिछले दिनों घटी, हमने उन पर उनकी राय जानने की कोशिश की।
          दुआ सलाम के बाद हमने उससे पूछा , " भाई साब ये खबर आई है की आपके तेज तर्रार हिंदूवादी नेता संगीत सोम उत्तर प्रदेश की मशहूर अल-दुआ नाम की बीफ सप्लाई करने वाली कम्पनी के हिस्सेदार रहे हैं, इस पर आपका क्या कहना है। "
            उन्होंने एक दम शान्ति से जवाब दिया ," देखिये लोगों को और खासकर विपक्षी पार्टियों को बिजनेस पर राजनीती नही करनी चाहिए। किसी कम्पनी में हिस्सेदारी  अपना निजी मामला है। किसी के निजी मामलों में दखल देना अच्छी बात नही है। "
            हमे इस जवाब की उम्मीद नही थी। सो कुछ देर हम सदमे की स्थिति में रहे। फिर अपने आप को संभाल कर बोले , " लेकिन अखलाक का परिवार क्या खाता है ये उसका निजी मामला नही था ? और व्यापार में अपनाये जाने वाले तरीके कब से निजी मामला हो गए ?"
              उसने फिर शान्ति से जवाब दिया, " व्यापार में केवल ये पूछा जाना चाहिए की क्या उसके पास लाइसेंस है या नही, अगर है तो बात खत्म हो जानी चाहिए। जहाँ तक अख़लाक़ की बात है वो एक हिन्दू देश में क्या खाता है ये उसका निजी मामला नही है। उसे क्या खाना चाहिए ये हम बताएंगे। इन दोनों मामलों को आपस में मिलाओ मत। अख़लाक़ का बीफ खाना गंभीर मामला है और लाइसेंस लेकर बीफ का निर्यात करना कानून के अनुसार सही है। "
              हमे समझ नही आ रहा था की हम उसके साथ बहस कैसे करें। हमने कहा , " अभी अख़बार में एक लेख आया है की विश्व हिन्दू परिषद के पूर्व अध्यक्ष विष्णु हरी डालमिया का परिवार दूसरे विश्व युद्ध के समय अंग्रेज सेना को गौ-मांस सप्लाई करता था। ऐसे परिवार के सदष्य को विश्व हिन्दू परिषद का अध्यक्ष कैसे बना दिया ?"
               उसने हमे ऐसे देखा जैसे हम पागल हो गए हों। फिर बोला, " आपने फिर बिजनेस की बात की। मैं आपको पहले ही बता चूका हूँ की बिजनेस के मामलों में राजनीती नही करनी चाहिए। और आपने ये ध्यान दिया की डालमिया परिवार ने हिन्दू धर्म की कितनी सेवा की। उन्होंने सारा गौ-मांस अंग्रेजों को खिला दिया और अपने देश के लोगों को धर्म भृष्ट होने से  बचा लिया। मैं फिर आपको कहता हूँ की बिजनेस को राजनीती या नैतिकता से मत जोड़ो। बिजनेस और नैतिकता दोनों विरोधी चीजें हैं। इस तरह तो आप ये पूछोगे की कोई बिजनेसमैन राजनेता पूरा टैक्स देता है या नही। अब टैक्स का राजनीती से क्या लेना देना है ?"
                 " आपका मतलब ये है की कोई आदमी कानून के अनुसार टैक्स ना देकर भी अच्छा राजनेता हो सकता है ? " हमने पूछा।
                 उसने फिर शान्ति से जवाब दिया, " हो सकता है का क्या मतलब है ? होते ही हैं। रोज इनकम टैक्स की रेड होती हैं, लोगों के पास काला धन मिलता है तो कोई पार्टी उसको पार्टी से निकालती है क्या ? बिजनेस, नैतिकता और राजनीती ये अलग अलग चीजें हैं। जब तक तुम इस बात को ठीक से नही समझोगे तब तक राजनीती को नही समझ सकते। "
                "  आपके हिसाब से ये जितने अपराधी आपकी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं उसमे कोई बुराई नही है। " हमने पूछा।
                " उनके आपराधिक मामलों पर कानून अपना काम करेगा और कर रहा है। उन पर कानून के अनुसार चुनाव लड़ने पर कोई रोक तो है नही। फिर उनके चुनाव लड़ने पर सवाल क्यों उठा रहे हो ?" उसने एतराज किया।
                  " आपकी पार्टी पर ये आरोप है की आपने अपनी सरकार होने का फायदा उठाकर अमित शाह के मामले में सुप्रीम कोर्ट में अपील नही की, जिससे वो बच गए। " हमने कहा।
                     वो फिर हमारी नासमझी पर थोड़ा सा मुस्कुराया फिर बोला , " क्या किसी मुसीबत में फंसे भारतीय की मदद करना अपराध है। हमने तो मानवीय कारणों से ललित मोदी तक की मदद की थी। फिर वही कानून का सवाल आता है। कानून में कहां लिखा है की हर मामले की सुप्रीम कोर्ट में अपील की जाएगी। देश की अदालतों पर वैसे ही मुकदमों की संख्या का बहुत भार है जिससे लोगों को न्याय मिलने में देरी हो रही है , हम चाहते हैं की अदालतें दूसरे मामलों पर ध्यान दें ताकि लोगों को जल्दी न्याय मिल सके। क्या लोगों को जल्दी न्याय मिले आपको इस पर एतराज है। " फिर उसने रास्ते पर जाते हुए दो-तीन लोगों को रोक कर ऊँची आवाज में पूछा , " क्यों भाइयो, देश के लोगों को जल्दी न्याय मिलना चाहिए की नही ?" जाने वाले लोगों ने कहा की जरूर मिलना चाहिए।
                        फिर उसने हमारी तरफ देख कर कहा, " देखो जनता भी अमित शाह के मामले में अपील न करने का समर्थन करती है। "
                 सचमुच हमारी समझ में कुछ नही आया और हम बेवकूफों की तरह आगे चले गए।

Friday, October 9, 2015

प्रधानमंत्री जी का भाषण और मुद्दे

एक भक्त -- प्रधानमंत्री जी आज खूब बोले।
आम आदमी -- किस पर, महंगाई पर ?
भक्त -- नही लेकिन……।
आदमी -- तो भृष्टाचार पर ?
भक्त -- नही वो मेरा मतलब।।।।।।।।।।।।।।।।।।
आदमी -- तो फिर काले धन पर बोले होंगे ?
भक्त --     वो बिहार में -------
आदमी -- ओह, तो युवाओं के रोजगार पर बोले होंगे ?
भक्त --    नही लेकिन  वो --------- .
आदमी --  तो क्या देश में सूखे के हालत पर बोले ?
भक्त  --   उस पर नही , वो तो -------
आदमी --  तो क्या किसानो की आत्महत्याओं पर बोले ?
भक्त  --  नही यार -------
आदमी -- तो फिर किस पर बोले ?
भक्त  --   वो बीफ पर।
 आदमी --   बीफ पर क्या बोले ?
भक्त   --   बोले, मेरा मतलब है उन्होंने कहा की बीफ नही खाना चाहिए , मेरा मतलब है हिन्दुओं को नही खाना चाहिए , उनका मतलब था यदुवंशियों को नही खाना चाहिए  और पुरे देश में किसी को नही खाना चाहिए लेकिन गोवा में चलेगा और जम्मू कश्मीर में जो सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया है उसका स्वागत करते हैं लेकिन किसी विधायक को नही खाना चाहिए और की ये की मतलब है बीफ का निर्यात किया जा सकता है लेकिन गायों को नही मारना चाहिए , लेकिन सरकार बीफ निर्यात पर सब्सिडी देगी वो सही है लेकिन बकरीद पर बकरों को नही मारना चाहिए और की बकरीद के बिना बकरे मारे जा सकते हैं और की सरकार चाहती है की सब मिलजुल कर रहें और कहीं दंगा या हत्या होती है तो उसे भूलकर आगे बढ़ना चाहिए और की ---पता नही।

Wednesday, October 7, 2015

राष्ट्र्वाद, मानवाधिकार और धर्म, सब बातें हैं बातों का क्या।

ये कुछ ऐसे शब्द हैं जो किताबों  दिए गए और जिनका उच्चारण कुछ लोग करते रहते हैं लेकिन इनका कोई व्यवहारिक मूल्य है मुझे इसमें शक है। ऐसा नही है की बिना पढ़े लिखे लोगों को ही इनका मतलब नही मालूम, बल्कि मुझे तो लगता है की ज्यादा पढ़े लिखे लोगों को तो इनका मतलब सचमुच नही मालूम।
                अभी दादरी की घटना हुई, इससे पहले भी इस तरह की घटनाएँ होती रही हैं। लोग इस पर तरह तरह की चालबाजी पूर्ण बातें करते हैं। परन्तु मुझे शायद ही कोई ऐसा आदमी मिला हो ( पूरी जिंदगी में पांच दस को छोड़कर ) जिनके जीवन में इन शब्दों का व्यवहारिक महत्त्व है। बड़े हिस्से के लोग और देश अपने अपने स्वार्थ से संचालित होते हैं। उन्हें केवल अपने हित दिखाई देते हैं बाकि चीजों से उन्हें कुछ लेना देना नही होता। अगर कानून नाम की संस्था, भले ही वो कितनी ही कमजोर क्यों ना हो, अस्तित्व में नही होती तो आज भी वो सारी चीजें चालू रहती चाहे वो सती प्रथा हो या दास प्रथा। इसे केवल कानून ने रोका।
                हमे ये लगता है की लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठेगा और लोग थोड़ा पढ़ लिख लेंगे तो इन चीजों को समझना शुरू करेंगे या उनमे मानवीय मूल्यों के प्रति संवेदना पैदा होगी। लेकिन जब धरातल पर इसका विश्लेषण करते हैं तो बात एकदम उलटी दिखाई देती है। सबसे ज्यादा पढ़े लिखे और सबसे ज्यादा आय वाले लोगों में लिंग अनुपात सबसे कम है। क्यों है, क्योंकि इन्होने तकनीक का इस्तेमाल करके लड़कियों को गर्भ में ही मार दिया। ये मानवीय मूल्यों पर बात करते हैं। नही, इनको केवल अपने वित्तीय स्वार्थ दिखाई देते हैं। लोग भाईचारे की बात करते हैं लेकिन उन्हें अगर ये लगता है की पड़ौस के कुछ लोगों की हत्या करके उनकी जान पहचान सीधे मंत्री से हो सकती है और उनको इसका फायदा मिल सकता है तो वो दंगों में भाग लेने के लिए तैयार हैं। गुजरात के दंगों में सीसी टीवी फुटेज में लोग महंगी गाड़ियां लेकर दुकानो को लूटते पाये गए। जब इनके बच्चे इन हत्याओं और दंगों के अपराध में जेल चले जाते हैं तो इनको भाईचारा याद आता है और ये राग अलापते हैं की पुरानी बातें भूल जाओ। इसका मतलब है की हमारे बच्चों को आजाद करवा दो। ये भाईचारा अपनी जरूरत की उपज है किसी संवेदना की उपज नही है।
                     सोशल मीडिया पर भी हम ऐसे बहुत से लोगों को देखते हैं जो पढ़े लिखे हैं और राष्ट्र्वाद के नारे लगाते हैं। और उनके काम और बातें देश को सौ टुकड़ों में बाँटने वाली होती हैं। उनका बस चले तो वो दस बीस करोड़ लोगों का कत्ल एक ही दिन में करवा दें। उनके लिए देश का मतलब कभी भी अपने फायदे से आगे नही जाता। वो किसी पार्टी के वेतनभोगी हो सकते हैं, किसी मंत्री या सांसद से जान पहचान के प्यासे हो सकते हैं या व्यापार में उनसे जुड़े हो सकते हैं। बढ़े हिस्से के लोग केवल अपनी जरूरतों के हिसाब से राष्ट्रवादी होते हैं।
                  विकसित और पश्चिमी देशों में मानवीय मूल्यों और लोकतंत्र की बहुत चर्चा होती है। ये लोग अपने आपको बहुत ऊँचे नैतिक धरातल पर रखते हैं। लेकिन इराक और लीबिया में इन्होने क्या किया। लोगों का एक अनुमान है की इराक में अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते केवल दवाइयों के बगैर मरने वाले बच्चों की तादाद दस लाख थी। अब ये वही सब काम सीरिया और यमन में कर रहे हैं। ये कौनसे मानवीय मूल्य हैं, कौनसा लोकतंत्र है। अगर कोई देश तुम्हारे साथ है, तुम्हारी कम्पनियों को लूटने की इजाजत दे रहा है तो सब ठीक है भले ही उसमे राजतंत्र हो या फौजी तानाशाही। लेकिन अगर कोई तुम्हे ये इजाजत नही देता तो वह सरकार अवैध है।
                  अगर कोई आदमी किसी मसले पर कोई बात रखता है और वो आपके खिलाफ है, फिर भले ही उसकी कोई बात कितनी ही सही क्यों न हो आप उसे दूसरा रूप देकर मुद्दा बना देते हैं। दादरी की घटना पर ओवैसी ने वहां का दौरा करने पर एक भी बात गलत नही कही ( किसी को एतराज हो तो वो विडिओ देख सकता है ) लेकिन वो गद्दार हो गया और जहर उगलने वाले संगीत सोम, साध्वी प्राची और योगी आदित्यनाथ देश भक्त हो गए। लोगों को क्या हासिल हुआ। गुजरात दंगों के बाद बहुत से हिन्दुओं को सजा हुई और उनके परिवार बर्बाद हो गए। नरेंद्र मोदी 12 साल मुख्यमंत्री रहे और अब प्रधानमंत्री बन गए। परन्तु ये लोग अपना जीवन बर्बाद कर गए। जो लोग दंगों में भाग लेकर सजा से बच भी गए, उनको भी क्या हासिल हुआ। उन्होंने जिन लोगों को मार डाला उनसे उनकी क्या सीधी दुश्मनी थी। लेकिन अपने स्वार्थों के पुरे होने की उम्मीद में ये लोग साम्प्रदायिक ताकतों के हाथों का हथियार बन गए। मुजफ्फर नगर के दंगों के बाद संगीत सोम और संजीव बालियान तो विधायक और मंत्री हो गए, इनके कुछ नजदीकी लोगों को भी राज का फायदा हो गया होगा लेकिन जेलों में बंद सैंकड़ो लोगों को क्या मिला, केवल जेलयात्री का सम्मान। मानो आजादी की लड़ाई में जेल गए थे।
                  इसलिए इन बातों से कुछ होगा, ये मुझे नही लगता। इन लोगों को केवल  कानून को सख्ती से लागु करके रोका जा सकता है।  भीड़ का कुछ नही बिगड़ता ये बात इनके दिल से निकल जानी चाहिए। जिन जिन लोगों की सजाएं दंगों में भाग लेने के कारण हुई उनका प्रचार होना चाहिए। बात फिर वहीं आ जाती है। ये काम टीवी मीडिया तो करेगा नही, क्योंकि उसको तो अपने हित देखने हैं फिर चाहे सारा देश जल जाये उसके ऑफिस को छोड़कर। अभी हाल का उदाहरण है। बिहार चुनाव में मीडिया हर नेता से पूछ रहा था की तुम विकास पर क्यों नही लड़ते। ऐसा मुंह बनाते थे एंकर जैसे विकास के बिना बहुत दुखी हों। जैसे ही बीफ का मुद्दा हाथ लगा उनके चेहरे चमक गए। अब दूसरा सवाल ही नही पूछते हैं। एक हफ्ते से बीफ छाया हुआ है और इलेक्सन तक छाया रहेगा। खुद वो और उनको पैसे देने वाली पार्टी दोनों चाहते थे की मुद्दा विकास से हट जाये और हट गया।
                   इसलिए मेरा ये कहना है की दंगों में भाग लेने वालों को सजा हो ये सुनिश्चित करो। केवल यही काम है जो लोगों को इससे दूर रख सकता है। बाकि की तो सारी बातें बस बातें ही हैं।

Tuesday, October 6, 2015

Vyang -- हम देश को जलाकर उसका विकास करेंगे।

                 हमने देश के विकास के नए तरीके निकाले हैं। हम पहले पुरे देश में आग लगाएंगे, बस्तियां जलाएंगे , लोगों को मारेंगे, उनके बीच नफरत की दिवार खड़ी करेंगे और फिर पुरे देश का विकास करेंगे। जब लोग आपस में एक दूसरे से नफरत करेंगे और आपस में बात भी नही करेंगे तब भूमि अधिग्रहण जैसे  कानूनो का विकास होगा क्योंकि लोग इकट्ठे नही हो सकते। फिर चाहे हम जमीन अडानी को दें या अम्बानी को कोई सवाल नही करेगा। क्योंकि आधे लोगों को डरा दिया जायेगा और बहुत से लोगों के बच्चे जेल में होंगे और वो उन्हें बाहर निकलवाने के लिए रोज हमारे यहां चककर लगाएंगे। उनकी हिम्मत हम पर सवाल उठाने की रह ही नही जाएगी।
                     जब चुनाव शुरू होता है तो लोग रोजगार की बात करते हैं, बिजली और पानी की बात करते हैं। स्कूलों की कमी की बात करते हैं। धीरे धीरे हम उन्हें गाय की बात पर ले आते हैं। दलितों को बता देते हैं की भूख कोई बड़ा मुद्दा नही है, मुद्दा है की अगर यादव सत्ता में आ गए तो उनका क्या होगा। यादवों को बता देते हैं की ये रोजगार वगैरा तो चलता रहता है, ये देखो की गाय की इज्जत कौन कौन नही करता है। ( हमारे अलावा )
महादलितों को कहते हैं की एक बार जितनराम मांझी के बेइज्जती का बदला ले लो, बाद में मनरेगा के लिए हमारे पास आना, हम सोचेंगे।
                  हमने नोजवानो को कह दिया है की हमने लोकसभा चुनाव में क्या-क्या वायदे किये थे ये भूल जाओ और देखो को प्रधानमंत्री की जुकेरबर्ग के साथ फोटो कितनी अच्छी आई है। तुम केवल ये देखो की हम कितनी बेशर्मी से पलटी मार सकते हैं। जब हमने केन्द्रीय विद्यालयों से जर्मन भाषा हटाकर संस्कृत लागु की थी तब हमने संस्कृत और संस्कृति पर कितने अच्छे भाषण दिए थे। शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी को तो ये भाषण रात रात भर जागकर रटवाए गए थे। लेकिन अब जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल के कहने पर हमने दुबारा जर्मन भाषा लागु कर दी तो जर्मन भाषा के योगदान पर हमारे भाषण पढ़ो, कितने अच्छे दिए हैं।
                     आप हमारे मंत्रियों का चुनाव और कामकाज देख सकते हो। हमने बिना पढ़ी-लिखी स्मृति ईरानी को शिक्षा मंत्री बना दिया, महेश शर्मा को संस्कृति मंत्री बना दिया भले ही उन्हें संस्कृति की परिभाषा भी मालूम न हो, गृह मंत्री राजनाथ सिंह अपने गृह दिल्ली को ही देख रहे हैं, जब भी LG कमजोर पड़ते दीखते हैं वो तुरंत स्टेज पर आ जाते हैं। अभी अभी उन्होंने सभी राज्यों को अडवाइजरी जारी की है, भले ही लोगों का ये कहना हो की अडवाइजरी की जरूरत तो केवल संघ मुख्यालय को ही थी।
                     लोग कहते हैं की प्रधानमंत्री नही बोल रहे। लेकिन हम पूछते हैं की प्रधानमंत्री ने अब तक बोलने अलावा और क्या किया है। जहां तक दादरी की घटना का सवाल है तो उसका आकलन चुनावो के बाद होगा की उससे हमे बिहार में कितना फायदा हुआ है। उस आकलन के बाद प्रधानमंत्री निर्णय करेंगे की उस पर क्या कहना है। हम पुरे देश को आग में झोँक रहे हैं लेकिन आपको ये विश्वास दिलाते हैं की आपका घर नही जलेगा। इस देश जलाने की कार्यवाही में जो नौजवान शामिल हो रहे हैं और जेल जा रहे हैं उन्हें हम शहीद का दर्जा देंगे और अपने बच्चों को चुनाव में टिकट देंगे।
                   इसलिए हमारी बिहार की जनता से अपील है की वो इस कार्यवाही में हमारा साथ दे। ये भूख बेकारी के बेकार सवाल भूल जाये और देश जलाने में योगदान करे। वैसे आपको एक बात बता देते हैं की चुनाव में हमारा एजेंडा विकास ही है।

Monday, October 5, 2015

Vyang -- हाय ! हमे नही मिला नोबल प्राइज ( Noble Prize )

                   
   हाय ! हमे नोबल प्राइज नही मिला। चिकित्सा का नोबल प्राइज इस बार चीन की यूयूतू को दे दिया और हमारे महर्षि और दुनिया के महान चिकित्सक बाबा रामदेव पपीते के पत्ते लेकर दिल्ली के हस्पतालों में फोटो उतरवाते रह गए। हमे इस बार के नोबल प्राइज का बहुत दुःख है। कारण ये है की एक तो ये मलेरिया के इलाज के लिए दिया गया है। दूसरा ये कहकर दिया गया है की यूयूतू ने पारम्परिक इलाज पर खोज करके मलेरिया के लिए असरकारक दवा बनाई। हमारे बाबा चिल्ला चिल्ला कर कह रहे थे की उनके पपीते के पत्ते और एलोवेरा से मलेरिया तो मलेरिया, डेंगू का भी पूरा इलाज किया जा सकता है। उन्होंने इसके समर्थन में कई मरीजों के नाम और जाँच रिपोर्टें भी पेश की थी। लेकिन दुनिया ने नही मानी। नोबल प्राइज कमेटी ने उनके नाम पर विचार तक नही किया। ये हमारी 5000 साल पुरानी संस्कृति को बदनाम करने की साजिश है और इसे बर्दास्त नही किया जा सकता। कोई आदमी पुरानी चीजें खोजे, पुराने इलाज खोजे, पुरानी सभ्यता खोजे और वो भारत से बाहर निकले , इससे बड़ी साजिश और क्या हो सकती है।
                      बाबा रामदेव कितने सालों से विभिन्न बिमारियों का इलाज खोज रहे हैं। ( ठीक है काला धन भी खोज रहे हैं। ) उन्होंने तो आयुर्वेद में एड्स और कैंसर का भी इलाज खोज लिया है। एड्स का इलाज तो अब तक बाकि दुनिया नही खोज पाई है, तो इसके लिए तो हमे नोबल प्राइज दिया ही जा सकता था। यहां तक की बाबा रामदेव ने तो लड़का होने तक की दवाई खोज निकाली लेकिन नाशुक्रे विश्व को बाबा की कदर ही नही है। दुनिया का कोई देश कभी ये खोज पाया की नाखुनो को आपस में रगड़ने से सर पर बाल उग आते हैं, हमने खोजा। एक समय तो ऐसा था जब दफ्तरों में भी लोग कलम और फाइलें छोड़कर नाख़ून रगड़ते रहते थे। इतनी महान और मौलिक खोजों के बाद भी हमे नोबल प्राइज ना दिया जाना साफ तौर पर हमारे खिलाफ साजिश दर्शाता है।
                        हमे इस मुद्दे को सयुंक्त राष्ट्र में उठाना चाहिए। एक सख्त पत्र विदेश मंत्रालय की तरफ से नोबल प्राइज कमेटी को जाना चाहिए जिसमे कहा गया हो की हमारा देश और हमारी भारतीय संस्कृति की रक्षक सरकार ये सब बर्दाश्त नही करेगी। एक पत्र चीन को भी भेजा जाना चाहिए की वो अब हमारे खिलाफ साजिश करना बंद करे। कुछ भी हो हमारी संस्कृति पर इस तरह का हमला ये सरकार बर्दाश्त नही करेगी।
                       उसके बाद दुनिया को सोचना पड़ेगा। उसे अगर नोबल प्राइज नही तो कोई ना कोई दूसरा प्राइज हमारे देश को देना ही पड़ेगा। जैसे वो बाबा रामदेव को बेस्ट मार्केटिंग का प्राइज दे सकते हैं। वैसे भी बेस्ट मार्केटिंग के विश्व स्तरीय पुरुस्कार की दौड़ में हमारे यहां केवल दो ही लोग हैं, एक बाबा रामदेव और दूसरे नरेंद्र मोदी। इस दौड़ में उनके सामने पुरे विश्व में कोई चुनौती नही है। ये पुरुस्कार दोनों को सयुंक्त रूप से भी दिया जा सकता है। आशा है हमारी सरकार इसके लिए गम्भीरता से प्रयास करेगी। 

पाकिस्तान से फहमीदा रियाज की नज्म, आज के हिंदुत्व पर:


तुम बिल्कुल हम जैसे निकले, अब तक कहां छुपे थे भाई?
वह मूरखता, वह घामड़पन, जिसमें हमने सदी गंवाई.
आखिर पहुंची द्वार तुम्हारे, अरे बधाई, बहुत बधाई;
भूत धरम का नाच रहा है, कायम हिन्दू राज करोगे?
सारे उल्टे काज करोगे? अपना चमन नाराज करोगे?
तुम भी बैठे करोगे सोचा, पूरी है वैसी तैयारी,
कौन है हिन्दू कौन नहीं है, तुम भी करोगे फतवे जारी;
वहां भी मुश्किल होगा जीना, दांतो आ जाएगा पसीना.
जैसे-तैसे कटा करेगी, वहां भी सबकी सांस घुटेगी;
माथे पर सिंदूर की रेखा, कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा!
क्या हमने दुर्दशा बनायी, कुछ भी तुमको नज़र न आयी?
भाड़ में जाये शिक्षा-विक्षा, अब जाहिलपन के गुन गाना,
आगे गड्ढा है यह मत देखो, वापस लाओ गया जमाना;
हम जिन पर रोया करते थे, तुम ने भी वह बात अब की है.
बहुत मलाल है हमको, लेकिन हा हा हा हा हो हो ही ही,
कल दुख से सोचा करती थी, सोच के बहुत हँसी आज आयी.
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले, हम दो कौम नहीं थे भाई;
मश्क करो तुम, आ जाएगा, उल्टे पांवों चलते जाना,
दूजा ध्यान न मन में आए, बस पीछे ही नज़र जमाना;
एक जाप-सा करते जाओ, बारम्बार यह ही दोहराओ.
कितना वीर महान था भारत! कैसा आलीशान था भारत!
फिर तुम लोग पहुंच जाओगे, बस परलोक पहुंच जाओगे!
हम तो हैं पहले से वहां पर, तुम भी समय निकालते रहना,
अब जिस नरक में जाओ, वहां से चिट्ठी-विट्ठी डालते रहना।

इस नज्म को गाने पर दिल्ली में हिंदुत्व वादियों ने हो-हल्ला किया था।

Sunday, October 4, 2015

दंगों के मामले में न्याय को अंतिम अंजाम तक पहुँचाओ

दंगों के मामले में कुछ चीजें बहुत साफ हैं और बार बार यही चीजें दंगों का कारण बनती हैं। इसलिए जब तक इन चीजों को नही रोका जायेगा, दंगों को रोकना  नामुमकिन है। लोगों की समझ में परिवर्तन लाने में समय लगेगा और फिर भी लोग उन्हें प्रभावित करने के लिए नए तरीके निकालते रहेंगे। इसलिए ये कुछ चीजें हैं जो दंगों पर रोक लगा सकती हैं। और इन्हे किया जाना चाहिए। किसी भी सभ्य समाज का आधार उस समाज में स्थापित कानून के राज का स्तर ही हो सकता है।

१.  दंगों के बारे में ये बात बार बार सामने आई है की वो प्रायोजित होते हैं। कोई ना कोई होता है जो दंगे को प्रायोजित करता है। इनमे मुख्य रूप से राजनीतिज्ञ होते हैं या फिर राजनीती से जुड़े दूसरे संगठन होते हैं। कुछ अपने आप को धार्मिक कहने वाले संगठन भी ये काम करते हैं लेकिन इन संगठनो को भी किसी ना किसी राजनितिक संगठन का समर्थन प्राप्त होता है। इसलिए ये जरूरी है की दंगों की जाँच करते समय उन संगठनो को ना केवल बेनकाब किया जाये, बल्कि जिम्मेदार लोगों पर मुकदमे बना कर उन्हें सजा दिलाई जाये। अब तक ये लोग जाँच के दायरे से बाहर रहते हैं और अगले दंगे की तैयारी करते रहते हैं।

२. दंगों में हिस्सा लेने वाले लोगों में एक समझ ये बनी हुई है की भीड़ का कुछ नही बिगड़ता। भीड़ में किस किस पर केस बनेगा और बनेगा तो साबित नही होगा। इस विचार से प्रभावित लोगों को दंगों के लिए आसानी से इस्तेमाल किया जाता है। गुजरात दंगों के बाद कुछ मानवाधिकार संगठनो और कार्यकर्ताओं, वकीलों और उच्चतम न्यायालय के सक्रिय हस्तक्षेप के बाद कई केसों में भाग लेने वाले लोगों को सजा हुई। जिसके बाद बहुत से लोगों के मन से ये बात निकल गयी। जब तक दंगों में भाग लेने वाले ज्यादातर लोगों को अदालत के सामने लाकर सजा नही दिलवाई जाएगी तब तक दंगों को रोकना मुश्किल है। एक बार ये संदेश चला जाये की दंगों में भाग लेने वाले को सजा होगी तो दंगे करने वाले संगठनो को लोग मिलने मुश्किल हो जायेंगे।

३. दंगों में शामिल लोगों को सजा से बचाने में हमारे देश की पुलिस का एक हिस्सा, जिसमे खुद साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह होते हैं वो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उसके साथ ही अगर किसी राज्य में उन्ही लोगों की सरकार है जिन पर दंगों के आरोप हैं तब सरकार में बैठे लोगों का दबाव भी जाँच को किसी निष्कर्ष तक नही पहुचने देता। गुजरात दंगों के मामले में यही चीज थी। सरकार नही चाहती थी की दंगों में भाग लेने वाले लोगों को सजा हो। इसलिए ये भी जरूरी है की उन लोगों को भी सजा दिलवाई जाये जो जाँच को प्रभावित कर रहे थे। उन पुलिस अधिकारीयों को भी सजा दिलवाई जाये जिन्होंने जाँच को जानबूझकर किसी निर्णय तक नही पहुंचने दिया। जब तक इन लोगों को सजा नही मिलेगी दंगों के लिए सामग्री उपलब्ध रहेगी।

४. दंगों का हर मामला विशेष अदालतों में रोजाना सुनवाई के आधार पर चलाया जाये। जितना जल्दी दंगों के मामलों में फैसला होगा उतना ही इसका प्रभाव समाज पर पड़ेगा। जो लोग दंगे करवाकर चुनाव जीत लेते हैं उन्हें इसका फायदा नही उठाने दिया जाये। जिन लोगों पर दंगों के मामले में केस चल रहे हैं वो यदि किसी दूसरी जगह जाकर जहरीला भाषण देते हैं तो उनकी जमानत तुरंत रद्द की जाये और फैसला होने तक उन्हें जेल में रखा जाये। कानून द्वारा दिए गए नागरिक अधिकारों के दुरूपयोग की इजाजत नही दी जानी चाहिए।

            एक बार दंगों की जाँच और न्याय को अपने अंतिम अंजाम तक पहुचने दो, उसके बाद दंगों के लिए लोग मिलने मुस्किल हो जायेंगे। लोगों का विश्वास न्यायिक मशीनरी पर बढ़ेगा और दंगों में बड़े पैमाने पर कमी आएगी।

दादरी की घटना के बाद के संकेत

दादरी के घटना के बाद का जो घटना कर्म है और उससे जो संकेत मिलते हैं वो इस प्रकार हैं।
१.  दादरी की घटना और उससे पहले के साम्प्रदायिक दंगों से समाज ने कोई सबक नही सीखा।
२.  दंगों की राजनीती करने वालों को आज भी दंगे भीड़ आसानी से उपलब्ध है।
३. उत्तर प्रदेश की सरकार इसको रोकने की बजाय इसका राजनितिक फायदा उठाने की कोशिश में है। उसने अरविन्द केजरीवाल जैसे लोगों को तो बिसाहड़ा गांव में जाने से रोकने की कोशिश की लेकिन मुश्लिम विरोधी ब्यानो के लिए कुख्यात महेश शर्मा और ओवैसी को रोकने की कोई कोशिश नही की। यहां तक की मुजफ्फरनगर दंगों के अभियुक्त संगीत सोम को तो वहां धारा 144 के बावजूद सभा को भी सम्बोधित करने दिया।
४. बीजेपी और आरएसएस का नंगा चेहरा फिर सामने आ गया। लालकिले से भाषण देने वाले प्रधानमंत्री ने मौका आने पर मुंह में दही जमा ली और बीजेपी की तरफ से वहां जो लोग गए उनमे से एक कुख्यात मुस्लिम विरोधी महेश शर्मा थे और दूसरे मुजफ्फरनगर दंगों के अभियुक्त संगीत सोम थे। संगीत सोम ने वहां फिर व्ही जहर भरे बयान दिए। उन्होंने कहा की या तो " कानून कानून की तरह काम करे वरना हम इसका जवाब देने में सक्षम हैं पहले की तरह।" इससे साफ जाहिर है की बीजेपी इस घटना को साम्प्रदायिक धुर्वीकरण के लिए इस्तेमाल कर रही है।
५.  देश का हिन्दू समाज एक बार फिर साम्प्रदायिक राजनीती के चारे की तरह इस्तेमाल हो गया। पता नही वो बार बार कुल्हाड़ी पर पैर क्यों मारता है। दसियों युवाओं का जीवन इस राजनीती ने फिर बर्बाद कर दिया। जिस मुस्लिम का कत्ल हुआ उसका तो परिवार बर्बाद हुआ ही , जिन युवाओं को अपनी जिंदगी के बेहतरीन साल सलाखों के पीछे गुजारने पड़ेंगे और जिन पर कातिल होने का कलंक लग गया उनके परिवार भी तो बर्बाद ही हो गए। हिन्दू समाज इस सच्चाई को कब समझेगा।

Saturday, October 3, 2015

दादरी घटना का मुख्य अभियुक्त गिरफ्तार

खबरी -- दादरी घटना का मुख्य अभियुक्त बीजेपी नेता का बेटा निकला। 

गप्पी -- माना आरएसएस का हर सदस्य दंगाई नही है लेकिन हर दंगाई आरएसएस का सदस्य क्यों निकलता है 
 

Friday, October 2, 2015

आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली ( proportional representation system ) सभी चुनावी बिमारियों का इलाज है।

किसी भी देश या संस्था जो लोकतंत्र या जन प्रतिनिधित्व पर आधारित होने की बात करती है , उसका मूल्यांकन उसके चुनाव के तरीके से होता है। सभी देश अपने अपने देश में विभिन्न प्रकार की चुनावी प्रणालियां अपनाते हैं। समय के साथ जब उनकी समस्याएं और सीमाएं सामने आती हैं तो उनमे परिवर्तन किये जाते हैं। अगर ये परिवर्तन ना किये जाएँ तो लोगों का सही प्रतिनिधित्व नही होता। इसलिए बार बार चुनाव सुधारों की बात चलती है। इसी तरह की एक प्रणाली है आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली। इस प्रणाली को सही प्रतिनिधित्व के लिए सटीक प्रणाली माना जाता है। हालाँकि विभिन्न देशों की जरूरतों और स्थितियों को ध्यान में रखते हुए इसमें कुछ अलग अलग तरीके भी अपनाये गए हैं। इस प्रणाली के बारे में सबसे पहले जॉन स्टुअर्ट मिल ने लिखा था

The case for proportional representation was made by John Stuart Mill in his 1861 essay Considerations on Representative Government:
In a representative body actually deliberating, the minority must of course be overruled; and in an equal democracy, the majority of the people, through their representatives, will outvote and prevail over the minority and their representatives. But does it follow that the minority should have no representatives at all? ... Is it necessary that the minority should not even be heard? Nothing but habit and old association can reconcile any reasonable being to the needless injustice. In a really equal democracy, every or any section would be represented, not disproportionately, but proportionately. A majority of the electors would always have a majority of the representatives, but a minority of the electors would always have a minority of the representatives. Man for man, they would be as fully represented as the majority. Unless they are, there is not equal government ... there is a part whose fair and equal share of influence in the representation is withheld from them, contrary to all just government, but, above all, contrary to the principle of democracy, which professes equality as its very root and foundation.[1]
Most academic political theorists agree with Mill,[7] that in a representative democracy the representatives should represent all segments of society.

प्रणाली का प्रारूप 
                             इस प्रणाली के अनुसार पहले सभी पार्टियों के नाम पर वोट डाली जाती हैं। जिस पार्टी को जितने प्रतिशत वोट मिलते हैं उतने प्रतिशत सीटें उसे अलाट कर दी जाती हैं। चुनाव से पहले सभी पार्टिया अपने प्रतिनिधियों की लिस्ट चुनाव आयोग को सौंपती हैं और उनको जितनी सीटें मिलती हैं उस लिस्ट के अनुसार ऊपर से उतने प्रतिनिधि चुने हुए माने जाते हैं। ये प्रणाली विश्व के कई देशों में जैसे आस्ट्रेलिया, स्विट्जरलैंड, फ़्रांस और रूस इत्यादि में लागु है। इस प्रणाली को सबसे बढ़िया और सटीक क्यों माना जाता है इसके कारण निम्नलिखित हैं।
उचित  प्रतिनिधित्व 
                            इस प्रणाली में सभी लोगों का उचित  प्रतिनिधित्व होता है। छोटे समूह जिनकी  संख्या 10 -12 % भी हो तो उनको भी उचित प्रतिनिधित्व मिलता है। हमारे देश में तो तमिलनाडु इत्यादि में पांच प्रतिशत वोट के फर्क से एक पार्टी सारी सीट जीत लेती है। दूसरे तरफ के लोग जिनकी  संख्या 40 % भी हो उन्हें कोई प्रतिनिधित्व नही मिलता।इस प्रणाली से दूसरे अल्पसंख्यक समूहों को भी उनका उचित प्रतिनिधित्व मिलता है संसद सही मायने में पुरे देश का प्रतिनिधित्व करती है।
धन के प्रभाव  पर रोक 
                             अलग अलग इलाके के अनुसार अलग अलग उम्मीदवार ना होने के कारण धन के बेतहाशा खर्चे पर भी रोक लगेगी। अभी तो उम्मीदवार खुद को जिताने के लिए भारी पैमाने पर पैसा खर्च करते हैं। ये प्रणाली लागु होने के बाद पार्टी के अनुसार खर्च की सीमा तय की जा सकती है। उस पर आयोग द्वारा नजर रखना भी आसान होगा। और इस बुराई को दूर करने के लिए मीडिया बहसों इत्यादि का इंतजाम किया जा सकता है ताकि लोगों के सवालों पर विभिन्न पार्टियों की राय जानी  जा सके। जब धनी उम्मीदवारों की मजबूरी नही रह जाएगी तो पार्टियां ईमानदार और काबिल लोगों के नाम अपनी लिस्ट में शामिल करेंगी और इस तरह संसद के प्रतिनिधियों का स्तर सुधरेगा।
बाहुबल पर रोक
                          धनी लोगों की तरह बाहुबलियों और अपराधियों पर भी अपने आप रोक लग जाएगी। इन बाहुबलियों का प्रभाव केवल अपने इलाके तक सिमित होता है। उसके बाद अगर कोई पार्टी किसी अपराधी को अपनी लिस्ट में शामिल करती है तो पुरे देश में उसका विरोध होगा और कोई पार्टी ये खतरा मोल नही लेना चाहेगी। अब तक ये गुंडा तत्व शरीफ लोगों को अपने क्षेत्र से जीतना तो दूर प्रचार भी नही करने देते।
महिलाओं का प्रतिनिधित्व 
                                  इस प्रणाली से महिलाओं को भी उचित प्रतिनिधित्व मिलेगा। अभी तक पार्टियां उन्हें कम टिकट देती हैं और बहाना बनाती हैं की उनकी जीतने की संभावना कम होती है। एक स्तर तक इस बात में सच्चाई भी हो सकती है। इस प्रणाली के बाद महिलाओं की संख्या तय की जा सकती है और नियम बनाया जा सकता है की पार्टियां महिलाओं की लिस्ट अलग से देंगी। उसके बाद पार्टी को मिलने वाली सीटों में एक तिहाई सीटें उस लिस्ट में से चुनी जाएँगी। उसी तरफ अभी तक कमजोर वर्गों को प्रतिनिधित्व देने के लिए उनकी सीटें सुरक्षित कर दी जाती हैं जिससे दूसरे लोग वहां से चुनाव नही लड़ सकते। इस प्रणाली के अनुसार उनका हिस्सा भी सुनिश्चित किया जा सकता है।
                      इस तरह इस प्रणाली से कम से कम हमारे देश के चुनाव की तो सभी बिमारियों का अंत किया जा सकता है। फिर ये सवाल उठता है की अब तक इस प्रणाली को लागु करने के प्रयास क्यों नही किये गए। दरअसल राज करने वाली बड़ी पार्टियों को लगता है की उनके पास केवल 25 -30 % ही वोट प्रतिशत है और इस प्रणाली के लागु होने के बाद उनको कभी भी बहुमत नही मिलेगा और उन्हें दूसरी पार्टियों का समर्थन लेना पड़ेगा। दूसरी तरफ इन पार्टियों के पास पैसा भी अनाप-शनाप होता है और वो इसका उपयोग करके बहुमत प्राप्त कर लेती हैं। कुछ राजनैतिक पार्टिओं को ये बुराईया फायदा करती हैं इसलिए वो इस पर विचार ही नही करने देती। अब समय आ गया है की  देश  के लोग अपने सही प्रतिनिधित्व की मांग करें।
                    इस प्रणाली के बारे में और ज्यादा जानने के लिए विकिपीडिआ के इस पेज पर जा सकते हैं -https://en.wikipedia.org/wiki/Proportional_representation

ऊपर दिया गया एक संदर्भ यहां से लिया गया है।   ( 1 )

References--

Thursday, October 1, 2015

मोदी गले क्यों पड़ रहे हैं ?

फ़ेसबुक के मालिक जुकेरबर्ग और राष्ट्रपति ओबामा के साथ जो मोदीजी की गले मिलने की तस्वीरें छपी हैं उन्हें देख कर मीडिया के एक हिस्से ने उसे गले पड़ना बताया है। आप भी देखिये ----
हमें  तो केवल बशीर बद्र साहब का एक शेर याद आया और उसमे कुछ सुधर कर दिया।
        " हाथ भी नही मिलाएगा कोई जो यूँ गले पड़ोगे तपाक से ,
           पब्लिसिटी का जनून है पर कायदे से मिला करो।

विजय गोयल, गांधी, मोदी और महाराष्ट्र के किसान

खबरी -- दिल्ली बीजेपी के नेता विजय गोयल ने महात्मा गांधी के साथ मोदी की तुलना का आधार बताते हुए कहा है की दोनों ही साबरमती से आते हैं। 

गुप्पी -- मुझे डर है की इस आधार पर कोई मोदी की तुलना भगवान राम से ना कर दे की दोनों ने अपनी पत्नी को त्याग दिया था। 

खबरी -- महाराष्ट्र सरकार ने सुखा पीड़ित किसानो को मदद के नाम पर पट्रोल और डीजल दो रूपये महंगा कर दिया। 

गप्पी -- अब महाराष्ट्र के किसानो को डीजल पम्प और ट्रैक्टर के लिए दो रूपये डीजल महंगा खरीदना पड़ेगा। मोदी जी ने बिहार के लिए सवा लाख करोड़ का पैकेज दे दिया और महाराष्ट्र के किसानो को भूखा मरने के लिए छोड़ दिया। क्योंकि अब वहां तो इलेक्शन पांच साल बाद होंगे।